सोहम डी भादुड़ी
विश्व के ज्यादातर मुल्कों के पास सरकारी और निजी क्षेत्र के नाना प्रकार के सम्मिलित स्वास्थ्य सेवाओं वाले तंत्र मौजूद हैं। इन दोनों क्षेत्रों के ध्येय में कितना समन्वित एवं साझा प्रयास है, इससे किसी सफल स्वास्थ्य तंत्र का पता चलता है। इस किस्म का उभयनिष्ठ प्रयास बताता है कि निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाएं राष्ट्रीय स्वास्थ्य उद्देश्यों और तरजीहों के कितनी अनुरूप हैं। ऐसे एकत्रीकरण की सार्थकता कोविड-19 जैसी महामारी के वक्त और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जब समूचे स्वास्थ्य तंत्र को राष्ट्रीय हित की खातिर साझी लड़ाई लड़नी पड़ती है। कोई हैरानी नहीं कि कोविड-19 प्रबंधन में भारतीय स्वास्थ्य तंत्र ने नागरिकों को बुरी तरह निराश किया है क्योंकि यह हमारी व्यवस्था का रिवायती गुण-दोष जो ठहरा। वैश्विक महामारी से पहले ही भारतीय स्वास्थ्य तंत्र में एक ओर सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं जर्जर अवस्था में थीं तो दूसरी तरफ निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र बिना किसी नियंत्रण वाली व्यवस्था के रूप में चली आ रही है। नागिरकों को स्वास्थ्य सेवाएं देने में दोनों क्षेत्रों के बीच साझा तालमेल बन पाए, इस हेतु दशकों से कई मर्तबा अल्पकालीन, टुकड़ों में, लेकिन ज्यादातर समय आधे-अधूरे प्रयास किए गए हैं, जो एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र बनाने के लिए नाकाफी रहे। यही समय है जब मौजूदा आपदा से इस ओर सबक लें।
वर्ष 2000 के पहले दशक के आरंभिक वर्षों में, गरीबों को इलाज पर हुए खर्च की भरपाई हो सके, इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जनस्वास्थ्य बीमा योजना (पीएचआई) शुरू की थी। इस वर्ग में आयुष्मान भारत– प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना नवीनतम केंद्रीय योजना है। वर्ष 2018 तक कम से कम 31 राज्यस्तरीय पीएचआई योजनाएं चल रही थीं।
इन योजनाओं का उद्देश्य न केवल गरीबों की जेब पर इलाज पर होने वाले भारी भरकम बोझ से बचाना बल्कि निजी अस्पताल की सेवाओं का इस्तेमाल, नियमन कर एक युक्तिपूर्ण विकल्प बनाना है। तथापि आगाज के लगभग बीस साल बीत जाने के बाद भी वास्तविक धरातल पर बहुत कम हासिल हो पाया है। इस कहानी को बताने के लिए तीन बड़े अवयवों की मदद लेंगे। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे रिपोर्ट (2017-18) के मुताबिक देश के शहरी क्षेत्र में केवल 8.9 प्रतिशत तो ग्रामीण अंचल में मात्र 12.9 फीसदी सरकार-प्रायोजित स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाई जा सकी है। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे विकसित राज्यों में हालिया एनएफएचएस-5 (वर्ष 2019-20) का अनुमान बताता है कि इन सूबों में भी केवल 30 प्रतिशत जनसंख्या ही किसी स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत आ पाई है। यह हाल तब है जब वहां लगभग एक दशक से जनस्वास्थ्य बीमा योजना लागू है।
दूसरा महत्वपूर्ण अवयव है, स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी काफी कम रही है, कहने की जरूरत नहीं कि इस दौरान सरकारी अस्पतालों की कारगुजारी तो और भी कमजोर रही। निजी अस्पतालों में अमूमन केवल 3 फीसदी आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जनस्वास्थ्य योजना से जुड़े हैं। इससे हो यह रहा है कि देशभर में अस्पतालों में भर्ती होकर इलाज करवाने वालों में ज्यादातर को निजी क्षेत्र का रुख करना पड़ता है। जनस्वास्थ्य बीमा योजना अपना मकसद पाने में विफल रही है, जिसका उद्देश्य था कि आमजन भी अच्छी निजी स्वास्थ्य सेवाओं की कीमत चुकाने लायक बन पाएं और जिन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं कम हैं, वहां जाने में निजी क्षेत्र दिलचस्पी ले।
तीसरा और आखिरी पहलू है, बृहद स्वास्थ्य सूचना बुनियादी ढांचे का निर्माण, यह व्यवस्था निजी क्षेत्र के अस्पतालों के साथ सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अर्थपूर्ण सहकार्यता बनाने की धुरी बन सकती है। हाल ही में यहां-तहां बिखरी पड़ी स्वास्थ्य संबंधी सूचनाओं को इकट्ठा कर राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत विलक्षण स्वास्थ्य पहचान व्यवस्था बनाने के काम ने जोर पकड़ा है। लेकिन देश में जनस्वास्थ्य बीमा योजना तक बहुत कम लोगों की पहुंच होने के कारण इसका प्रयोजन अत्यंत सीमित बना हुआ है।
जनस्वास्थ्य बीमा योजना में नागरिकों की कम भागीदारी भी इन कमियों में एक मुख्य कारण है। तथापि यदि दृष्टिकोण की कमी हो तो धन कितना भी रखा जाए, वह कारगर नहीं हो पाता। वक्त-वक्त पर आई विभिन्न सरकारों ने इन योजनाओं को एक वास्तविक राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र निर्माण का साधन बनाने की बजाय लोकलुभावन औजार की तरह इस्तेमाल किया है।
निजी मेडिकल क्षेत्र के आचरण पर नियामक व्यवस्था न होने की वजह से निजी क्षेत्र के अस्पतालों की बाह्य रोगी सेवाओं तक आमजन की पहुंच हो सके, इसकी संभावना अभी क्षीण है। कुल मिलाकर नतीजा यह कि कोविड-19 महामारी के दौरान दीगर अस्पतालों में गलत आचरण और अव्यवस्था चंहुओर फैली हुई है। भारत के पास विभिन्न स्तरों पर सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल पर काम करने का चार दशकों का लंबा अनुभव है। फिर भी, दुनिया की बेहतर स्वास्थ्य बीमा सरीखी योजनाओं की बनिस्पत हमारा यहां का तरीका टुकड़ों में बंटा, चंद सेवाओं तक सीमित और अदूरदर्शी है। जहां अक्सर निजी स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपना फर्ज छोड़ देने का इल्जाम लगता है वहीं सरकारी रवैया भी इससे कुछ अलग नहीं है। ज्यादातर सरकारें अपनी ओर से सहायता या निगरानी व्यवस्था बैठाने की बजाय सार्वजनिक-निजी साझेदारी को औजार बनाकर सारी जिम्मेवारी निजी क्षेत्र पर डालना चाहती हैं। पीपीपी योजना के अंतर्गत देशभर में फैले छोटे संभावित भागीदार, जो भारतीय निजी स्वास्थ्य क्षेत्र का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं, की बजाय बड़े खिलाड़ी छाए हुए हैं।
मौजूदा कोविड-19 टीकाकरण नीति भी हमारे तौर-तरीकों का बढ़िया उदाहरण है। कुल टीकों का 25 फीसदी कोटा निजी क्षेत्र के अस्पतालों के लिए रखा गया है, जो अनुपात के हिसाब से एकदम बेजा है। क्योंकि केवल चंद बड़े निजी अस्पताल ही इतनी बड़ी तादाद को वास्तव में संभालने लायक होंगे। हालांकि हाल ही में छोटे निजी अस्पतालों के लिए वैक्सीन की तर्कसंगत आपूर्ति नीति उलीकी गई है, लेकिन यह बहुत देर से आई है।
निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की सबसे बड़ी क्षमताओं में एक—दूरदराज तक पहुंच होना—इसका इस्तेमाल कर वैक्सीन को देश के कोने-कोने में पहुंचाने के तरीके पर शायद ही किसी ने ध्यान दिया है। इसके लिए जरूरी है कि सरकार निर्माताओं से दवा लेकर अंदरूनी इलाकों में काम कर रहे निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को मुहैया करवाए, इस काम की निगरानी को एक सजग एवं विकेंद्रीकृत व्यवस्था बैठाई जाए।
महामारी उपरांत सरकार से सबसे पहली उम्मीद करते हैं कि निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की क्षमता का अर्थपूर्ण लाभ उठाने को एक बृहद, कार्यशील और कारगर योजना उलीकी जाएगी। केवल जनस्वास्थ्य क्षेत्र को मिलने वाले धन में इजाफा करना एक पुरानी सोच है और आज की हकीकतों से दूर है। एकीकृत राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र बनाए बिना देश एक और महामारी की ताब झेलना गवारा नहीं कर सकता।
लेखक स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञ हैं।