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सुनहरे सपनों के लिए परदेस मोह के द्वंद्व

गुरबचन जगत पिछले कुछ वक्त से मेरे ज़हन में पंजाब से युवाओं के विदेशों की ओर हो रहे पलायन पर मंथन चलता रहता था। कई मर्तबा सोचकर अवसाद होता तो कई बार प्रसन्नता महसूस होती, तो कई बार दिमाग सुन्न...
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गुरबचन जगत

पिछले कुछ वक्त से मेरे ज़हन में पंजाब से युवाओं के विदेशों की ओर हो रहे पलायन पर मंथन चलता रहता था। कई मर्तबा सोचकर अवसाद होता तो कई बार प्रसन्नता महसूस होती, तो कई बार दिमाग सुन्न हो जाता है। क्या यह पंजाब के लिए अच्छा है? क्या उनके परिवारों के लिए बेहतर है? इनके उत्तर अलग-अलग होने की वजह से ये सवाल तंग करते रहे।

फिर एक दिन, मेरा एक दोस्त लन्दन से आया, लंबे अर्से के बाद हम मिले। हमने अन्य मित्रों के बारे में बात की, जिनमें कुछ लन्दन में हैं, कुछ यहां तो कुछ इहलोक के बाद अगली यात्रा पर निकल चुके हैं। अतीत की यादें, जो कुछ खुशनुमा तो कुछ उदासज़दा, मन की तिजोरी में सहेज कर रखी गयी। जल्द ही हमारी बातचीत का विषय पंजाब से हो रहे पलायन पर आ गया और उन्होंने वहां पहुंचने की आपबीती पहली बार सुनाई। वे अमृतसर जिले के एक गांव से ताल्लुक रखते हैं, जोकि ब्यास शहर के पास है। परिवार खेती करता है और उनके दादा जी के चार बेटे थे (जिसकी उपमा पुराने जमाने में ‘चार हल वगदे सन’ दी जाती थी)। सबसे छोटा बेटा मेरे दोस्त के पिताजी थे। उन्हें खेत में हल चलाने की बजाय मवेशियों की देखभाल का जिम्मा दिया गया जैसे कि चारा-पानी, और अन्य जरूरतें पूरी करना। वे विदेश जाने का सपना देखा करते थे, इसके पीछे वह खत थे जो मलाया में रह रहे एक नजदीकी रिश्तेदार से आते थे। एक दिन, पशुओं के लिए सूखा चारा (तूड़ी) निकालते वक्त लोहे का पंजेनुमा औजार (कांटा) छत में लकड़ी की कड़ी (पंजाबी में ‘बाला’) से जा टकराया और धातु की खनक सुनाई दी। और कुरेदने पर चांदी के कुछ सिक्के गिरे, जोकि एक थैली में रखकर ‘बाले’और छत के बीच की खोह में छिपाए गए थे। गिने तो पूरे 80 निकले, 1940 के दशक में यह छोटे-मोटे खजाने से कम नहीं थे। उसे लगा किस्मत ने यह मौका उसे सपना पूरा करने के लिए बख्शा है, और अगले दिन चुपचाप घर छोड़ने की ठान ली। यहां तक कि पत्नी को भी नहीं बताया (जो गर्भवती थी) कि कहीं रोक न ले।

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अमृतसर-कलकत्ता के बीच हावड़ा एक्सप्रेस रेलगाड़ी उनदिनों भी चला करती थी। वह पकड़ी और जा पहुंचे कलकत्ता और एक गुरुद्वारे में रहकर मलाया जाने वाले जलयान का इंतजार करने लगे। उन दिनों अधिकांश सफर जहाज के खुले डेक पर करना पड़ता था। जहाज मलाया बंदरगाह पहुंचा, लेकिन तब तक मलाया और सिंगापुर का शासन जापानी ब्रितानी हुकूमत से छीन चुके थे। उन्हें अपना वह रिश्तेदार तो मिला नहीं बल्कि नए हुक्मरानों की मर्जी और आदेशों के मुताबिक एक से दूसरी जगह ले जाए जाते रहे। इस तरह शुरू हुआ लगभग 10 साल लंबा संघर्ष। उन्होंने पत्नी और बच्चों को सिंगापुर बुला लिया (तब तक सिंगापुर फिर से ब्रिटिश हुकूमत के अधीन हो गया) और पहली बार अपने बेटे यानी मेरे दोस्त को देखा, जो अब 10 साल का था। परिवार अब सिंगापुर में जम गया और पंजाब से गए मेरे मित्र को दीन-दुनिया की कुछ सुध होने लगी और कुछ स्कूली शिक्षा-दीक्षा भी हुई। 1950 के दशक के आखिर में एक दिन वह भी पिता की तरह फ्रांस जाने वाले जलयान पर चढ़ा और पहुंच गया मार्सिलेस बंदरगाह, जहां से आगे कलाएस, डोवर होते हुए लन्दन। यहां भी पहले-पहल गुरुद्वारे में शरण ली। एक बुजुर्ग सिख को वे भा गए, और उन्होंने जरूरी वस्तुएं जैसे कि जैकेट, पैंट और जूते दिला दिए और फिर शुरू हुई नौकरी की तलाश। पूरी कहानी लंबी है, फिर किसी और दिन, लेकिन यहां बताना जरूरी है कि मेरे दोस्त को बहुत से छोटे-मोटे काम करने पड़े, फिर एक दिन कुश्तियों पर लगने वाले पैसे के बारे में पता चला और दांव खेलने पर अक्लमंदी से निवेश करते हुए काफी धन कमाया जिसकी बदौलत आज वे एक समृद्ध बुढ़ापा काट रहे हैं, यह खुशी है कि बच्चे बहुत पढ़-लिख गए और पोते-पोतियां भी अच्छी नौकरियों या बिजनेस में हैं।

उन्होंने अपने साथ हुए भेदभाव के किस्से भी सुनाए, जैसे कि पब में या अन्य कई अदारों में दारू परोसने से मना कर दिया गया, भारतीय कामगार संघ के बारे में भी बताया, जिसने समानता की लड़ाई लड़ी। कितने सारे किस्से, तमाम कठिनाइयां, लेकिन यूके पहुंचे इन आरंभिक अप्रवासियों की लीक पर हजारों लोग वहां पहुंचे। आज अप्रवासी पंजाबी एक विशाल, जीवंत और संपन्न समुदाय है। यह कहानी केवल एक आदमी की नहीं है जो चांदी के 80 सिक्के और बहुत कम पढ़ाई के साथ उज्ज्वल भविष्य की तलाश में अनजाने मुल्क में बसा। यह किस्सा लाखों उन पंजाबियों का है जो पूरी 20वीं सदी के दौरान और आज भी, अपना भविष्य विदेशों में ताकते हैं। चाहे यह यूके, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, इटली, ग्रीस हो या जो नाम आप लें, हर उस जगह पंजाबी मिल जाएंगेे। उनमें अधिकांश को वैसी ही मुश्किलों से गुजरना पड़ा जो मेरे मित्र और उनके पिता को सहनी पड़ीं, लेकिन हिम्मत कायम रखते हुए आगे बढ़ते रहे और आखिरकार मंजिल पा ही ली। उनके साथ न केवल पंजाबी जीवटता की भावना थी बल्कि इस पूरे वक्त गुरु नानक, गुरु गोबिंद सिंह, कबीर और बाबा फरीद की शिक्षा भी अंग-संग रही। आज वहां के समाज में उनकी हैसियत डॉक्टर, स्कॉलर, इंजीनियर, शिक्षक, व्यापारी और राजनेता के रूप में काफी अच्छी है तो बाकी लोग भी खून-पसीने की ईमानदार कमाई कर रहे हैं। उन देशों ने उन्हें प्रफुल्लित होने के मंच दिए। बतौर एक समुदाय उनकी साख बहुत बढ़िया है और अपने-अपने इलाके के समाज के सम्माननीय सदस्य हैं। अधिकांश बहुत बढ़िया ढंग से बस गए हैं और उनकी दूसरी एवं तीसरी पीढ़ी स्थानीय समाज में रच चुकी है।

पर उन्हें अप्रवासी बनने के लिए किसने मजबूर किया- क्या यह पंजाब पर अंग्रेजों की जीत थी? अंग्रेज-सिख युद्धों ने एक साम्राज्य और उसके लोगों को अधर में फंसा दिया था। क्या यह पलायन इस वजह से था कि ब्रितानी हुकूमत ने खालसा फौज के बड़े हिस्से को अपनी सेना में शामिल कर लिया था और आगे कई युद्धों के लिए भर्ती की, जिससे पंजाबियों की आमद दूर-दराज देशों में हुई? क्या यह विभाजन के वक्त हुई कत्लोगारत और लाखों लोगों का शरणार्थी के रूप में स्थानांतरण था? धन्यवाद मेरे मित्र को कि उनकी आपबीती से आरंभ में विदेश जाने वालों की हकीकत से मेरी आंखें खुल गईं। अब मुझे विदेश जाने के चाहवानों से कोई गिला नहीं है क्योंकि उन्हें देने को यहां हमारे पास है क्या – यहां तक कि सपने भी नहीं। है तो केवल अदृश्य उपलब्धियों के विज्ञापन और भविष्य की मरीचिका? लोगों का भविष्य किसी जमीन से नहीं बनता बल्कि संघर्षों की जीवटता भरा अतीत, प्रेरणास्पद नायक और शिक्षाएं उन्हें तराशती हैं। पुराने पंजाब का मौजूदा विद्रूप रूप आज अपने सबसे बड़े स्रोतों में कुछ को गंवा बैठा है, नहीं...नहीं, यह रेत या पानी न होकर मानव और मानवीयता है। जहां कहीं भी पंजाबी हैं, पंजाब और पंजाबियत उनके साथ रहेगी, यहां क्या बचा यह अलग सवाल है। विदेश जाकर अपने सपनों का भविष्य तलाशने वाले युवाओं के लिए बस यही कहना चाहूंगा : ‘ईश्वर की कृपा से अपने ध्येय में सफल हों’।

लेखक मणिपुर के राज्यपाल रहे हैं।

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