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मानवीय सरोकारों की रक्षा करने पर हो बहस

विश्वनाथ सचदेव भारतीय जनता पार्टी के हाथों में एक और हथियार आ गया है अपने नए प्रतिद्वंद्वी ‘इंडिया’ से लड़ने के लिए। यह हथियार दिया भी उसने है जो भाजपा के विरोध में मैदान में उतरा है। द्रविड़ अस्मिता की...
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विश्वनाथ सचदेव

भारतीय जनता पार्टी के हाथों में एक और हथियार आ गया है अपने नए प्रतिद्वंद्वी ‘इंडिया’ से लड़ने के लिए। यह हथियार दिया भी उसने है जो भाजपा के विरोध में मैदान में उतरा है। द्रविड़ अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी द्रमुक के नेता स्टालिन के पुत्र उदयनिधि ने हाल ही में दिए एक बयान में सनातन धर्म की तुलना मच्छरों, डेंगू, मलेरिया और कीड़ों से करके यह मांग की है कि इस सनातन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। भाजपा ने इसे एक उपयोगी हथियार की तरह लपक लिया है और धर्म के नाम पर ‘इंडिया’ के प्रमुख सहयोगी दल कांग्रेस को भी लपेटने के मौके के रूप में भुना रही है।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘इंडिया’ संगठन के अधिकांश सदस्य उदयनिधि स्टालिन के इस वक्तव्य से सहमत नहीं हैं और इस तरह की कठोर और आक्रामक भाषा के इस्तेमाल को भी चुनावी राजनीति के लिए नुकसानदायक मानते हैं। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तो स्पष्ट रूप से यह बात कही भी है पर कांग्रेस में ही उदयनिधि के समर्थन में भी आवाज उठ रही है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता चिदंबरम के पुत्र ने भी स्टालिन का समर्थन किया है। इसी बात को आधार बनाकर भाजपा के नेताओं ने कांग्रेस पर हमला बोल दिया है और विपक्ष के गठबंधन को हिंदू विरोधी बताकर अपनी हिंदूवादी छवि को मजबूत बनाने में लगे हैं। भाजपा की ध्रुवीकरण की नीति को यह बात रास आ रही है। उसे लग रहा है कि दक्षिण में, विशेषकर तमिलनाडु में, भले ही इस ध्रुवीकरण से कुछ नुकसान हो जाए पर उत्तर भारत में उसे इसका अच्छा-खासा लाभ मिल सकता है। भाजपा इस लाभ को उठाने की कोशिश में लगी है और कांग्रेस समेत गठबंधन के बाकी दल इस कोशिश में हैं कि भाजपा को इस स्थिति का कम से कम लाभ मिल सके।

वैसे हिंदू धर्म या सनातन धर्म को लेकर द्रमुक शुरू से आक्रामक रहा है। लगभग 100 साल पहले द्रविड़ विचारक रामास्वामी नायकर ने ‘सनातन’ को जाति के आधार पर हिंदू समाज को बांटने वाला बताया था। उनका सारा आंदोलन इस जाति प्रथा के खिलाफ था। और यह भी सही है कि उनकी कटु भाषा ने दक्षिण भारत के हिंदू समाज को कहीं गहरे तक परेशान किया था। नायकर के अनुयायी आज भी यह मानते हैं कि जाति प्रथा समाज पर एक कलंक है जिसे हर कीमत पर मिटाना चाहिए। यही बात बाबा साहेब अंबेडकर ने भी कही थी जब उन्होंने यह कहा कि वह हिंदू के रूप में पैदा अवश्य हुए हैं पर हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं। तो इसके पीछे वह पीड़ा भी थी जो सारा दलित समाज सदियों से भुगत रहा था। जाति प्रथा के संदर्भ में राम मनोहर लोहिया के समर्थक समाजवादी भी यह मानते थे कि जातियों में बंटवारा हिंदू समाज को प्रतिगामी ही नहीं बना रहा बल्कि उसके मानवीय चेहरे को भी विकृत कर रहा है। नायकर जाति प्रथा से घृणा करते थे। उसके समूल नाश की बात किया करते थे। वहीं लोहिया यह मानते थे कि बिना अति उग्र हुए भी इस प्रथा के खिलाफ जनमानस तैयार किया जा सकता है। जाति प्रथा के चलते हमारा सारा समाज अगड़े और पिछड़े में बंट गया था। इस बंटवारे की विसंगति को समाप्त करने के लिए लोहिया ने आरक्षण के माध्यम से पिछड़ों को समुचित अवसर देने की बात कही थी। उन्होंने नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ अर्थात समाज की पिछड़ी जातियों को 60 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए तभी वे समाज के उन्नत लोगों के समकक्ष आ सकेंगे।

बाबा साहेब अंबेडकर ने आरक्षण के समर्थन में इस तरह की बात नहीं कही थी। उनका मानना था कि पिछड़ों को इस योग्य बनाने की कोशिश करनी चाहिए कि वह समाज के उन्नत वर्गों तथा कथित ऊंची जातियों का मुकाबला कर सकें।

पिछड़ों को आगे लाने की एक मुहिम मान्यवर काशीराम ने भी चलाई थी। उनका शुरुआती स्वर भी उग्र ही था। वे हिंदूवादी ताकतों के खिलाफ लड़ रहे थे। उनकी लड़ाई मानव विरोधी सोच के खिलाफ थी। मायावती ने भी इसी उग्रता से काशीराम के साथ मिलकर बहुजन समाज की लड़ाई शुरू की पर शीघ्र ही उन्होंने ‘हाथी नहीं गणेश है’ का नारा देकर बहुजन की जगह सर्वजन की बात करनी शुरू कर दी।

यह सारी कोशिश कुल मिलाकर जाति प्रथा के दुष्परिणामों से भारतीय समाज को मुक्त करने के लिए थी। वहीं हमारे आज की एक सच्चाई यह भी है कि इन सारी कोशिशों के बावजूद हमारा भारतीय समाज जातीयता के बंधन से मुक्त नहीं हो पाया है। इस असफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जाति प्रथा से मुक्ति के ये सारे अभियान आगे चलकर राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के माध्यम बनते गए। पिछड़े अथवा पिछड़ी जाति के लोग अपने लिए न्याय की मांग कर रहे हैं। यह न्याय उन्हें मिलना ही चाहिए। रामास्वामी नायकर से लेकर आज तक इस लड़ाई के नायक इसी न्याय के लिए लड़ते रहे हैं। परिवर्तन की आशा है पर उतनी नहीं जितनी जरूरी है। इक्कीसवीं सदी का भारतीय समाज भी जातियों के संदर्भ में 18वीं सदी की मानसिकता के साथ जी रहा है। यह एक विसंगति है जिसे दूर करना होगा। यह विडंबना है जिससे मुक्ति पानी होगी।

दुर्भाग्य की बात है कि मानवीय अधिकारों की यह लड़ाई जब-तब राजनीतिक स्वार्थ को साधने का माध्यम बन जाती है। सच्चाई यह भी है कि कभी इस लड़ाई को लड़ने का तरीका गलत हो जाता है और कभी लड़ने वालों के स्वार्थ हावी हो जाते हैं। सनातन की तुलना बीमारियों से करके ऐसा ही एक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। जाति प्रथा के संदर्भ में युवा स्टालिन संयत भाषा का प्रयोग कर सकते थे और भाजपा भी मौके का राजनीतिक लाभ उठाने की उतावली से बच सकती थी। होना यही चाहिए था।

जाति प्रथा निश्चित रूप से हमारे समाज का एक कलंक है। इसे मिटाना ही चाहिए। इसके लिए उस हर कोशिश का विरोध होना चाहिए जो भारतीय समाज को बांटने में मददगार हो सकती है। सवाल हिंदू धर्म की रक्षा का नहीं मानवीयता की रक्षा का है। भारतीयता की रक्षा का है। वसुधैव कुटुंबकम‍् और सर्व धर्म समभाव की बात हमारे नेता बहुत करते हैं, पर इस आदर्श को पूरी ईमानदारी से साथ स्वीकारने की आवश्यकता महसूस नहीं करते। यह ईमानदारी हमारे नेतृत्व में कब आएगी? कभी आएगी क्या?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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