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सदियों के साथी के दिन भी बहुरेंगे!

क्षमा शर्मा पिछले दिनों कोझीकोड से एक कुत्ते की खबर आई थी। यह कुत्ता वहां के एक अस्पताल के शवगृह के सामने लगातार चार महीने से बैठा है। भला हो मीडिया का कि यह कुत्ता सुर्खियां बना। इसे भारत का...
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क्षमा शर्मा

पिछले दिनों कोझीकोड से एक कुत्ते की खबर आई थी। यह कुत्ता वहां के एक अस्पताल के शवगृह के सामने लगातार चार महीने से बैठा है। भला हो मीडिया का कि यह कुत्ता सुर्खियां बना। इसे भारत का हाचिको कहा गया। हाचिको वह कुत्ता था जिसका मालिक जापान के शिबुया स्टेशन से रेलगाड़ी में बैठकर युद्ध के लिए चला गया। युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। लेकिन हाचिको वहीं बैठा रहा। नौ साल तक वह इस बात का इंतजार करता रहा कि कभी तो उसका मालिक लौटेगा। लेकिन मालिक कभी नहीं लौटा। लौटता भी कैसे। वह तो मर चुका था। हाचिको आखिर इस बात को जानता भी कैसे। वह रात-दिन रेलगाड़ियों को इसी आशा से देखता रहा कि किसी से तो उसका मालिक उतरेगा। और अंत में नौ साल बाद हाचिको के प्राण भी स्टेशन पर इंतजार करते-करते निकल गए। इस कुत्ते को वहां के लोगों ने बहुत प्यार दिया। उसकी मूर्ति भी शिबुया रेलवे स्टेशन पर लगी हुई हैं। लोग आकर इसकी मूर्ति पर फूल चढ़ाते हैं। फोटो खिंचवाते हैं और बहुत-सी यादें अपने साथ ले जाते हैं। इस पर डाग्स स्टोरी नाम से फिल्म भी बनी है जिसमें मशहूर अभिनेता रिचर्ड गेरे और जान एलन ने काम किया था। इस फिल्म को बहुत पसंद किया गया था। यह एकदम से आपके मन के तारों को झनझना देती है।

कुन्नूर, कोझिकोड, केरल में चार महीने से अपने मालिक के इंतजार में बैठे इस देसी नस्ल के कुत्ते को देखकर हाचिको की ही याद आती है। इसके बारे में आसपास के लोग कहते हैं कि शायद इसका मालिक अस्पताल में आया होगा और मृत्यु के बाद उसे शवगृह में कुछ दिन रखने के लिए ले जाया गया होगा। वहां दो दरवाजे हैं। एक अंदर जाने का दूसरा बाहर निकलने का। मालिक का शव दूसरे दरवाजे से बाहर ले जाया गया होगा, जिसके बारे में इस बेचारे को मालूम नहीं है। वह सोचता है कि कभी न कभी तो मालिक शवगृह के अंदर से लौटेगा। जब से इसके बारे में लोगों ने ध्यान दिया है, इसकी देखभाल होने लगी है। पहले तो यह कुछ नहीं खाता था, लेकिन अब बिस्कुट आदि खाने लगा है। खाना खिलाने पर ही खाता है। स्वयं सहायता समूह से जुड़ी एक महिला लगातार इसकी देखभाल करती हैं। लेकिन अपने स्थान से यह और कहीं नहीं जाता। आसपास रहने वाले कुत्तों से मिलता भी नहीं है। कभी-कभार फिजियोथेरैपी विभाग के भी चक्कर लगाता है।

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शायद इसने मालिक को वहां भी जाते देखा होगा। इसका क्या नाम है, कहां रहता था, कौन इसका मालिक है, किसी को पता नहीं है। अगर स्थानीय अखबारों में इसके बारे में कुछ छपे, टीवी पर खबर चले तो शायद कुछ पता चल सके। इसके मालिक का कोई रिश्तेदार इसे लेने आ सके। यों इसे चाहकर भी कुछ बताया नहीं जा सकता। आखिर कुछ समझेगा भी कैसे। इस घटना को सुनकर मन भर आता है। आखिर जानवरों की भावनाओं को क्यों हम नहीं समझते। क्यों ध्यान नहीं दे पाते जबकि ये अपना जीवन भी बलिदान कर देते हैं। अपने मालिक और परिवार को बचाने की कितनी कहानियां हम सुनते-पढ़ते रहते हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि यह देसी नस्ल का कुत्ता है। अपने यहां महानगरों और शहरों में देसी कुत्ते शायद ही कोई पालता है। अक्सर लोगों के घरों में विदेशी नस्ल के कुत्ते ही देखे जाते हैं। इन कुत्तों की कीमत बहुत ज्यादा होती है। भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए इनकी देखभाल अधिक करनी होती है। जबकि देसी कुत्ते बेचारे दर-दर भटकने को मजबूर होते हैं जबकि ये भारतीय मौसमों को प्राकृतिक रूप से झेलने लायक होते हैं। इनके खान-पान पर भी अलग से कोई ध्यान नहीं देना पड़ता। जबकि ग्रामीण समाज में ये कुत्ते घरों के अभिन्न अंग रहे हैं। जानवरों की देखभाल, चोरों से बचाने वाले भी माने जाते रहे हैं। लेकिन बदले वक्त ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है। बल्कि इनके ऊपर अक्सर यह आरोप लगाता रहता है कि ये लोगों को काटते रहते हैं। इसीलिए बहुत से अभियान इन्हें खत्म करने के लिए चलाए जाते हैं।

दरअसल, कोई देसी कुत्ते क्यों नहीं पालना चाहता, यह बात समझ में नहीं आती। यदि कोई बड़ा आदमी देसी कुत्ता पालता है तो वह खबर बन जाता है जैसे कि मशहूर अभिनेता स्वर्गीय ओम पुरी। उन्होंने मोती नाम से एक देसी कुत्ता पाल रखा था। कई बार इस तरह के अभियान भी चलाए जाते हैं कि विदेशी कुत्तों की जगह देसी कुत्ते ही पाले जाएं। प्रधानमंत्री भी देसी कुत्तों के महत्व को कई बार बता चुके हैं। वे चाहते हैं कि लोग इन कुत्तों को पालें। सेना और पुलिस में भी इन कुत्तों को जगह मिले। शायद अब इन कुत्तों के दिन बदलने वाले हैं।

अब पुलिस की ड्यूटी में रामपुर हाउंड, गद्दी, बखरवाल आदि नस्ल के कुत्ते भर्ती किए जाएंगे। हिमाचली और तिब्बती कुत्तों को भी जगह मिलेगी। जोखिम वाले क्षेत्र जैसे संदिग्धों को पकड़ना, नशीले पदार्थों को सूंघना, विस्फोटों का पता लगाना, गश्त करना आदि काम शामिल हैं। अभी तक विदेशी नस्ल के कुत्तों को ही इसमें शामिल किया जाता था। अभी तक केंद्रीय सशस्त्र बलों में सबसे अधिक चार हजार कुत्ते हैं। सीआरपीएफ में पंद्रह सौ और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड में सौ कुत्ते शामिल हैं। प्रधानमंत्री यह भी कह चुके हैं कि वैज्ञानिक माध्यमों से देसी नस्ल के कुत्तों को सुधारा भी जाए। अगर ऐसा हो जाए तो सचमुच बहुत अच्छा रहेगा।

कायदे से तो प्रचार माध्यमों के जरिए देसी कुत्तों के पक्ष में अभियान भी चलाया जाए, उनके गुण बताए जाएं, उनकी सच्ची कहानियां सुनाई जाएं जिससे कि लोग इन कुत्तों के गुणों से परिचित हो सकें। विदेशी नस्ल के कुत्तों की जगह इन्हें पाल सकें। आखिर पांडवों के पास भी एक देसी नस्ल का कुत्ता ही था, जिसने अंत तक उनका साथ निभाया था। ये बेचारे भी लोगों की हिकारत का शिकार क्यों बनें। सड़कों पर घूमते हुए भूखे मरें, या कोई न कोई विषैली चीज खाएं और यों ही काटने वालों के रूप में बदनाम हों या सरकारी विभागों द्वारा बेमौत मारे जाएं। इन्हें भी जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि विदेशी नस्ल के कुत्तों को। और इन्हें पालने में कोई पैसा भी खर्च नहीं होता न ही ऐसा भोजन देना पड़ता है जो बहुत महंगा होता है। नि:संदेह, इन कुत्तों की वफादारी भी किसी से छिपी हुई नहीं है। ऐसे किस्से हमें लगातार जनमानस द्वारा सुनाए जाते हैं। कई बार अखबारों में भी छपते हैं। केरल के कुत्ते के उदाहरण से इसे समझा भी जा सकता है। तो क्यों न इन्हें पाला जाए, देखभाल की जाए और इनकी जिंदगी बचाई जाए। पशुओं के प्रति प्यार जताने की जिम्मेदारी सिर्फ उन स्वयं सहायता समूहों की ही क्यों हो जो इनकी आवाज बनते हैं। आम लोग भी इनके प्रति दया और सद्भावना दिखा सकते हैं। यकीन मानिए ये कभी निराश नहीं करेंगे।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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