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खैरात के खिलाफ

लोगों को मुफ्तखोर बनाने पर कोर्ट नाराज
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देश में विभिन्न चुनावों से पूर्व लगातार मुफ्त की योजनाओं के ऐलान पर कठोर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नीति-नियंताओं से सवाल किया है कि कहीं हम परजीवियों का एक वर्ग तो नहीं बना रहे हैं? अदालत की चिंता की हकीकत पर मोहर लगाते हुए बुधवार को सी.आई.आई़ साऊथ ग्लोबल लिंकेज समिट में लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यम ने कहा कि सरकारी मुफ्त स्कीमों के कारण निर्माण उद्योग में मजदूरों की कमी हो रही है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वेल्फेयर स्कीमों से आराम की उपलब्धता के कारण निर्माण से जुड़े श्रमिक काम करने से कतरा रहे हैं। यह भी कि दुनियाभर में बड़ी संख्या में लोग काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं, लेकिन भारत में लोग काम के लिये दूसरे शहरों में जाने के लिये तैयार नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट की चिंता इसलिए भी वाजिब है कि देश के अस्सी करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन, विभिन्न वर्गों को नगदी हस्तांतरण, बिजली-पानी की मुफ्त योजनाओं के कारण कई राज्यों की सरकारों पर कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। निश्चित तौर पर किसी विकासशील देश के लिये यह उत्साहजनक स्थिति नहीं है। यह भी हकीकत है कि जब किसी व्यक्ति को सुविधाएं आसानी से और मुफ्त मिलने लगें तो वह आलसी हो जाता है। साथ ही विकास की मुख्यधारा से भी कट जाता है। दरअसल, कल्याणकारी योजनाओं का मकसद नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारना होता है। लेकिन यदि लोग काहिली की राह चुनने लगें तो यह देश हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। एक आदर्श स्थिति तो यह होनी चाहिए कि सरकार अपने नागरिकों के लिये ऐसा कार्यशील वातावरण बनाये, जिससे देश के आर्थिक विकास में उनकी भूमिका सुनिश्चित हो। लेकिन दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में वोट पाने का शॉर्टकट मुफ्त की रेवड़ियां बांटना हो गया है। वहीं गरीबी उन्मूलन एक सुविधाजनक राजनीतिक हथियार बना है। जिसके चलते चुनाव से पहले मुफ्त की घोषणाएं राजनीतिक फैशन बन गया है।

निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी तार्किक है कि वोट के लालच में राजनीतिक दल परजीवियों का एक वर्ग तैयार कर रहे हैं। काम के बदले अनाज व अन्य सुविधाएं देना तो तार्किक है, लेकिन मुफ्त का राशन व नकदी देना उचित नहीं है। कोरोना संकट में रोजगार के साधन सिमटने की वजह से मुफ्त अनाज समय की जरूरत थी, लेकिन इस योजना को लगातार नहीं चलाया जाना चाहिए। आखिरकार मुफ्त योजनाओं का बोझ आयकरदाताओं पर ही पड़ता है। जरूरतमंद लोगों में आत्मविश्वास जगाकर उन्हें राष्ट्र के लिये योगदान हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। देश की अदालत बार-बार राजनेताओं से ऐसी घोषणाओं से परहेज करने को कहती रही है, लेकिन राजनीतिक दलों पर इसका कोई असर नजर नहीं आता। देश में मनरेगा के तहत रोजगार दिया जाना बेरोजगारों के हित में एक सकारात्मक कदम था। लेकिन मुफ्त में राशन व नगदी देना लोगों को अकर्मण्य बनाने जैसा ही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनरेगा में लगातार कम होता पंजीकरण मुफ्त की योजनाओं का ही नकारात्मक प्रभाव हो। सरकारों को चाहिए कि रोजगार के नये-नये अवसर सृजित करें। मुफ्त देने के बजाय लोगों को स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनाये। देश की तरक्की और विकास की दृष्टि से मुफ्त की योजनाएं घातक ही कही जा सकती हैं। जाहिर बात है कि यदि घर बैठे सब-कुछ आराम से मिलने लगेगा तो श्रमिक काम की तलाश में घर से क्यों निकलेंगे। निस्संदेह, मुफ्त की योजनाएं देश के विकास के लिये एक प्रतिगामी कदम ही है। यह भारतीय लोकतंत्र के हित में भी नहीं है कि मतदाता लेन-देन के आधार पर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने लगें। कालांतर वे इसे अपना अधिकार समझने लगेंगे। फिर उनकी आकांक्षाएं भी बढ़ने लगेंगी। फिर वे योग्य जनप्रतिनिधि का चयन करने के बजाय तात्कालिक आर्थिक लाभ को प्राथमिकता देने लगेंगे। निश्चित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये यह शुभ संकेत नहीं है। दुनिया में इससे भारतीय लोकतंत्र की अच्छी छवि कदापि नहीं बनेगी। नीति-नियंताओं को ऐसी रोजगार बढ़ाने वाली योजनाओं को प्रश्रय देना होगा जो नागरिकों को स्वावलंबी, स्वाभिमानी और कर्मशील बनायें।

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