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पाकिस्तान की खामोशी से उठती आवाज़ें

द ग्रेट गेम

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साल 2008 के मुंबई में आतंकी हमले के प्रमुख साजिशकर्ताओं में से एक तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण पर पाकिस्तानी मीडिया की चुप्पी काफी कुछ कह रही है। हालांकि एक दौर में पाक के ‘डॉन’ जैसे अखबार वहां की तानाशाह सरकारों से लोहा लेते रहे। लेकिन मौजूदा सैन्य तानाशाही का शिकंजा बुरी तरह कसा है। दरअसल, मुंबई पर हमले के दिनों और रातों की यादें पाकिस्तान पर कफन की तरह मंडरा रही हैं। अब जरूरी है कि पाक आतंक में अपनी भूमिका स्वीकार करे व उस पर लगाम लगाये।

ज्योति मल्होत्रा

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‘पाकिस्तान को मुंबई में हुए आतंकी हमले का सामना करना ही पड़ेगा, जिसकी योजना उसकी धरती पर बनी। इसके लिए उसे सच्चाई का सामना करने की ज़रूरत है। सुरक्षा तंत्र को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लंबे समय से लंबित इस जघन्य आतंकी हमले के अपराधियों और मास्टरमाइंड को न्याय के कठघरे में खड़ा जाए...।’

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अगर आप सोचते हैं कि क्या पाक एक नया अध्याय शुरू करेगा और उसने 2008 के मुंबई आतंकी हमलों को अंजाम देने वालों के बारे में ईमानदारी बरतने का फ़ैसला ले लिया है - ख़ास तौर पर तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत प्रत्यर्पित किए जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप - तो एक बार फिर से सोचें। यह पैराग्राफ़ 3 अगस्त, 2015 को पाकिस्तान के अख़बार ‘डॉन’ में तारिक खोसा द्वारा लिखे गए लेख से लिया गया है, जोकि पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी के पूर्व मुखिया हैं और उन्होंने 2009 में मुंबई आतंकी कांड की जांच की थी।

खोसा ने लेख लिखते समय शायद सच की घुट्टी पी रखी होगी! ठीक उसी प्रकार, जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने 2018 में ‘डॉन’ को दिए एक साक्षात्कार में कुबूल किया था : ‘आतंकवादी संगठन (अभी भी) सक्रिय हैं’ और सवाल उठाया था कि क्या पाक को उन्हें ‘सीमा पार करके मुंबई में 150 लोगों को मारने की अनुमति देनी चाहिए थी’? इतना भर कहने पर नवाज़ पर देशद्रोह का केस जड़ दिया गया था। अहम यह कि दोनों लेख अभी भी डॉन की वेबसाइट पर पढ़े जा सकते हैं - महत्वपूर्ण इसलिए कि यदि पिछले कुछ दिनों आपने पाकिस्तानी अखबार देखे हों,तो आपको यह सोचने के लिए माफ़ कर दिया जाएगा कि कहीं आप किसी और देश के समाचारपत्र तो नहीं पढ़ रहे। पाक मूल के कनाडाई नागरिक राणा के बारे में एक शब्द तक नहीं है, जो 2008 के मुंबई हमलों के दो प्रमुख षड्यंत्रकारियों में से एक है, जिसे हाल ही में भारत प्रत्यर्पित किया गया है। एक भी शब्द नहीं।

शहबाज़ शरीफ़ सरकार बलूचिस्तान के मसले से जिस तरह निपट रही है, उस पर आलोचनात्मक लेख? हां है। पाकिस्तान सुपर लीग पर संपादकीय? हां है। अर्थव्यवस्था पर निराशाजनक टिप्पणी? हां है। लेकिन राणा की वापसी पर, और विस्तार से मुंबई हमलों पर, जब पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रशिक्षित 10 पाकिस्तानी कराची से मुंबई के लिए भेजे गए, और उन्होंने नवंबर 2008 में लगभग तीन दिनों तक भारत के वित्तीय केंद्र को बंधक बनाए रखा - एक शब्द तक नहीं, पूरा वाक्य तो दूर की बात है।

आपको हैरानी नहीं हो रही, जानते हैं कि क्यों। एक ओर, पाक सरकार ने अपने दरवाजे खोल दिए और पाकिस्तान के लोगों ने अपने दिल – और 6,500 सिख तीर्थयात्रियों को वीजा दिए, ताकि वे ननकाना साहिब, पंजा साहिब, करतारपुर साहिब और अन्य गुरुद्वारों में बैसाखी मना सकें। द ट्रिब्यून और अन्य समाचार पत्रों में इस मौके पर हाथ जोड़े खुशी-खुशी जा रहे वरिष्ठ नागरिकों की तस्वीरें छापीं, जो एक आनंदमयी तीर्थयात्रा की शुरुआत है।

दूसरी ओर, 17 लंबे सालों से, निर्वाचित सरकारों और अपनी जनता को बंधक बनाकर रखने वाले पाक सैन्य प्रतिष्ठान ने न केवल प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सरकार पर, बल्कि पूरे मीडिया पर भी कड़ा शिकंजा कस रखा है - ताकि मुंबई के भयावह कांड पर प्रकाशक की कलम से निकलकर एक भी शब्द पन्ने पर छप न पाए। और इसलिए इस कांड में शामिल लश्कर-ए-तैयबा के सह-संस्थापक हाफिज सईद से शुरू करके ज़की-उर-रहमान लखवी तक के तमाम साजिशकर्ता खबरों से गायब हैं। शिकागो जेल में बंद दूसरे मास्टरमाइंड डेविड हेडली का भी कोई जिक्र नहीं है। मेजर इकबाल हो या साजिद मीर या अब्दुल रहमान, हाशिम सैयद या फिर इलियास कश्मीरी, इनपर भी कोई बात नहीं है - सभी के खिलाफ एनआईए ने आरोप पत्र दायर कर रखा है और वे आज भी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे हैं।

मुंबई के उन दिनों और रातों की यादें पाक पर कफन की तरह मंडरा रही हैं। आमतौर पर तेवर रखने वाला पाकिस्तानी मीडिया, वह जो अतीत में अयूब खान से लेकर टिक्का खान तक के तानाशाहों और निरंकुश शासकों के सामने डटा रहा – जब पत्रकारों को पीटा गया, जेल में डाला गया, प्रताड़ित किया गया, उनके परिजनों को धमकाया गया- ऐसा लगता है कि अब उनका मुंह बंद हो चुका है, वे थक चुके हैं, बुढ़ा गए हैं। हो सकता है उन्होंने होंठ इसलिए सिल रखे हों कि उन्हें नई सुबह का इंतजार हो शायद मुंबई के बारे में कुछ ऐसा है, जिसने चुप्पी का लिहाफ ओढ़े रखना सुनिश्चित कर रखा है। नवाज़ शरीफ को देशद्रोह का केस झेलने के अलावा, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जनरल महमूद दुर्रानी को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी, जब उन्होंने 2009 में स्वीकारा कि कसाब एक पाक नागरिक है। केवल खोसा बचे रहे।

इसी बीच, पाक सेना की नज़र-ए-इनायत इमरान खान से हटकर नवाज के छोटे भाई शहबाज़ और नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम, जोकि पंजाब की मुख्यमंत्री हैं, की तरफ हो गई है। पाक के आधे अभिजात्य वर्ग के पास दोहरे पासपोर्ट हैं, लिहाजा उनका एक पांव पश्चिम में रहता है, और हालात प्रतिकूल होते ही वहां खिसक लेते हैं। अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। चीन का साया और गहराता एवं पुख्ता होता जा रहा है। तथापि खोसा के 2015 के लेख के हर शब्द की गूंज बनी हुई है। न तो वे कभी अपनी इस कथनी से पीछे हटे,न ही डॉन, भले ही इन दोनों ने अब चुप्पी साधी हो।

खोसा ने उस लेख में मुंबई कांड के सूत्रधारों पर फेडरल एजेंसी की जांच में कहा : ‘सर्वप्रथम, कसाब एक पाक नागरिक है, जिसके घर, प्रारंभिक स्कूल व आतंकी संगठन से जुड़ने का जांचकर्ताओं ने पता लगा लिया था। दूसरे, लश्कर-ए-तोयबा के आतंकवादियों को सिंध के थट्टा के पास प्रशिक्षण दिया गया और उन्हें समुद्र के रास्ते रवाना किया गया। जांचकर्ताओं ने प्रशिक्षण शिविर की शिनाख्त की और जांच हेतु कब्जे में ले लिया। मुंबई में प्रयुक्त विस्फोटक उपकरणों के खाली बक्से शिविर से बरामद हुए थे । तीसरा,आतंकी जिस भारतीय नौका से मुंबई पहुंचे थे, उसको अगवा करने के पहले आतंकवादियों के ट्रॉलर को वापस बंदरगाह पर लाया गया, उसे रंगा गया और छिपा दिया गया। इसकी बरामदगी से आरोपियों की कड़ी जुड़ी। चौथा, मुंबई बंदरगाह के पास आतंकियों ने जो ‘डिंगी’ लावारिस छोड़ी, उसके इंजन पर लगे पेटेंट नंबर के जरिए जांचकर्ताओं ने जापान से लाहौर और फिर कराची में खेल का सामान बेचने वाली दुकान तक पहुंचने तक के आयात-रूट का पता चला लिया। वहीं से लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े एक आतंकी ने इसे डिंगी सहित खरीदा था। जांच आरोपी से जुड़ी, उसे गिरफ्तार किया गया। पांचवां, कराची का वह ऑपरेशन रूम, जहां से कांड को निर्देशित किया गया, उसे भी जांचकर्ताओं ने कब्जे में लिया। वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल के जरिए स्थापित संचार तंत्र का पता लगा। छठा, कथित कमांडर व उसके सहयोगियों की पहचान हुई, उन्हें गिरफ्तार किया गया। सातवां, विदेशों में बसे कुछ फाइनेंसरों व सुविधा प्रदानकर्ताओं को गिरफ्तार कर मुकदमे हेतु पाक लाया गया।’ लेख के अंत में खोसा ने कहा कि भारतीय आधिकारियों नें 2009 में यह माना था कि पाक ने अपनी जांच को पेशागत दक्षता से अंजाम दिया, जिसमें सात साजिशकर्ताओं पर आरोप तय हुए, लेकिन उन्होंने चेताया कि ‘बाकी गायब कड़ियों’ को जोड़ने की जरूरत भी है। और पूछा : ‘क्या बतौर राष्ट्र इस सच का सामना करने व देश के सामने खड़े आतंकवाद का सामना करने की हिम्मत जुटाने को हम तैयार हैं?’

खोसा का सवाल आज भी पाक पर जस-का-तस मंडरा रहा है–बशर्ते फिर से पूछने और मीडिया को छापने की अनुमति हो।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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