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सत्ताकामी राजनीति में अतृप्त आत्माएं

विश्वनाथ सचदेव पहले टिकट के लिए और फिर चुनाव जीतने के लिए भटकते उम्मीदवारों की राजनीति के बारे में तो अक्सर सुनते रहे हैं, पर अब देश की राजनीति में भटकती आत्माओं ने भी प्रवेश कर लिया है। यह...
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विश्वनाथ सचदेव

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पहले टिकट के लिए और फिर चुनाव जीतने के लिए भटकते उम्मीदवारों की राजनीति के बारे में तो अक्सर सुनते रहे हैं, पर अब देश की राजनीति में भटकती आत्माओं ने भी प्रवेश कर लिया है। यह खोज करने का श्रेय भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को जाता है। पुणे की एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने श्रोताओं को बताया कि यह भटकती आत्माएं वे हैं जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो वे दूसरों के काम खराब करने लगती हैं। प्रधानमंत्री ने ऐसी किसी आत्मा का नाम तो नहीं लिया, पर यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि उनका निशाना किस पर है। बिना नाम लिये ही प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया था कि पैंतालीस साल पहले महाराष्ट्र में कौन-सी आत्मा ने इस तमाशे की शुरुआत की थी। पैंतालीस साल पहले महाराष्ट्र के तब के युवा नेता शरद पवार ने राज्य की कांग्रेस सरकार में विद्रोह कराया था और वे राज्य में सबसे युवा मुख्यमंत्री बन गये थे। तब से लेकर आज तक शरद पवार कई पार्टियां बना-बिगाड़ चुके हैं। इस दौरान यह बात भी कई बार सामने आई कि पवार स्वयं प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते रहे थे। उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पायी, और अब इसकी कोई संभावना भी नहीं दिख रही। प्रधानमंत्री मोदी ने इसी बात पर निशाना साधते हुए हमारी राजनीति की अतृप्त आत्माओं के भटकने वाली बात कही है।

प्रधानमंत्री के निशाने पर भले ही शरद पवार रहे हों, पर हमारी आज की राजनीति की यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘अतृप्त आत्माएं’ लगातार भटकती फिर रही हैं। जिस तरह से, और जिस गति से आज यह भटकाव दिख रहा है, वह साफ-सुथरी और सकारात्मक राजनीति की अपेक्षा करने वालों के लिए आश्चर्य और पीड़ा का विषय होना चाहिए। दल-बदल हमारी राजनीति का एक स्थाई मुद्दा बन चुका है। सच बात तो यह है कि अब यह एक ऐसी बीमारी बन चुका है जिसका शिकार हर राजनीतिक दल हो रहा है। था कोई ज़माना जब अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए दल बदल करने वाले को घटिया राजनीति का उदाहरण माना जाता था, उसे घटिया नज़र से देखा जाता था। बहुत ज़्यादा उदाहरण नहीं दिखते थे इस बात के। पर अब ऐसी कोई बात नहीं रही। अब न दल बदलने वाले को शर्म आती है और न ही किसी राजनीतिक दल को इस बात की कोई चिंता है कि उस पर घटिया राजनीति करने का आरोप लगता है। हमारी राजनीति की इन भटकती आत्माओं का ताज़ा उदाहरण सूरत और इंदौर में देखने को मिला है। सूरत में कांग्रेस के एक प्रत्याशी पर जान-बूझकर अपना नामांकन पत्र रद्द करवाने का आरोप लगा है और इंदौर में ऐसे ही एक प्रत्याशी ने अपना नामांकन वापस ले लिया है! दोनों ही प्रत्याशी, सुना है, सत्तारूढ़ दल भाजपा का दामन थाम कर अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित महसूस कर रहे हैं!

सच तो यह है कि भटकती आत्माओं को अपने दामन की सुरक्षा का अहसास देने वाले दल को भी अपने कृत्य पर कोई शर्म नहीं आती। हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि दस साल तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने और ‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी को ऐसी अतृप्त आत्माओं की ज़रूरत महसूस हो रही है! स्पष्ट है, हमारी राजनीति आज सत्ताकामी बनकर रह गयी है। सेवा के लिए राजनीति अब सिर्फ एक जुमला है। आये दिन हमारे राजनेता नए-नए जुमले उछाल रहे हैं। राजनीतिक दल लंबे-चौड़े घोषणापत्र जारी कर रहे हैं, नए-नए नाम देकर इन घोषणापत्रों को भरोसेमंद बनाने के दावे कर रहे हैं। हैरानी की बात तो यह भी है कि जहां तक दस साल तक राज करने के बाद भी सत्तारूढ़ दल अपने किये काम की दुहाई देने की बजाय प्रतिपक्षी की कथित कमियों के नाम पर वोट मांग रहा है, वहीं प्रतिपक्ष कोई वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं दे रहा। कुल मिलाकर हमारा विपक्ष सत्तारूढ़ दल के आरोपों के उत्तर देने, या फिर स्वयं को बेहतर कहने तक ही सीमित लग रहा है। दोनों ही पक्ष यह तो कहते हैं कि वे जनता के हित की राजनीति में विश्वास करते हैं, पर, दुर्भाग्य से, जनता को यह विश्वास दिलाने में असफल सिद्ध हो रहे हैं कि सत्ता पाने के अलावा भी उनका कोई लक्ष्य है।

भटकती आत्माओं जैसे जुमले उछाल कर तालियां तो बटोरी जा सकती हैं, इन आत्माओं की तृप्ति के लिए आश्वासन भी दिये जा सकते हैं, लेकिन जनता के हितों को साधने वाली राजनीति का दुर्भाग्य से, अभाव अब ज़्यादा खलने लगा है। हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, अगड़ी जाति-पिछड़ी जाति जैसे मुद्दों को उछालकर आज जो राजनीति की जा रही है, वह भविष्य के प्रति किसी प्रकार की आशाएं जगाने वाली तो नहीं ही है। सुना है किसी चुनावी सभा में कांग्रेसी नेता ने राजों-महाराजों के अत्याचारों की दुहाई दी थी। पलटवार प्रधानमंत्री की तरफ से हुआ। नहीं, उन्होंने यह नहीं कहा कि राजों-महाराजों की आलोचना क्यों हुई, उनकी शिकायत यह है कि राजों-महाराजों की बात करने वाले ने नवाबों-बादशाहों का नाम क्यों नहीं लिया?

हमारी राजनीति का यह गिरता स्तर निराश भी करता है और चिंतित भी। हैरानी की बात है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे हमारी राजनीति में कोई जगह नहीं पा रहे। भटकती आत्माओं का सच भी किसी की चिंता का विषय नहीं है। रोज़गार की बात सिर्फ विपक्ष कर रहा है, और वह भी दबी जुबान से। यह सच्चाई भी किसी को परेशान करती नहीं दिखाई दे रही कि पिछले पांच साल में देश में दो करोड़ से अधिक रोज़गार घटे हैं और 45 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्होंने निराश होकर काम की उम्मीद ही छोड़ दी है। यह बात भी किसी को परेशान नहीं करती दिखती कि आर्थिक असमानताएं लगातार बढ़ रही हैं। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, गरीब और मार झेल रहे हैं। महिलाओं के सशक्तीकरण की बात तो हो रही है, पर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमिक (सीएसआईई) का यह निष्कर्ष किसी की चिंता नहीं बनता दिख रहा कि काम न मिलने से देश की महिलाएं अधिक परेशान हैं। किसी भी पार्टी का कोई नेता यह नहीं बता रहा कि 2017 से 2020 के बीच कुल कामगारों की संख्या 46 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत क्यों हो गयी है।

राजनीति की भटकती आत्माओं वाली बात सुनने में आकर्षक तो लगती है, पर हमारी राजनीति की चालों को देखते हुए यह भी एक चुनावी जुमला है। हमारे राजनेताओं ने जनता को देश का भाग्य-विधाता नहीं माना। यह भूमिका उन्होंने अपने लिए सुरक्षित रख छोड़ी है। जनता को भीड़ समझ लिया है हमारे नेताओं ने। एक ऐसी ही भीड़ जो आसानी से बहलायी-बहकाई जा सकती है। लोकतंत्र की सार्थकता की दृष्टि से यह स्थिति कतई ठीक नहीं है। जहां तक हमारी राजनीति की भटकती आत्माओं का सवाल है हकीकत यह भी है कि किसी भी रंग का राजनेता इसके दुष्प्रभाव से नहीं बचा है। हमारे लोकतंत्र को बदसूरत करने में इन सबका योगदान है। इन सब पर जागरूक जनता को नज़र रखनी होगी। जनतंत्र में चुनाव राजनेताओं की ही नहीं, जनता की भी परीक्षा होती हैं। राजनेता तो हार कर भटकती आत्मा भी बन सकते हैं, पर जनता को तो सिर्फ जीतना ही होता है। जनता जीतेगी, तभी जनतंत्र जियेगा!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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