देश के संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी, नैतिकता और समता जैसे आदर्श सिद्धांत निहित हैं। संवैधानिक मूल्यों की रक्षा व इनकी भावना के अनुसार, न्यायपालिका गंभीर मामलों को लेकर अपने निर्णय देती आयी है। खासकर व्याख्या के लिए अंतिम उम्मीद है। लेकिन अगर वही हमें अपने विचारों की अभिव्यक्ति पर खुद ताला लगाने को कह दे, तो सुरक्षा पाने कहां जाएं?
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया बेहद दिलचस्प व्यक्ति हैं। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे हिंदी फ़िल्म निर्देशक तिग्मांशु धूलिया के बड़े भाई हैं- जिन्होंने गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, पान सिंह तोमर, साहिब बीवी और गैंगस्टर आदि फिल्में बनाई- बल्कि इसलिए कि उनमें आपको एक नेकनीयत गुस्सा दिख सकता है, जो उनके फ़ैसलों में झलकता है। जिनमें बुराई को सज़ा व अच्छाई को राहत मिलती दिखती है, या फिर, सबसे महत्वपूर्ण है अपनी पसंद-नापसंदगी की आजादी का विचार, जो संविधान में दिया मूलभूत अधिकार है, वह खामोशी से उनके फैसलों में खुद को दोहराता है।
उन्हें नायक में तबदील किए जाने के खतरे के बावजूद, वे नायक बनने की काबिलियत रखते हैं। हम जैसे लोगों ने इस अप्रैल में उनके द्वारा मद्रास हाईकोर्ट के दिए एक फैसले को बरकरार रखने की सराहना की थी, जिसमें एक दुष्ट माता-पिता को अपनी ही बेटी-दामाद की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया (‘एक क्रूर और घिनौना जुर्म... गहरे तक जड़ें जमाए जातिवाद की कुरूप सच्चाई’)। अप्रैल में ही, धूलिया ने सवाल किया था कि महाराष्ट्र की एक नगरपालिका में उर्दू को लेकर इतना पूर्वाग्रह क्यों कायम है (‘यह पूर्वाग्रह इस धारणा से उपजा कि उर्दू भारत में विदेशी है...यह सोच गलत है’); और 2022 में, उन्होंने कर्नाटक सरकार के उस फैसले के खिलाफ एक विभाजित फैसला दिया, जिसमें मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनने से रोक दिया गया था (‘यह पसंद का मामला होना चाहिए...अंतरात्मा, आस्था एवं अभिव्यक्ति का मामला’)।
वैसे सुप्रीम कोर्ट में अन्य ‘सितारे’ भी हैं - पिछले हफ्ते, हरियाणा के जस्टिस सूर्यकांत, जो जल्द अगले मुख्य न्यायाधीश बनने वाले हैं,उन्होंने देश के युवा दिलों को खुश्ाी से भर दिया, जब अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अली महमूदाबाद के मामले में हरियाणा के पुलिस कर्मियों को फटकार लगाई - पुलिस ने अली के सभी डिवाइस जब्त कर लिए थे और पिछले 10 वर्षों में उनकी विदेश यात्राओं का ब्योरा मांगते हुए, उनके कथित अपराध (ऑपरेशन सिंदूर की ब्रीफिंग हेतु एक मुस्लिम महिला को प्रवक्ता चुनने पर सरकार को निशाना बनाती सोशल मीडिया पोस्ट्स) की जांच का दायरा बढ़ाने पर।
ये वही जस्टिस सूर्यकांत हैं, जिन्होंने मार्च में कॉमेडियन रणवीर अल्लाहबादिया मामले में नाना विशेषण (‘घृणित’ और ‘अपमानजनक’) दिए थे, जब रणवीर ने मां-बाप को लेकर भौंडा मज़ाक किया था। तब, जस्टिस सूर्यकांत ने अभिव्यक्ति की आज़ादी और अश्लीलता के बीच सदा एक रेखा कायम रखने की नसीहत दी थी। मई में कहा कि सोशल मीडिया का उपयोग करने में दिशा-निर्देश ज़रूरी हैं। गत हफ़्ते की शुरुआत में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत का रूप खुलकर सामने आया। जीवन एवं स्वतंत्रता के हक से संबंधित अनु.21 को लेकर उन्होंने कहा कि इसका अधिमान बोलने एवं अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े अनु. 19 से अधिक है, और रहेगा। न्यायाधीश महोदय मामले के मर्म को टटोल रहे थे - अधिकारों और कर्तव्यों के बीच टकराव। स्पष्टतया, उनका मानना था कि कुछ मौलिक अधिकार दूसरों की तुलना में अधिक मौलिक हैं।
निश्चित रूप से, हमारे संस्थापक पुरखों ने युगों-युगों तक रहने वाली इस दुविधा के बारे में सोचा होगा। इसलिए उन्होंने अनुच्छेद 19 (1) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी पर कुछ अंकुश लगाते हुए, फौरन अगले अनुच्छेद 19 (2) में कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी संपूर्ण नहीं, और भारत की संप्रभुता एवं अखंडता, जन व्यवस्था या नैतिकता के हित में इस पर उचित अंकुश होने चाहिए।
अंतिम वाक्यांश के बारे में, सवाल है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की नैतिकता की धारणा आम नागरिक की शालीनता से ज़्यादा अहमियत रखती है और इन दोनों पर आखिरी फ़ैसला कौन लेगा। अक्सर, समुदायों के रीति-रिवाज या चाल-चलन क़ानून की किताबों से बहुत ऊपर होते हैं, लेकिन लक्ष्मण रेखा के बाहर जाकर देखने के लिए एक साहसी व्यक्ति की ज़रूरत होती है। जब धारा 377, जिसने 1862 में समलैंगिकता को अपराध घोषित किया था, जिसे अंततः 2018 में हटा दिया गया, तो पूर्व भाजपा नेता अरुण जेतली, जो जाने-माने वकील भी थे, ने अपने साथी पार्टी नेताओं को समझाया कि अगर समान लिंग के कुछ लोग आपस में यौन संबंध बनाते हैं तो इससे कोई आसमान टूटने वाला नहीं है।
इसी तरह, जब माननीय न्यायाधीश को वास्तविक जीवन में अभिव्यक्ति की आजादी के मोल का भान अच्छी तरह है, तो सोशल मीडिया के मामले में इसको अलग ढंग से क्यों बरता जाए? क्या अली महमूदाबाद की पोस्ट्स अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा थीं या फिर महिलाओं को अपमानित करने का नुस्खा, जैसा कि एक भाजपा नेता का मानना था? सोशल मीडिया की वे टिप्पणियां जो किसी के लिए बहुत ज़्यादा अपमानजनक हैं या अन्यों के लिए इतनी कि संख्या गिनने में न आए। फिर एक मामला है कुणाल कामरा का, जिसने कथित तौर पर महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री पर ‘गद्दार’ या ‘देशद्रोही’ का तंज कसा था। ऐसे ही कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने एक कविता पढ़ी, जो गुजरात में किसी को नागवार लगी और उसने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी। जहां तक रणवीर अल्लाहबादिया के ‘मां-बाप’ किस्म के चुटकुलों की बात है, लोकप्रिय ‘सेल्फ़ी विद डॉटर’ अभियान – जिसको बढ़ावा देने वालों में खुद प्रधानमंत्री मोदी शामिल हैं - उसके द्वारा करवाया गया ‘गाली बंद’ नामक सर्वे बताता है कि मां-बहन की गालियां सबसे ज़्यादा दिल्ली वाले (80 फीसदी) इस्तेमाल करते पाए गए, उसके बाद नंबर रहा पंजाब (78 फीसदी), उत्तर प्रदेश और बिहार (74 फीसदी) और राजस्थान (64 फीसदी) का।
केवल सोशल मीडिया पर नहीं, उत्तर भारतीय मर्द बातचीत में किस किस्म की भाषा का इस्तेमाल करते हैं काश माननीय सुप्रीमकोर्ट इसका भी संज्ञान लेता। शायद, मामले की जड़ यह है कि हम ऐसे ही हैं - हालांकि जो दिल में आया उसे कहने वालों को निशाना बनाने की यह कोई वजह नहीं हो सकती।
मई में, जब अली का मामला पहली बार सर्वोच्च न्यायलय आया, तो जस्टिस सूर्यकांत ने स्पष्ट कहा कि अगर छात्र और प्रोफेसर ‘कुछ भी करने की हिमाकत करेंगे...अगर वे आपस में हाथ मिलाने जैसी कोशिश करेंगे, तो हमें बखूबी पता है कि इनसे कैसे निबटना है, वे हमारे अधिकार क्षेत्र में हैं’।
आप हमारे नायक बनने जा रहे जस्टिस धूलिया पर भी ऐसा ही आक्षेप लगा सकते हैं। जब इस महीने की शुरुआत में मध्य प्रदेश के एक कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय ने सुप्रीम कोर्ट से अग्रिम ज़मानत मांगी, क्योंकि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट उनकी गिरफ़्तारी को मंज़ूरी दे रहा था - प्रधानमंत्री मोदी पर 2021 में बनाए गए एक कार्टून को लेकर, जिसे भौंडा माना गया था - तो जज भड़क गए। जस्टिस धूलिया ने कहा, ‘हद है! लोग किसी को भी, कुछ भी कह देते हैं’।
अब जबकि हमारी आंखों पर पड़ा पर्दा हट गया है और हम अपने भावी नायक को स्तब्ध होकर देख रहे हैं, अनायास ही यह विचार उभर आता है : अगर सुप्रीम कोर्ट भी हमें अपनी वाणी, अपने चित्रों, कविताओं, संगीत, फिल्मों, अपने विचारों की अभिव्यक्ति पर खुद ताला लगाने को कह दे, तो हम सुरक्षा के लिए कहां जाएं?
इसलिए,पिछले हफ़्ते की सबसे बड़ी दुविधा यही मुद्दा रहा। भारत का रूढ़िवादी और सामंती समाज, जिसने विभाजन के आघातों के आलोक में, नेहरू और उनके साथियों को राष्ट्रीय विचारधारा धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे समतावादी सिद्धांतों की ओर जाने की अनुमति दी थी, अब पिछले एक दशक में कट्टर दक्षिणपंथ की और वापसी में खुशी-खुशी शामिल हो गया है। अब इस पर रिवर्स गियर कैसे लगाया जाए?