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अभी भी दबे पड़े हैं खजाने

सहीराम तो जनाब इधर स्ट्रॉन्ग रूमों में बस वोट वाली मशीनें ही मशीनें थी और उधर धीरज साहू के घरों और दफ्तरों में अलमारियां ही अलमारियां थीं। वोटिंग मशीनों में वोट ही वोट भरे पड़े थे और धीरज साहू की...
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सहीराम

तो जनाब इधर स्ट्रॉन्ग रूमों में बस वोट वाली मशीनें ही मशीनें थी और उधर धीरज साहू के घरों और दफ्तरों में अलमारियां ही अलमारियां थीं। वोटिंग मशीनों में वोट ही वोट भरे पड़े थे और धीरज साहू की अलमारियों में नोट ही नोट भरे पड़े थे। उधर वोट थे और इधर नोट थे। यह वोट और नोट की जुगलबंदी नहीं थी, अलबत्ता चर्चा नोट और वोट की रही। इसी बीच महुआ मोइत्रा की सांसद चली गयी। उनकी सांसदी नोट फॉर क्वेरी के कारण गयी। मतलब पैसे के बदले सवाल पूछने पर। कोई नयी बात नहीं है। पहले भी ऐसा हो चुका है जब नोट लेकर सवाल पूछने को लेकर कई सांसदों की सांसदी चल गयी थी।

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वह जमाना स्टिंग ऑपरेशनों का था। जबकि माना यही जाता है कि नोट बांट कर संासदी और विधायकी मिल जाती है। जनता में और सांसदों तथा विधायकों में फर्क यही माना गया है कि जनता के लिए नोट फॉर वोट होता है और संासद-विधायकों के लिए नोट फॉर क्वेरी होता है। हालांकि संसद में एक बार नोट फॉर वोट का मसला भी आ चुका है। जब भाजपा वालों ने बाकायदा थैले भरकर नोट दिखाए थे। अब संसद में नोटों भरे थैले दिखाने की जरूरत ही नहीं रही।

खैर जी, नोटों भरी अलमारियां बहुत दिनों बाद में दिखाई दी। नोटबंदी के बाद जब यह कहा गया कि रात-रात भर नोट जलाए गए और नालों में बहाए गए, तो यह मान लिया गया था कि अब अलमारियों में, थैलों और बोरियों में, गद्दों और तकियों में नोट मिलने का सुखराम टाइप का जमाना चला गया। वैसे ही जैसे यह मान लिया गया था कि अब स्विस बैंकों में काला धन जमा कराने का जमाना चला गया। ऐसा इसलिए भी मान लिया गया था कि भांग की खेती में पांच सौ करोड़, हजार करोड़ लगाने की बातें तो खूब हो रही थी, हवाला-बवाला पता नहीं क्या-क्या था। लेकिन नोट कहीं नहीं दिखाई दे रहे थे। अब वे बहुत दिनों बाद धीरज साहू की अलमारियों में दिखाई दिए। गड्डियां की गड्डियां। भांग और गांजे वाले रुपये तो नहीं दिखाई दिए, लेकिन शराब वाले जरूर दिखाई दे गए। इसका अर्थ यह है कि यह मामला वक्त टाइप का नहीं है कि लौट कर आ न सके। यह तो फैशन टाइप का मामला हो गया कि लौटकर आता ही है।

धीरज साहू की अलमारियों में इतने नोट देखकर दिल्ली के आप वाले नेताओं को लग रहा है कि यार हम तो मुफ्त में ही बदनाम हो गए। कहां दो-चार करोड़ और कहां दो सौ-चार सौ करोड़। भाई साहब गिनते-गिनते नोट गिनने वाली मशीनों का भी दम निकल जाए। जैसे सुनने वालों के कानों से धुआं उठने लगे वैसे ही नोट गिनने वाली मशीनों से भी धुआं उठने लगता है।

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