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विकास की आकांक्षाओं के लिए परिवर्तन की बयार

उत्तराखंड पंचायत चुनाव
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इस बार उत्तराखंड से यह खबर इसलिए खासतौर पर सुर्खियों में है क्योंकि इन चुनावों में सरकारी सेवा से ससम्मान रिटायर होने वाले शिक्षक, प्रधानाचार्य और पुलिस व सेना के ऐसे वरिष्ठ अधिकारीगण शामिल हैं जिनका अब से पहले राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहा है और जो अपने पैतृक गांव लौटकर ग्राम प्रधान के रूप में उसके विकास का सपना मन में पाले हुए हैं।

त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को लेकर उत्तराखंड में इस बार माहौल कुछ अलग तरह का नजर आ रहा है। अब जनता लोकतंत्र की इस सबसे छोटी इकाई के माध्यम से राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव की उम्मीद पाल रही है और इसमें सामान्य ग्रामीण जन से लेकर बौद्धिक और शिक्षित वर्ग तक की महत्वपूर्ण सहभागिता दिख रही है। गौरतलब है कि इस बार गांवों में बड़ी संख्या में निर्विरोध ग्राम प्रधान चुने गये हैं। यही नहीं, उससे ऊपर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत सदस्य भी इसमें शामिल हैं। बताया जा रहा है कि 20,820 ग्राम पंचायत सदस्यों समेत कुल 22,429 प्रत्याशी निर्विरोध चुने गये हैं। इनमें 1361 ग्राम प्रधान, 240 क्षेत्र पंचायत सदस्य और आठ जिला पंचायत सदस्य शामिल हैं।

हालांकि, पंचायत चुनाव में जनप्रतिनिधियों का निर्विरोध चुना जाना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार उत्तराखंड से यह खबर इसलिए खासतौर पर सुर्खियों में है क्योंकि इन चुनावों में सरकारी सेवा से ससम्मान रिटायर होने वाले शिक्षक, प्रधानाचार्य और पुलिस व सेना के ऐसे वरिष्ठ अधिकारीगण शामिल हैं जिनका अब से पहले राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहा है और जो अपने पैतृक गांव लौटकर ग्राम प्रधान के रूप में उसके विकास का सपना मन में पाले हुए हैं। परिवर्तन की यह बयार गढ़वाल क्षेत्र के सुदूर उत्तरकाशी और भिलंगना घाटी से लेकर कुमाऊं के चंपावत और पिथौरागढ़ तक बह रही है। रिवर्स पलायन की इससे बड़ी नजीर भला और क्या हो सकती है!

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निर्विरोध चुने गये 1361 ग्राम प्रधानों में सबसे ज्यादा खबरों में दो नाम ऐसे हैं जो सेना और पुलिस विभाग में बहुत ही ऊंचे पद से रिटायर होने के बाद अपने सुविधाहीन गांवों में लौट आये हैं जबकि ये भी दिल्ली, देहरादून या किसी सुविधा-संपन्न महानगर में आराम की जिंदगी बसर कर सकते थे। रिवर्स पलायन के विचार को व्यावहारिक धरातल पर उतारते हुए अपने गांव में बसने का निर्णय ले अब ये गांव वालों की आम सहमति से ग्राम प्रधान बन विकास के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं। इनमें पहला नाम है सेना से रिटायर हुए कर्नल यशपाल नेगी का। पौड़ी जिले के बीरोंखाल ब्लाक के वीरगणा गांव के मूल निवासी कर्नल यशपाल नेगी रिटायर होने के बाद अपने गांव लौटने के लिए कृत संकल्प थे। 2020 में जब वह सपत्नीक गांव लौट अपने बंजर पड़े खेतों को आबाद करने की मंशा से खेती-किसानी में जुट गये तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना न रहा। आज कर्नल अपने लहलहाते खेतों के साथ जैविक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं और उनके इस काम में उनकी पत्नी उनसे भी ज्यादा उत्साहित दिखती हैं। कर्नल यशपाल और उनकी पत्नी नि:स्वार्थ भाव से गांव के बच्चों को शिक्षा और स्वरोजगार के प्रति भी प्रेरित कर रहे हैं। यही कारण है कि गांव वालों ने उन्हें एकमत से अपना प्रधान चुन लिया है।

ऐसा ही एक महत्वपूर्ण नाम है पूर्व आईपीएस विमला गुंज्याल, जो पिथौरागढ़ के धारचूला स्थित व्यास घाटी के गुंजी गांव की मूल निवासी हैं। अविभाजित उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड तक 35 सालों के स्वर्णिम सेवाकाल के बाद पुलिस महानिदेशक के पद से रिटायर होने वाली विमला जी भी अब अपने पैतृक गांव गुंजी में रह रही हैं। गुंजी के ग्रामीणों की इच्छा पर उनके ग्राम प्रधान पद के लिए हामी भरने के बाद सभी दावेदारों ने अपने नाम वापस ले लिए और उन्हें निर्विरोध प्रधान चुन लिया। ऐसे ही टिहरी के अमिल्डा गांव ने अवकाशप्राप्त प्रधानाचार्य दिनेश डंगवाल को निर्विरोध अपना प्रधान चुना है। इनके अलावा भी ऐसे बहुत से शिक्षित और जागरूक ग्रामीण निर्विरोध प्रधान चुने गये हैं जिनका अब से पहले राजनीति से कोई सरोकार नहीं रहा है लेकिन अपने गांव के विकास के लिए उनके मन में भरपूर जज्बा है।

प्रबुद्ध या ईमानदार प्रतिनिधि को निर्विरोध चुनने संबंधी उत्तराखंड के जनमानस का यह हृदय परिवर्तन इसलिए उम्मीद जगा रहा है क्योंकि पंचायती राज अधिनियम के तहत जब से ग्राम प्रधानों को मानदेय के साथ ग्रामसभा के लिए निर्धारित फंड के वित्तीय अधिकार मिले हैं तब से एक अदद ग्राम प्रधानी के लिए भी साम-दाम-दंड-भेद की नीति के तहत आम चुनाव की तरह ही सिर फुटौवल मची दिखती है जो इस बार भी है ही, लेकिन कई ग्राम और क्षेत्र पंचायतों की तस्वीर बदली भी हुई है जो उत्तराखंड के सुखद भविष्य के लिए आशा की एक छोटी-सी किरण बनती दिख रही है। इस सकारात्मक पहल का सबसे तात्कालिक लाभ तो यही है कि चुनाव जीतने के लिए पैसों की बंदरबांट और मुर्गा ब शराब-पार्टियों का जो घिनौना रूप दिखता है, उससे वातावरण विषाक्त होने से बच जाता है।

दरअसल, उत्तराखंड के लोग इस बात को तो बखूबी समझते रहे हैं कि राज्य निर्माण का सबसे बड़ा उद्देश्य दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों का विकास था लेकिन राज्य गठन से लेकर आज तक बारी-बारी से दो राष्ट्रीय दलों- भाजपा और कांग्रेस के हाथों सत्ता सौंपकर देहरादून में बैठकर अलग उत्तराखंड राज्य के उद्देश्य को कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता है। इन दोनों ही दलों के क्षत्रप या कहें मुख्यमंत्री तो दिल्ली में बैठे अपने केंद्रीय नेतृत्व के हाथों की कठपुतली भर रहे हैं और राज्य से पहले उसके प्रति वफादार दिखते हैं।

विडम्बना यह कि लाख कोशिशों के बाद भी उत्तराखंड में कोई ऐसा क्षेत्रीय नेतृत्व नहीं उभर पा रहा है जो देहरादून विधानसभा में इन दोनों राष्ट्रीय दलों को एक साथ विपक्ष वाले पाले में बैठने के लिए मजबूर कर सके। मृतप्राय हो चला राज्य आंदोलन का विजेता ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ लाख कोशिशों के बाद भी अपने संगठन को मजबूत नहीं कर पा रहा है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यही है कि 25 साल पहले कई शहादतों के बाद बना यह राज्य अपने किसी ईमानदार और क्षेत्रीय नेतृत्व के झंडे तले अपेक्षित विकास का सपना कैसे पूरा करे!

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