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हर बिहारी नागरिक का मताधिकार हो सुनिश्चित

द ग्रेट गेम
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लोकतंत्र में सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार होना चाहिये। बिहार के लोगों को भी, जहां विस चुनाव से कुछेक माह पहले चुनाव आयोग ने विशेष गहन पुनरीक्षण का ऐलान किया। इसके समय व दस्तावेजों को लेकर विपक्ष की चिंताएं स्वाभाविक हैं। पुनरीक्षण में न पूरी होने लायक शर्तें नहीं लगानी चाहिए। इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला राहतकारी है।

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ज्योति मल्होत्रा

गत सप्ताहांत पंजाब के उन खेतों, कारखानों और घरों में राहत की सांस ली गई जहां प्रवासी बिहारी मज़दूर काम करते हैं। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और जॉयमाल्या बागची ने चुनाव आयोग को अपनी टिप्पणी में कहा है कि उसे मतदाता की पात्रता सिद्ध करने में आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र के इस्तेमाल की भी इज़ाजत देनी चाहिए ताकि नवंबर के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान के लिए जब वे कतार में लगें तो सांस अटकी न रहे।

यह कहना कि पंजाब-हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और देश के शेष हिस्सों का भी - बिहार चुनाव से संबंध है, स्वाभाविक बात है। बिहारी - और साथ ही उत्तर प्रदेश के लोग - पूरे उत्तर भारत में सब तरफ आमतौर पर दिखाई देते हैं। वे उन खेतों को जोतते हैं जो मुख्यतः पंजाबी कौम के हैं। वे कस्बों और शहरों में काम करते हैं और तमाम वे काम करते हैं, जो कनाडा की ‘खोज’ करने से पहले पंजाबी कभी खुद किया करते थे। किसी शख्स द्वारा उनके बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों के बावजूद, हमारा उनके बिना गुजारा नहीं हो सकता।

इसीलिए हमें तीन दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस धूलिया और जस्टिस बागची द्वारा कही गई बातों पर कहीं ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। वह यह कि अगर भारत को सभी लोकतंत्रों की जननी का अपना खिताब कायम रखना है - जैसा कि उसने हिंसात्मक विभाजन के बाद 1951 में हुए पहले चुनाव आयोजन के बाद से करने का प्रयास किया है - तो उसे 18 साल से ज़्यादा उम्र के सभी बिहारियों को वोट देने की अनुमति देनी चाहिए, जैसा कि वे पिछले दशकों में करते आए हैं।

यह समझ से परे है कि चुनाव आयोग ने बिहार चुनाव सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा करने में इतनी देर तक यानि 24 जून तक इंतजार क्यों किया। कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव आयोग के ऐसा करने के पीछे कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा देश के एक अंग्रेजी समाचारपत्र में लिखे लेख में महाराष्ट्र में ‘चुनाव में हेराफेरी’ के बारे की गई तीखी टिप्पणियों से बनी उकसाहट है। (उस लेख में राहुल ने कहा कि अन्य मानदंडों के बीच, भाजपा ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 89 प्रतिशत पर जीत हासिल की, जबकि केवल चार महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में उसे केवल 32 प्रतिशत सीटों पर ही विजय मिली थी)। वहीं कुछ अन्य को यकीन है कि चुनाव आयोग की घोषणा का समय महज एक संयोग था। बहरहाल, यह ऐलान आश्चर्यजनक था।

शायद चुनाव आयोग का मानना हो कि यह समय एकदम उचित है। क्योंकि बिहार मतदाता सूचियों में आखिरी बार पुनरीक्षण 2003 में हुआ था और तब से लेकर अब तक पांच लोकसभा चुनाव हो चुके हैं। इसलिए तमाम चूकों और कमियों को संशोधित और दुरुस्त करने का सबसे उपयुक्त समय यही है।

अगर ऐसा है भी, तब भी अड़चन पैदा करने वाली शर्तें क्यों ठोकनी? सर्वप्रथम, आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र (जिसे चुनाव आयोग खुद जारी करता है) और सर्वव्यापी राशन कार्ड को अमान्य बना दिया, जिसका कोई तुक नहीं। दूसरा, बिहार के 7.89 करोड़ मतदाताओं से विस्तृत जानकारी मांगना जैसे कि पिता और माता के जन्मस्थान को ‘दस्तावेजी साक्ष्य’ से सिद्ध करना। इससे लगने लगता है कि मानो चुनाव आयोग नागरिकता का प्रमाण मांग रहा हो। तीसरा, चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि वह 1 अगस्त को संशोधित मसौदा मतदाता सूची प्रकाशित करेगा, जिसका मतलब है कि बिहारियों के पास अपनी जानकारी जुटाने के लिए बमुश्किल पांच हफ़्ते का समय है।

अब बड़ी संख्या में बिहारी कामगार, जो पंजाब के खेतों में या महाराष्ट्र के निर्माण स्थलों पर मजदूरी कर रहे हैं, उनके लिए यह कैसे संभव होगा? क्या वे अपना कामकाज छोड़कर किसी नज़दीकी साइबर कैफ़े में जाकर यह खंगालते फिरें कि उनका नाम सूची में है या नहीं? इसीलिए कई प्रतिष्ठित लोगों, जिसमें एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसे संगठनों के अलावा राजनेता जैसे कि महुआ मोइत्रा और मनोज कुमार झा (वे द ट्रिब्यून में भी लिखते हैं) शामिल हैं, ने सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर कर दी।

इस प्रक्रिया पर रोक न लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने सही ही किया है। सत्यापन के लिए चुनाव आयोग द्वारा पहले से बताए गए 11 दस्तावेजों के अतिरिक्त तीन और दस्तावेज शामिल करने का सुझाव देने के अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने कई और प्रश्न पूछे हैं, जिनमें यह भी शामिल है ‘क्या चुनाव आयोग के पास मतदाताओं से नागरिकता का प्रमाण मांगने का अधिकार है?’

यह सवाल कि कौन भारतीय है और कौन नहीं, कई दशकों से चला आ रहा है। जब 1946 में विदेशी अधिनियम पारित हुआ - जिसने विभाजन से पहले वाली सरकार को अवैध प्रवासियों को हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार दिया - तबसे लेकर 2019 में आए नागरिकता संशोधन अधिनियम तक, सरकारें भारत में रहने वालों का नागरिक दर्जा परिभाषित और वर्गीकृत करने के प्रयास करती आई हैं। बांग्लादेश की सीमा से सटे असम ने दशकों से नागरिकता सत्यापन के लिए किए गए अनेक प्रयोगों के दंश सहे हैं, जिनमें राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर भी शामिल है, जिसे 2019 में चुपचाप दफना दिया गया, जब 19 लाख लोग इस रजिस्टर से बाहर पाए गए।

बेशक, चुनाव आयोग का विशेष गहन पुनरीक्षण किसी भी बिहारी से यह साबित करने के लिए नहीं कह रहा है कि वह भारतीय है अथवा नहीं - अलबत्ता, उसे यह सिद्ध करने के लिए कहा जा रहा है कि क्या वह बिहारी है और इस आधार पर बिहार चुनाव में वोट देने की पात्रता रखता है? असम की तरह, बिहार की सीमा भी विदेशी मुल्क नेपाल से लगती है, लेकिन दोनों के बीच ‘रोटी-बेटी का रिश्ता’ और खुली सीमा तनाव के बजाय सौहार्द सुनिश्चित करती है।

अभी भी, विपक्षी दल चिंतित हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग पर ‘भाजपा की कठपुतली’ की तरह काम करने का आरोप लगाया है। तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि ‘असली निशाना’ पश्चिम बंगाल और बड़ी संख्या में वहां बसे दस्तावेज़ विहीन प्रवासी हैं, जब आज से एक साल से भी कम समय में वहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

बिहार के राजनेताओं को किसी और भी छल-कपट का डर है। पंजाब और महाराष्ट्र के मौसमी मज़दूरों के अलावा, जो नवंबर में होने वाले महत्वपूर्ण चुनाव से पहले शायद अपनी प्रामाणिकता साबित नहीं कर पाएंगे, बिहार में रहने वाले वंचित वर्ग के करोड़ों बिहारी भी शायद इतने चुस्त न हों कि अपनी पात्रता सिद्ध कर पाएं। असदुद्दीन ओवैसी, जिनकी पार्टी ने पिछली बार सीमांचल क्षेत्र में पांच सीटें जीती थीं, उनका मानना है कि इसका सीधा प्रहार उनके मतदाताओं पर पड़ेगा।

जहां तक राहुल गांधी द्वारा चुनाव आयोग की आलोचना का सवाल है, तथ्य तो यह है कि कांग्रेस नेता ने अपने नेतृत्व में कोई आम चुनाव नहीं जीता है। लेकिन जहां भी वे जाते हैं, संविधान की एक प्रति को लहराना नहीं भूलते, यह करके सरसरी तौर पर याद दिलाते हैं कि अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी’ विरासत के साथ, हमें, लोगों को, लोकतंत्र की दशा-दिशा अपने हाथ में बरकरार रखने की उचित ज़िम्मेदारी निभानी होगी।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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