बहुत साल पहले की बात है। मैं जिस मकान में किराए पर रहती थी, वे अमीर लोग थे। संयुक्त परिवार था। पुरानी दिल्ली में उनका व्यवसाय था। घर में एक फ्रिज था, जिसकी उम्र उस वक्त तीस साल बताई जाती थी। एक टी.वी. भी था, जो बहुत पुराना था। घर में एम्बेसडर कार थी, जो बच्ची के जन्म पर खरीदी गई थी, बच्ची की उम्र भी बीस साल से अधिक थी। इन उपकरणों को कोई बदलने की भी नहीं सोचता था, क्योंकि जब ये सभी चीजें ठीक से काम कर रही थीं तो फालतू पैसे की बर्बादी क्यों की जाए।
उन दिनों अपनी हैसियत का प्रदर्शन इस बात से तय नहीं होता था कि कितनी जल्दी आप अपने घर में काम आने वाली चीजों को बदलते हैं। जबकि आज हालत यह है कि कार का लोन खत्म नहीं होता कि उससे पहले नई कार का लोन ले लिया जाता है। फ्रिज, टी.वी. आदि तो अब सालों नहीं, घंटों के आधार पर बनने लगे हैं। उनका जीवन कुछ हजार घंटों में ही सिमट गया है। उपभोक्तावाद का यह वह स्वरूप है, जो नए ब्रांड को खरीदने में आपकी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर बताता है और इस तरह आपकी जेब से पैसे निकालता है। कल को यदि आपकी नौकरी चली जाए, आप कमाने लायक न रहें, तो जिन कम्पनियों के उत्पाद हर रोज खरीदकर इतरा रहे थे, अपनी हैसियत को दूसरों से अच्छी समझ रहे थे, उनमें से कोई कम्पनी आपको बचाने नहीं आती। न ही यह कहती है, भइया तुमने हमारा उत्पाद खरीद कर हमारे ब्रांड का नाम बढ़ाया था, तुम्हारी नौकरी छूट गई है, तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं।
और सिर्फ यही चीजें नहीं- कपड़े, जूते सभी का यही हाल है। कई युवा इस बात को काफी गर्व से बताते हैं कि उनके पास सौ जोड़ी जूते हैं, तीन अलमारी भरकर कपड़े हैं। तीन महीने बीतते नहीं हैं कि कपड़ों, जूतों के डिजाइन बदल जाते हैं और फिर ये तीन अलमारी कपड़े और सौ जोड़ी जूते किसी काम के नहीं रहते। जितनी जरूरत हो, उस हिसाब से खरीदें, यह मंत्र पुराना पड़ चुका है। बहुत से युवा बचत के बारे में तो सोचते ही नहीं हैं। ट्रेंड से चलने को वे वक्त की जरूरत मानते हैं, फिजूलखर्ची नहीं। व्यापार को भी ये बातें बहुत रास आती हैं। उनका मुनाफा बढ़ता है। उद्योग-धंधे चलते हैं। सरकारें भी इसी तर्क को मानती हैं, इसीलिए आपके खर्चे पर टैक्स में रियायत मिलती है और बचत पर टैक्स कटता है। यदि किसी की नौकरी चली जाए, तो सरकारें भी यह नहीं कहतीं कि जब तक तुम्हारी नौकरी थी, तुमने ईमानदारी से टैक्स दिया है, इसलिए जब नौकरी चली गई है, तो हम तुम्हारी मदद करते हैं।
यही नहीं, संयुक्त परिवारों में जहां एक घर, एक फ्रिज, एक टी.वी. एक कार से काम चल जाता था, एकल परिवारों में हर घर में ये चीजें चाहिए। इसीलिए आप देखेंगे कि संयुक्त परिवारों के मुकाबले एकल परिवारों की बहुत रोजी पिक्चर पेश की जाती है। अकेले रहने को किसी आदर्श की तरह देखा जाता है।
कोरोना ने हालांकि अब इस तरह की चीजों पर काफी लगाम लगाई है। युवाओं को पहली बार समझ में आया है कि नौकरी किसी भी पल चली जाती है। इसलिए बचत का होना बहुत जरूरी है। इसलिए कुछ दिन पहले तक अगर परिवार में चार लोग हैं, तो चार गाड़ियां होती थीं और पार्किंग की जगह को लेकर झगड़े होते रहते थे। अब कारों की संख्या कम दिखाई देती है।
महामारी के वक्त औरों के मुकाबले परिवार ने ही एक-दूसरे का साथ दिया, इसलिए परिवार में नए सिरे से व्यक्तियों या ह्यूमन रिसोर्स की भूमिका को पहचाना जा रहा है। एक-दूसरे की देखभाल को महत्व दिया जा रहा है। पश्चिम ने इस देखभाल को भी केयर इकाेनाॅमी का नाम देकर पैसे से जोड़ दिया, जबकि भावनाओं को शायद ही पैसे से तोला जा सकता है। दादा-दादी जब नाती-पोतों की देखभाल करते हैं, तो उसमें उनका नेह और इमोशनल बान्डिंग ही छिपी रहती है, पैसे की बात तो कहीं आती ही नहीं। घरेलू सहायक-सहायिकाओं पर चाहे जितने पैसे खर्च करें, वे भावनाएं कहां से लाएंगे जो बुजुर्ग परिजनों या माता-पिता, अथवा छोटे भाई-बहनों के लिए बड़े भाई-बहनों में होती हैं।
पश्चिमी देशों में इस लगाव को समझना मुश्किल है, क्योंकि वहां परिवारों का ढांचा वह नहीं है, जो हमारे यहां है। यह बात अलग है कि अपने देश में पश्चिमी रहन-सहन को भी बहुत आदर्श की दृष्टि से देखा जाता है। सिर्फ देखा ही नहीं जाता, अरसे से नकल करने की भी कोशिश की जाती है। जबकि वे समाज भी बेशुमार समस्याओं से ग्रस्त हैं। हां, कोरोना की भयावहता ने उन्हें भी सोचने पर मजबूर किया है कि अब तक जिस तरह का जीवन वे जीते आए क्या, वही ठीक था। या उसमें कुछ सुधार की गुंजाइश है। अब वहां भी परिवार की जरूरत को महसूस किया जा रहा है।
विचार-विमर्श हो रहा है कि जिस परिवार को बोझ समझकर अपने से अलग किया, उसे वापस कैसे लाया जाए। अमेरिका में तो नब्बे के दशक से परिवार की वापसी की बातें चल रही हैं। समय-समय पर वहां तमाम मनोवैज्ञानिक, समाज शास्त्री, पुलिस के अधिकारी इस बात पर जोर देते रहे हैं कि अगर अगली पीढ़ी का भविष्य सुनिश्चित करना है, उन्हें नशे और अपराध की दुनिया से बचाना है, तो परिवार के ढांचे का निर्माण करना होगा। लेकिन यह भी तो सच है कि जो ढांचा एक बार नष्ट हो जाता है, उसे दोबारा खड़ा करना खासा मुश्किल होता है।
हम भी इस बात पर गौर करें। हमारे यहां भी परिवार टूट-फूट रहे हैं। सिकुड़ रहे हैं। कैसे इस बात की पहल हो कि परिवार में लोगों की आजादी भी बनी रहे और परिवार की ताकत भी, क्योंकि आज भी परिवार की ताकत से बड़ी कोई दूसरी ताकत दिखाई नहीं देती। यह किसी आपदा के वक्त ही नजर आती है।
इसलिए ब्रांड और उपभोक्ता वस्तुओं के मोह के मुकाबले परिवार के प्रति मोह पालें। उसकी बढ़ोतरी और एकता में ही न केवल हमारा बल्कि देश का भविष्य छिपा हुआ है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।