हम भी तो दोषी हैं राधिका की मौत के
लड़की कुछ न करे तो समस्या, कुछ करे, ज्यादा पैसा कमाए, तो आफत। जाए तो जाए कहां। इसलिए राधिका की हत्या में उसका पिता तो जिम्मेदार है ही, समाज भी जिम्मेदार है, जो लड़के और लड़कियों को अलग-अलग नजरिये से देखता है।
क्षमा शर्मा
राधिका यादव, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनना चाहती थी। उसने एक म्यूजिक वीडियो भी बनाया था। उसमें इनामुल हक नाम के लड़के ने काम भी किया था। इनामुल हक ने कहा कि मेरी न उससे कोई दोस्ती थी, न ही वीडियो बनाने के दौरान हमारी कोई बातचीत हुई। सवाल यह है कि इन दिनों सोशल मीडिया के जरिए जब तमाम युवा ग्लोबल हो गए हैं। तब कौन किससे बात कर रहा है, इसे कैसे रोका जा सकता है। वह कोई भी हो सकता है-हिंदू, मुसलमान, ईसाई। कैसा समाज बना रहे हैं हम। कहा जा रहा है कि पिता वीडियो बनाने से नाराज था। उसने राधिका से वीडियो डिलीट करने के लिए कहा था, लेकिन उसने मना कर दिया। एक लड़की अगर कुछ करना चाहती है, तो उसकी राह में इतने रोड़े क्यों हैं। खबरों में आ रहा है कि पिता पंद्रह दिनों से सोया नहीं था।
जिस दिन राधिका की मां का जन्मदिन था, वह घर की साज-सज्जा कर रही थी। रसोई में खाना पका रही थी, उसी वक्त उसे तीन गोलियां मार दी गईं। एक पिता जिसने अपनी बेटी को टेनिस खेलना सिखाया था, उसे महंगे से महंगे रैकेट लाकर दिए थे, जब उसके कंधे में चोट लग गई, तो राधिका ने टैनिस एकेडमी खोल ली। वह खूब चलने लगी। पता चला कि इससे पिता जब बाहर निकलता, तो आसपास के लोग कहते कि तुम्हारी बेटी तो तुमसे ज्यादा पैसे कमाती है। तुम उसकी कमाई खाते हो।
यह घटना गुड़गांव के उस पॉश इलाके में हुई, जिसे उत्तर भारत का साइबर सिटी कहा जाता है। चमचमाती इमारतों और बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों के दफ्तरों से ये शहर भरा पड़ा है। लेकिन इन सबसे क्या होता है, जब मन में कुछ और चल रहा हो। बेटी की कमाई पिता के लिए इतनी अपमानजनक बने कि उसकी हत्या करनी पड़े। बजाय इसके कि उसकी कमाई और कुछ करने के जज्बे की तारीफ की जाती, गर्व किया जाता, उसे मौत दे दी गई। क्यों भला। जो लड़की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी हो, उसे इतनी भी आजादी नहीं कि वह कोई वीडियो बना सके। एकेडमी खोल सके। आखिर जो बातें उसकी तारीफ का कारण बनतीं, वे जान लेने का कारण कैसे बन गईं।
प्राॅपर्टी डीलर का व्यवसाय करने वाले पिता का कहना है कि वह पड़ोसियों के तानों से तंग आ चुका था। उसने राधिका से कहा था कि घर में पैसे की कोई कमी नहीं है, वह एकेडमी बंद कर दे, मगर वह नहीं मानी।
आखिर वह क्यों मानती। इन दिनों कोई भी एकेडमी चलाना आसान बात नहीं है। मात्र तीन महीने की अवधि में ही यदि यह एकेडमी चल निकली और अच्छी आय होने लगी, तो इसमें उस लड़की के कितने प्रयत्न और मेहनत लगी होगी। अफसोस कि जिस पिता ने उसे सपने दिखाना सिखाया था, उन्हें पूरा करने में मदद की थी, उसी ने अपनी बेटी की जान ले ली। उन ताने मारने वालों का तो कुछ नहीं गया। कायदे से तो पुलिस को उन्हें पकड़ना चाहिए। पिता के साथ-साथ राधिका की हत्या में ऐसे लोगों की भी समान भागीदारी है, जिनसे एक पचीस साल की लड़की की सफलता नहीं देखी गई। ईर्ष्या के भाव ने, दूसरों की लड़की पर बिना कारण उंगली उठाए जाने वाली सोच ने एक पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया। राधिका की मां पर क्या गुजर रही होगी, जिसने ऐन अपने जन्मदिन पर बेटी को खो दिया। और उसकी जान लेने वाला कोई और नहीं उसका पिता निकला।
इस लेखिका की मां जो आज एक सौ सात वर्ष की होती, उसकी एक बात हमेशा याद रही। वह कहती थी कि तुम कुछ भी करो, दुनिया उसमें खोट निकालेगी। इसलिए दुनिया की परवाह न करके वह करो, जो तुम्हें ठीक लगता है। दरअसल, लड़कियों को यह महामंत्र सीखना चाहिए। यदि स्त्रियों ने दुनिया की परवाह की होती, तो आज वे हर क्षेत्र में सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित न कर रही होतीं। रघुवीर सहाय के शब्दों में-पढ़िए गीता, बनिए सीता, फिर इस सब में लगा पलीता निज घर–बार बसाइए। महान लेखिका महादेवी वर्मा ने भी ऐसा ही बहुत कुछ लिखा है, लेकिन निज घर, बार में भी चैन कहां। कभी ससुराल में मौत, तो कभी अपने ही माता-पिता द्वारा दी गई मौत। हरियाणा के सोनीपत से ही बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा दिया गया था। इससे बहुत कुछ बदला, लेकिन राधिका की हत्या ने जैसे हिलाकर रख दिया। राधिका का जीवन गया, पिता जेल में सड़ेगा, ऐसे में बाकी परिवार का क्या होगा, मां क्या करेगी, कौन जाने।
लड़कियों को जिन कठिनाइयों का सामना विवाह के बाद करना पड़ता है, वे तो हैं ही। लेकिन अपने परिवार में भी तो उन्हें कोई कम कठिनाइयां नहीं झेलनी पड़तीं। धर्म और विज्ञान का कैसा घालमेल है कि जिस अमीनोसेंटेसिस टैस्ट और अल्ट्रासाउंड को मनुष्य के अंदरूनी रोगों को देखने के लिए बनाया गया था, उसकी मदद लेकर लड़कियों को मारा जाने लगा। अमीनोसेंटेसिस तो फिर भी महंगा टैस्ट था, अल्ट्रासाउंड ने तो इसे और आसान बना दिया। पश्चिमी देशों में इसीलिए भारतीय माता-पिताओं पर शक किया जाता है। उन्हें यह नहीं बताया जाता कि गर्भ में लड़का है या लड़की। क्योंकि वहां डाक्टर मानते हैं कि भारतीय माता-पिता लड़की होने वाली है, यह पता चलते ही, उससे निजात पाने की कोशिश करते हैं। कई दम्पतियों का कहना है कि यह सुनकर उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है। क्योंकि अन्य देशों के लोगों को बच्चों का लिंग बता दिया जाता है। फिर लड़की पैदा होते ही मातम मनाना, उसकी शिक्षा में भी भेदभाव, इलाज में भी, जन्मते ही यह उपदेश कि उसे तो पराये घर जाना है, आदि बातें लड़कियों का कैसा मानस बनाती हैं कि वे हर तरह के शोषण को अपना भाग्य मान लेती हैं।
लड़की कुछ न करे तो समस्या, कुछ करे, ज्यादा पैसा कमाए, तो आफत। जाए तो जाए कहां। इसलिए राधिका की हत्या में उसका पिता तो जिम्मेदार है ही, समाज भी जिम्मेदार है, जो लड़के और लड़कियों को अलग-अलग नजरिये से देखता है। लड़कियों की सफलता का मतलब, हाथ में पैसा आने का अर्थ, घर के पुरुषों की बेइज्जती तो है ही, अड़ोस-पड़ोस वालों की ईर्ष्या-द्वेष से भरी उठती उंगलियां भी दोषी हैं।
अब तो यह भी पूछने का मन नहीं करता कि ऐसा क्यों करते हो। और लड़कियों को तो बिना कुछ किए की सजा मिल जाती है, तुम फिर किसी अगली लड़की पर थानेदारी दिखाने निकल पड़ते हो। कब तक लड़कियां अपनों के ही हाथों द्वारा मारी जाती रहेंगी। इस बात पर इतराने से क्या होता है कि हमने तो अपने देश में 1966 में ही एक महिला को प्रधानमंत्री बना दिया था, अमेरिका तो आज तक ये नहीं कर पाया कि देश का सर्वोच्च पद किसी महिला को सौंप सके। लेकिन अमेरिका में किसी लड़की को न कोई ताने देता है, न तानों के कारण कोई पिता उसकी हत्या करता है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।