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परवरिश के मानदंडों पर सोचने का वक्त

समाज में बढ़ती संवेदनहीनता
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रिश्तों की डोर जोड़ने में संस्कारों और मानवीय संवेदनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है । संतान को परिवार व समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए यही मूलभूत जरूरतें हैं। जरूरी नहीं, दिन-रात एक कर बच्चों को संपत्ति बनाकर देना और कैरियर में बुलंदी पर पहुंचाना उन्हें दायित्व बोध भी कराये।

बलदेव राज भारतीय

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जिस देश में श्री राम अपने पिता के एक वचन को निभाने के लिए सहर्ष वनवास स्वीकार कर लेते हैं, श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को बहंगी में बिठाकर चारों धाम की यात्रा करवाने ले जाते हैं। उसी देश में आज के समय में श्रीनाथ खंडेलवाल जैसे समृद्ध और उच्च कोटि के साहित्यकार को उसकी संतान वृद्धाश्रम में ठोकरें खाने के लिए छोड़ दे और जब उन्होंने गत 28 दिसंबर को प्राण त्यागे तो उन्हें मुखाग्नि देने का समय भी बेटे और बेटी के पास न हो तो... इसे विडंबना कहेंगे या फिर युग का प्रभाव? यह समाचार पढ़कर किसी का भी हृदय कांप जाए तो उनकी संतान की ऐसी क्या विवशता थी कि उन्हें उनका बुढ़ापा भारी पड़ गया। इस वाकये की वजह से फिल्म ‘बागबान’ याद आ गई। जिसमें एक पिता की पुस्तक छपने के बाद रॉयल्टी के लालच में उसके चारों बेटे फिर से पिता का सान्निध्य पाना चाहते थे। लेकिन इस घटना में तो 400 से अधिक पुस्तकें छपने और 80 करोड़ की संपत्ति अर्जित कर उसे संतान के नाम करने के बाद भी पिता को अपने अंतिम दिन वृद्धाश्रम में काटने पड़े।

लोग अक्सर कहते हैं कि कितना अभागा है वह पिता, जिसकी अर्थी को उसके अपने बेटे का कंधा भी न मिल पाया। जिसको बेटे के हाथ से मुखाग्नि भी न मिल पाई। परन्तु यहां अभागा पिता नहीं बल्कि वह बेटा और बेटी भी हैं जो उसके अंतिम संस्कार के वक्त वहां अनुपस्थित थे। श्रीनाथ खंडेलवाल के बेटा-बेटी को अपनी भूल सुधार का कोई अवसर अब प्राप्त नहीं होगा। अब लोगों के समक्ष वे चाहे जितने भी बहाने बनाएं, लोग यही कहेंगे कि यही था जिसने अपने पिता को बुढ़ापे में वृद्धाश्रम में मरने के लिए छोड़ दिया और उसका अंतिम संस्कार करने भी नहीं गया। कहते हैं कि बेटी अक्सर पिता के हृदय के बहुत करीब होती है। यदि बेटा निकम्मा भी निकल आए तो भी बेटी माता-पिता का ध्यान-सम्मान करती है। दूसरे घर में होते हुए भी अपने माता-पिता की अधिकाधिक देखरेख करती है। परन्तु उक्त मामले में बेटी भी पाषाण-हृदय निकली- यह जानकर ठेस लगना स्वाभाविक है।

श्रीनाथ खंडेलवाल का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, लेकिन उनका मन हमेशा से साहित्य की ओर झुका रहा। मात्र 15 वर्ष की आयु में लेखन शुरू किया और एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में पहचान बनाई। शिव पुराण और मत्स्य पुराण जैसे ग्रंथों का उनके द्वारा हिंदी में अनुवाद किया गया। खंडेलवाल ने संस्कृत, असमिया, और बांग्ला में भी साहित्य सृजन किया। उनका जीवन साहित्य और ज्ञान को समर्पित था। वैभव और ख्याति के बीच, श्रीनाथ खंडेलवाल का निजी जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने अपने बच्चों के लिए सब कुछ किया, लेकिन वही बच्चे उनके अंतिम दिनों में उनकी सबसे बड़ी पीड़ा बन गए। उनका बेटा एक सफल व्यवसायी और बेटी अधिवक्ता है। बावजूद इसके, मार्च 2024 में उन्होंने अपने पिता को घर से निकाल दिया। करीब 80 करोड़ की संपत्ति के बावजूद उन्हें वृद्धाश्रम में रहना पड़ा। उनकी यह स्थिति हमें सोचने पर विवश करती है।

काशी कुष्ठ सेवा संघ के वृद्धाश्रम में बिताए उनके अंतिम दिन दर्दभरे थे। एक वायरल वीडियो में उन्होंने अपनी पीड़ा साझा करते हुए कहा था, ‘मैंने अपनी पूरी जिंदगी अपने बच्चों के लिए लगाई, लेकिन आज वे मेरे लिए अजनबी बन गए हैं। मेरे पास सब कुछ था, लेकिन आज मैं अकेला हूं।’ यह बयान न केवल उनकी वेदना को प्रकट करता है, बल्कि संतान के संवेदनहीन रवैये पर भी चोट करता है।

गत 28 दिसंबर को उनकी तबीयत बिगड़ने पर जब अस्पताल से उनके बच्चों को सूचित किया गया, तो बेटे ने ‘बाहर होने’ का बहाना बना दिया और बेटी ने फोन तक नहीं उठाया। आखिरकार, एक सामाजिक कार्यकर्ता और उनके कुछ साथी इस समय अस्पताल में उनके साथ रहे। उन्होंने न केवल वृद्धाश्रम में श्रीनाथ का ध्यान रखा, बल्कि उनके निधन के बाद बनारस के मणिकर्णिका घाट पर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी की। श्रीनाथ खंडेलवाल का जीवन और निधन समाज के समक्ष एक गंभीर सवाल उठाता है। यह घटना बताती है कि आधुनिकता और व्यस्तता के नाम पर हम अपने माता-पिता और बुजुर्गों को भुला रहे हैं। संपत्ति और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के पीछे भागते हुए, हम उन्हें अनदेखा कर रहे हैं जिन्होंने हमारे लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाया।

यह केवल एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि समाज के व्यापक बदलाव का प्रतीक है। ऐसी घटनाएं हमें चेताती हैं कि अब रिश्तों और जिम्मेदारियों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। नैतिक मूल्यों को पहचानने और अपनाने की सोच को दकियानूसी बताकर पल्ला झाड़ने के परिणाम भयंकर हो सकते हैं। इसलिए आवश्यकता अपने बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाकर उन्हें इंजीनियर, व्यवसायी, डॉक्टर या कुछ और बड़ा बनाने से पहले उन्हें संवेदनशील इंसान बनाने की है। हर माता पिता यही सोचता है कि उसका बच्चा किसी तरह कामयाब हो जाये, फिर उसका जीवन सुखी तो अपना भी सुखी। परन्तु श्रीनाथ खंडेलवाल का उदाहरण सामने है उनके दोनों बच्चे कामयाबी की ट्रेन में सवार हैं परन्तु इंसानियत को कहीं पीछे छोड़ आए। शायद उसी का खमियाजा श्रीनाथ जी को अंतिम समय में भुगतना पड़ा।

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