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केंद्र और पंजाब के लिए सबक लेने का वक्त

द ग्रेट गेम
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ज्योति मल्होत्रा

मुझे गुरपुरब की सुबह जेएनयू के बेहतर प्रोफेसर सुरिंदर जोधका द्वारा किए ट्वीट में लिखे गुरु नानक देव जी के दो प्रमुख शब्द - ‘निरभौ’ (निर्भय) और ‘निरवैर’–याद आ रहे हैं, उन्होंने आगे जोड़ा था ः ‘मैं उम्मीद करता हूं कि किसी तरह ये हमारे जीवन, हमारी बातचीत, हमारी राजनीति में समाहित हो सकें’।

मानो उन्होंने बीते सप्ताह की शुरुआत में भाजपा नेता सुनील जाखड़ के साथ मेरे द्वारा किए साक्षात्कार शो को देखा हो (हालांकि उन्होंने ऐसा किया नहीं), जिसमें जाखड़ कई तरह के विचारों और भावनाओं से जूझते दिखाई दिए – अक्सर ऐसा लगा कि पूछे गए सवालों का जवाब देने के बजाय वे खुद से बात कर रहे हों। कुछ टिप्पणियां, निश्चित रूप से, उनकी अपनी अस्थिरता भरी राजनीतिक यात्रा के परिप्रेक्ष्य में थीं- पहले कांग्रेस में और बाद में भाजपा में रहने के दौरान, वहीं बहुत सी उस उथल-पुथल से संबंधित जिससे पंजाब अपने इतिहास के खास समय खुद को रूबरू पाता है, जिस व्यक्तिगत दुविधा से जाखड़ जूझते लगते हैं वे उससे कहीं बड़ी हैं।

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निश्चित रूप से, मार्क्सवादी विचारधारा के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, जिसमें माना जाता है कि समय के बृहद रंगमंच पर व्यक्ति की भूमिका महज एक अदने से पात्र की है - मानो यह कहने में मार्क्स ने नाटककार शेक्सपीयर से प्रेरणा ली हो- और निश्चित रूप से, पंजाब और दिल्ली, दोनों जगह, वर्तमान में नाटक के पात्र कभी-कभी वे अदने से लगते हैं, जिनकी परछाइयां असाधारण रूप से बहुत बड़ी दिखाई देती हैं, अलबत्ता एक भव्य कैनवास पर प्रतिबिंबित।

लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं, सुबह की मुलायम रोशनी में छायाएं नदारद रहती हैं। दोपहर तक, वे पैरों के नीचे, कुचले जाने को तैयार। दिन के किसी और समय, वे नगण्य होती हैं या कोई मायने नहीं रखतीं। तो आरंभ से शुरुआत करते हैं, जितना हम जान पाए। प्रथम, जाखड़ ने प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से कहा है कि वे अब राज्य पार्टी अध्यक्ष के रूप में काम नहीं कर पाएंगे। दूजा, वे कांग्रेस में भी नहीं लौटेंगे, जिस पार्टी में उन्होंने कई दशक काम किया, क्योंकि जैसा सुलूक कांग्रेस ने उनके साथ किया, उससे वे आहत हैं - हम जानते हैं कि कांग्रेस की एक अन्य दिग्गज पंजाबी नेत्री अंबिका सोनी ने कुछ साल पहले कहा था कि जाखड़ पंजाब के मुख्यमंत्री नहीं बन सकते ‘क्योंकि वे हिंदू हैं’ - और इसलिए भी क्योंकि जाखड़ को लगता है कि राहुल गांधी का पार्टी के गुटों पर ‘कोई नियंत्रण नहीं’ है।

और फिर कुछ और बड़े सवाल भी थे - पार्टी की वफादारी और पार्टी हित से परे। प्रश्न हैं पहचान, आस्था, क्षमता और भरोसे को लेकर। उदाहरण के लिए, पंजाब में जब भाजपा अकाली दल की बैसाखी बिना लड़ती है तो अपने प्रभाव का विस्तार करने और सूबे के लोगों का विश्वास हासिल करने में असमर्थ क्यों रहती है? क्या अकाली दल का पराभव भाजपा से उसके घनिष्ठ संबंधों का परिणाम है या उसे अपने भीतर अन्य कारणों की तलाश करनी चाहिए? इससे ज्यादा, क्या पंजाब के बहुसंख्यकों को डर है कि आरएसएस-भाजपा 'निरभौ' और 'निरवैर' से पैदा खास समरसता वाले गुण को कमजोर करना और उनकी आस्था को देश के बहुसंख्यक वर्ग की आस्था की परिधि में लाना चाहती है?

गुरपुरब पर, खास तौर पर महान गुरु की 555वीं जयंती पर ऐसे सवालों का घुमड़ना स्वाभाविक है। चंडीगढ़ के बाहरी इलाके में स्थित नाडा साहिब गुरुद्वारे सहित समूचे इलाके के बहुत से गुरुद्वारों में, जब हिंदू एवं सिख - वास्तव में, अन्य धर्मों के लोग भी - धैर्यपूर्वक पंक्ति में लग पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब के दर्शन पाने का इंतजार कर रहे होते हैं, तो आपके अंदर विचार आता है कि क्या वर्तमान पंजाब का समाज गुरु नानक के मंत्रमुग्धकारी सूत्र (‘न कोय हिंदू/न कोय मुसलमान’) को आत्मसात करने को राजी है। अर्थात, क्या राज्य की अधिसंख्य आबादी (करीब 57.7 फीसदी) सूबे का मुखिया कोई गैर-सिख होने देने को तैयार होगी?

जरा कल्पना करें कि जब लोग कहते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, हिंदू भी ठीक रहेगा, क्योंकि हो सकता है वह एक बेहतर नेता हो – और यह कि कुछ समय पहले तक या शायद अभी भी, हिंदू परिवारों में पहला बेटा सिख धर्म को अर्पित करने की परंपरा थी। इस स्थिति में, इस धर्म की समझौताकारी और सहिष्णुता वाली क्षमता के बावजूद उस आशंका का क्या बनेगा कि इससे पहले यह अहसास हो कि वास्तव में गुरपुरब कार्तिक पूर्णिमा पर मनाया जाता है, वह आपको काफी पहले अपने अंदर मिला चुका होता।

केवल मेरे जैसा कोई बाहरी व्यक्ति ही इस बात की पुष्टि कर सकता है कि पंजाब के समक्ष दर्जनों समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं - नशा, अपराध, जबरन वसूली, कनाडा को पलायन करते युवा और पीछे बचे बुजुर्ग और खाली गांव, भारी बेरोजगारी, कृषि पर अत्यधिक निर्भरता, गिरता भूजल स्तर, भूमि उर्वरता में असाधारण ह्रास, भ्रष्टाचार, यहां तक कि लुधियाना के उस सरकारी कॉलेज में पूर्णकालिक प्रिंसिपल को नियुक्त करने के लिए भी पैसे नहीं हैं, जिसने देश को सतीश धवन जैसा गणितज्ञ और एयरोस्पेस इंजीनियर देने के अलावा कई प्रतिभाशाली बेटे-बेटियां दीं - तथापि, पंजाबियों में एक मजबूती और आत्मविश्वास है, जिसका 545 सांसदों वाली लोकसभा में उनके सूबे से मात्र 13 सीटें होने से कोई लेना-देना नहीं।

भाजपा शासित केंद्र सरकार के साथ समस्या है कि वह गिनती को अंतिम पैमाना मानती है। केवल 13 सीटें? किसे परवाह! यहीं आकर दिल्ली और चंडीगढ़ के बीच संवाद भटक जाता है, धीमा पड़ता है या संक्षिप्त होने लगता है। इसलिए जब आपके पास धान खरीद का संकट है, तो केंद्र सरकार के लिए चंडीगढ़ को नियम-पुस्तिका का हवाला देने से अधिक कुछ करने की जरूरत नहीं है। अधिकारी मंडी में तुलने को पड़े धान में नमी मापक मीटर की ओर उंगली दिखाता है, जैसे ही वह 17 प्रतिशत के निशान को पार करे तो लंबी सांस लेकर कहता है ः ‘धान में नमी बहुत है। यह खेप स्वीकार नहीं हो सकती’। सारी मिन्नत-मनौव्वल (‘भाई साहब, जाने दो’) बेअसर! जब अफसर ‘खुश न होने पर उतर जाए’ तब बाकी कुछ कारगर नहीं रहता।

बहुत कम लोगों को याद होगा जब पूर्व अकाली मुख्यमंत्री स्व़ प्रकाश सिंह बादल ने धान में 20 प्रतिशत नमी की अनुमति देने को केंद्र सरकार को राजी किया था, क्योंकि तब पंजाब में बेमौसमी बारिश हुई थी। आज यह बात बहुत कम लोगों को याद होगी, क्योंकि चंद लोग ही याद रखना चाहते हैं। केंद्र सरकार और पंजाब के बीच तल्खी इस कदर है कि अब यह ‘आप’ और भाजपा के बीच मतभेदों को लेकर नहीं रही– पंजाबी सोचने लगे हैं कि क्या उन्हें इसलिए सज़ा दी जा रही है कि वे उन तीन कृषि कानूनों के सामने डटकर खड़े हो गए जो केंद्र सरकार लाई थी। और क्या एक वर्ग आमादा है दूसरे पक्ष को अहसास कराने को?

हो सकता है यह धारणा अतिशयी या वाहियात लगे। समस्या यह है कि केंद्र और राज्य के बीच गतिरोध एक खाई में तब्दील हो रहा है, जहां संवाद अगर पूरी तरह बंद न भी हों, तो न्यूनतम तो हैं ही। चंडीगढ़ की कुछ ड्राइंग-रूम वार्ताओं में यह सवाल उठने लगा है कि क्या ‘जय श्री राम’ एक ‘ललकार’ है, मनुहार है या फिर ‘पुकार’ है।

नाडा साहिब गुरुद्वारे में, आप चढ़ावे के लिए पत्ते के दोने में मिलने वाले कड़ाह प्रशाद के लिए मात्र 50 रुपये का भुगतान करते हैं, बाकी सब कुछ मुफ़्त है, महान गुरु ग्रंथ साहिब की सेवा में। जबकि, वहां से दिखाई देने वाली शिवालिक की पहाड़ियों के उस पार, हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में, पावन चिंतपूर्णी तीर्थस्थल बोर्ड ने फैसला किया है कि जल्द ही ‘त्वरित दर्शन’ के लिए 300 रुपये शुल्क लिया जाएगा, अर्थात लंबी कतार में लगे बिना देवी की अर्चना करने की सुविधा।

आईना देखने और अपने बारे में ये सारे सवाल फिर से पूछने के लिए गुरपुरब से बेहतर दिन और कौन सा हो सकता है? शायद, आप ‘निरवैर’ से शुरू कर सकते हैं और ‘निरभौ’ पर खत्म कर सकते हैं?

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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