विश्वनाथ सचदेव
दिल्ली के मुख्यमंत्री और ‘आप’ पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार होंगे, यह सब जानते थे। सवाल सिर्फ कब गिरफ्तार होंगे का था। अब उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने गिरफ्तार कर लिया है। यह शब्द लिखे जाने तक उन्हें ज़मानत नहीं मिली है, और इसी तरह की पहली गिरफ्तारियों को देखते हुए यही लग रहा है कि ज़मानत आसान नहीं है। ईडी सरकार के इशारों पर काम करती है, इस आशय के आरोप लगाने वाले यह भी कह रहे हैं कि आम-चुनाव से ठीक पहले केजरीवाल को गिरफ्तार करके केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने विपक्ष के एक कद्दावर नेता को चुप करने का काम किया है। पिछले एक अर्से से जिस तरह विपक्ष के नेताओं को कमज़ोर बनाने की कोशिश हो रही है, उसे देखते हुए केजरीवाल की गिरफ्तारी पर न तो आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है, और न ही यह कहा जा सकता है कि यह गिरफ्तारी अप्रत्याशित थी। यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है कि इस समय ही यह गिरफ्तारी क्यों हुई– चुनाव से ठीक पहले हुई इस गिरफ्तारी से मतदाता को एक संदेश तो मिलता ही है कि गिरफ्तार होने वाले ने कुछ तो ग़लत किया ही है। वहीं शायद केजरीवाल भी गिरफ्तारी का राजनीतिक लाभ उठाने की उम्मीद में बैठे थे– वह स्वयं को पीड़ित दिखाकर मतदाता की सहानुभूति की उम्मीद कर ही सकते हैं।
मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए किसी को इस तरह गिरफ्तार किए जाने की भले ही यह पहली घटना हो, पर झारखंड के मुख्यमंत्री को भी लगभग इसी तरह कमज़ोर बनाया गया था। यह सही है कि गिरफ्तारी से ठीक पहले उन्होंने पद से त्यागपत्र देकर अपने उत्तराधिकारी की राह आसान बना दी थी, पर मामला यहीं तक सीमित नहीं था। सवाल मुख्यमंत्री की इस तरह की गई गिरफ्तारी के राजनीतिक संकेतों का है। किसी केजरीवाल अथवा किसी सोरेन ने कोई अपराध किया है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन ऐसी किसी कार्रवाई के मंतव्य को समझने की भी आवश्यकता होती है। जिन स्थितियों में और जिस तरीके से ऐसी कार्रवाई हुई है, या हो रही है, उसे देखते हुए यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि इस सबके पीछे विपक्ष को कमज़ोर बनाने और राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश हो रही है। सरकार यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि ईडी, सीबीआई , इनकमटैक्स जैसी संस्थाओं को सांविधानिक संरक्षण प्राप्त है और उनके कामकाज में सरकार दखलंदाजी नहीं करती। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के ही एक माननीय न्यायाधीश ने कभी सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था! सत्ता की राजनीति में तब और आज कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखाई देता। देखा यह जा रहा है कि जन-समर्थन राजनीतिक नेतृत्व को एकाधिकारवादी बना देता है– बना रहा है!
जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव का होना या चुनाव में जीतना ही पर्याप्त नहीं होता। चुनावों का सही तरीके से होना, चुनाव में भाग लेने के लिए सबको समान और उचित अवसर मिलना जनतंत्र के औचित्य की एक महत्वपूर्ण शर्त है। आज जो स्थितियां देश में बनती जा रही हैं, वे, दुर्भाग्य से, इस आशय का कोई आश्वासन नहीं दे रही हैं। किसी निर्वाचित मुख्यमंत्री का गिरफ्तार होना एक कथित आरोपी मात्र का गिरफ्तार होना नहीं होता। यदि किसी ने कोई अपराध किया है तो उसे अपने किए की सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन यदि सज़ा देने के नाम पर किसी प्रकार का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की जाती है तो उसे उचित नहीं माना जा सकता। इसीलिए यह सवाल उठता है कि किसी केजरीवाल या किसी सोरेन को चुनाव से ठीक पहले ही गिरफ्तार करना क्यों ज़रूरी समझा गया?
यहां सवाल जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों का भी है। यह कहना तो ग़लत होगा कि देश में जनतंात्रिक मूल्यों का पराभाव हो चुका है, लेकिन जनतंत्र को नये अर्थ देने की कोशिशों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। समय पर चुनाव होने अथवा किसी नेता की लोकप्रियता के आधार पर जनतंत्र की सफलता अथवा औचित्य को नहीं नापा-परखा जा सकता। जनतंत्र का अर्थ होता है नागरिक के अधिकारों, और कर्तव्यों का भी, संरक्षण।
इसके साथ ही मज़बूत विपक्ष की महत्ता को समझा जाना भी ज़रूरी है। जनतंत्र में विपक्ष का काम मात्र आलोचना करना नहीं होता, विपक्ष को ईमानदार, सजग चौकीदार की भूमिका भी निभानी होती है। विपक्ष की सतत जागरूकता जनतंत्र के सफल और सार्थक होने की पहली और ज़रूरी कसौटी है। लेकिन, दुर्भाग्य से हम अपने देश में विपक्ष को लगातार कमज़ोर किए जाने की कोशिशों को होता देख रहे हैं। संदेह होता है कि सत्तारूढ़ पक्ष विपक्षहीन जनतंत्र की कोशिश में ही तो नहीं लगा?
विपक्ष के मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी अथवा उन पर कार्रवाई किए जाने की लटकती तलवार से यह संशय होना स्वाभाविक है कि हमारा ताकतवर सत्तारूढ़ पक्ष कहीं विपक्षहीनता की स्थिति लाने की जुगाड़ में तो नहीं है? जिस तरह विपक्ष की सरकारों को कमज़ोर करने या काम न करने देने की स्थिति में लाने की कोशिशें होती दिख रही हैं, वह अच्छा संकेत तो नहीं ही है। जिस तरह दल-बदल को बढ़ावा दिया जा रहा है और जिस तरह से सरकारों को तोड़ा गया या उन्हें तोड़े जाने की कोशिशें हो रही हैं, वह जनतंत्र की दृष्टि से अच्छा संकेत नहीं है। किसी लोकप्रिय नेता का अहंकार भी जनतंत्र की मूल भावना के विपरीत ही होता है।
दस साल पहले जब भाजपा सत्ता में आयी थी तो उसने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा दिया था। इस नारे में कहीं कुछ ग़लत नहीं था। लेकिन जब किसी एक राजनीतिक दल से मुक्ति के बजाय समूचे विपक्ष से मुक्त जनतंत्र की बात कही जाती है, अथवा इसके प्रयास होते दिखते हैं तो सत्तारूढ़ पक्ष की मंशा पर शक होना स्वाभाविक है। मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी, राज्यपालों द्वारा विपक्षी सरकारों के काम में अड़ंगा डालना, दल- बदल के लिए लालच देना, विपक्ष को काम न करने देना जैसे उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि जनतंत्र की मूल भावना पर आघात हो रहे हैं। यह आने वाले खतरों का संकेत है। जनतंत्र चुनाव से चुनाव तक की प्रक्रिया का नाम नहीं है। चुनाव समय पर हों, यह एक शर्त है स्वस्थ जनतंत्र की, लेकिन एकमात्र शर्त नहीं। स्वस्थ और समर्थ जनतंत्र का तकाज़ा है कि जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हो। जैसे न्याय होना ही नहीं, होते हुए दिखना भी चाहिए, वैसे ही जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान का भाव भी सम्मान किये जाने की प्रक्रिया के होते हुए दिखने की भी अपेक्षा करता है। आज जो कुछ हो रहा है उसे देखते हुए इस खतरे की आशंका स्वाभाविक है कि कहीं हम चुनावी एकाधिकारवाद की तरफ तो नहीं बढ़ रहे?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।