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लंबे युद्ध के बजाय युक्तिपूर्ण प्रहार की रणनीति

ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तानी सेना ने अपने देश की जनता को बताने के लिए जीत की झूठी कहानियां प्रचारित की। जबकि हकीकत यह कि भारत ने आधुनिक सामरिक सिद्धांत के तहत इस अभियान में कम समय में लक्षित परिणाम...
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ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तानी सेना ने अपने देश की जनता को बताने के लिए जीत की झूठी कहानियां प्रचारित की। जबकि हकीकत यह कि भारत ने आधुनिक सामरिक सिद्धांत के तहत इस अभियान में कम समय में लक्षित परिणाम हासिल किए यानी युद्ध लंबा खींचने के बजाय युक्तिपूर्ण प्रहार। संयुक्त वायु रक्षा प्रदर्शन उत्कृष्ट था - सटीक आकलन और समन्वय के साथ। इस तरह भारत ने युद्ध से पहले ही जंग जीत ली।

ले. जन. एसएस मेहता (अ.प्रा.)

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ऑपरेशन सिंदूर के बाद दावों और जवाबी दावों के भंवर में, सच्चाई को चुपचाप किनारे सरका दिया गया है। पाकिस्तानी भारतीय विमानों को गिराए जाने और वीरतापूर्ण प्रतिरोध की कहानियों का खूब ढिंढोरा पीट रहे हैं। उसकी सेना द्वारा संचालित मीडिया तंत्र–जिसको मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाने में महारत है - ने तथाकथित जीत की कहानियां गढ़ी हैं। फिर हुई भव्य तमाशेबाजी। जनरल असीम मुनीर को पदोन्नत कर फील्ड मार्शल बना दिया गया। पहलगाम हमले को हरी झंडी दिखाने का इनाम। जिसे वे अपने कंधों पर लिए फिर रहे हैं।

लेकिन यहां मूल वास्तविकता है : यह अभियान युद्ध को लंबा खींचने के लिए नहीं बल्कि युक्तिपूर्ण प्रहार था,जिसने सीधा उद्देश्य दुश्मन के इरादों को निशाना बनाना था। इससे पहले कि असली लड़ाई शुरू होती, पाकिस्तान ने शांति की गुहार लगा दी। जब-जब आतंकी चालबाज़ियों के परिणाम सामने आने लगते हैं, तब-तब पाकिस्तान खुद एक तमाशा बनकर रह जाता है- मिसाइलें उसकी नष्ट हो गईं, जेट विमान गिरा दिए गए, वीरता का अता-पता तक नहीं। ये भ्रम एक ऐसे जनसमूह के लिए गढ़े गए हैं, जो लंबे समय से सेना के नियंत्रण वाले देश के बंधक हैं।

असलियत यह है कि भारतीय क्षेत्र पर हुए हमलों को ऐन वक्त पर निष्फल कर दिया गया। हमारी संयुक्त वायु रक्षा कारगुजारी का प्रदर्शन सर्वोच्च उत्कृष्टतापूर्ण रहा–सटीक गणना, मिलजुलकर और समन्वय से किया अभियान। यह संदेश उन लोगों के दिमाग पर छप जाना चाहिए, जो हवाई दुस्साहस का सपना देख रहे हैं। युद्ध हैशटैग ट्रेंड करवाकर या राष्ट्रीय झंडों में लिपटे आतंकवादियों को राजकीय अंतिम संस्कार का सम्मान देकर नहीं जीते जाते। वे तब जीते जाते हैं जब दुश्मन के मुख्य बुनियादी ढांचे पर हमला हो – जैसे कि एक सटीक प्रहार में 11 पाकिस्तानी वायुसेना अड्डे अंधेरे में डूब गए। तब पर्दे के पीछे की गतिविधियां सक्रिय करनी पड़ गई। ताकत के कारण नहीं, बल्कि 'आगे क्या होगा?' के डर से। जैसा कि सीडीएस अनिल चौहान ने कहा, हमने परमाणु जंग पर भड़काऊ बयान नहीं दिये, धमकियां नहीं दी - कोई नागरिक हताहत नहीं हुआ। प्रहारों को आबादी वाले इलाके से दूर रखा,लेकिन सैन्य हवाई अड्डों, गोदामों और लॉन्च पैड पर सटीकता से वार किया गया। तब पाकिस्तान के डीजीएमओ ने संपर्क किया - वैश्विक दबाव में नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि भारत ने युद्ध के नियम बदल दिए हैं।

अब नया सैन्य सिद्धांत चल रहा है। जरूरी नहीं कोई रणनीति दुश्मन के साथ पहली ही झड़प में सफल हो। ऑपरेशन सिंदूर भी इस मायने में अलग नहीं। लेकिन इसके बाद रणनीति में सुधार तत्काल किए गए। परिचालन प्रतिक्रियाओं के लिए विभिन्न कमानों के बीच समन्वय की आवश्यकता थी। रणनीतिक पुनर्संतुलन को स्पष्टता और गति की दरकार थी। ऑपरेशन सिंदूर ने इन तीनों को कर दिखाया। अग्रिम सीमा से लेकर एयरबेस तक और उच्चतम सैन्य स्तर तक, प्रत्येक मंच और कमान स्तर पर सुसंगतता और नियंत्रण के साथ काम करके।

जहां भारत वास्तविक समय में पुनर्संतुलन बनाने में लगा था वहीं विरोधी अपनी छद्म जीत की घोषणा करने के लिए दौड़ पड़ा- आंशिक तथ्यों पर आधारित जीत के दावे, जिन्हें आगे बढ़ा-चढ़ाकर कई मंचों ने प्रचारित किया। प्रभुत्व के दावेे के कुछ घंटों के भीतर, पाक ने 11 हवाई अड्डों की परिचालन क्षमता खो दी। बड़बोलेपन की जगह चुप्पी ने ले ली। ऑपरेशन सिंदूर ने दिखा दिया कि 21वीं सदी के सैन्य सिद्धांतों का लक्ष्य क्या होना चाहिए। कम लागत, उच्च प्रभाव वाले परिणाम, जो युद्ध के विस्तारित होने से पहले रुक जाएं। यह ऑपरेशन संतुलित प्रतिरोधक उपायों का एक सबक बन गया।

संघर्ष समाप्ति का भारतीय मॉडल : आधुनिक काल की लड़ाइयों में देखने में आया कि युद्ध शुरू तो आसानी से हो गए - लेकिन शायद ही कभी कोई जल्द समाप्त हुआ हो। वियतनाम व इराक में काफी देर चला, अफ़गानिस्तान में दशकों तक खिंचा और दर्प चूर-चूर हुआ। रूस-यूक्रेन घिसटता जा रहा है। गाजा शायद लाइलाज नासूर बन गया हैै। महाशक्तियां हवाई श्रेष्ठता में बेशक हावी हैं - लेकिन युद्ध समाप्त करने में विफल रही हैं। जबकि भारत ने ऐसा दो बार कर दिखाया है। साल 1971 में, जब ढाका में तगड़ी किलेबंदी युक्त 30,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने 3,000 भारतीय सैनिकों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। पाकिस्तान ने मात्र 13 दिनों में हथियार फेंक दिए। नब्बे हज़ार से अधिक युद्धबंदी बनाए गए। यह सैन्य साजो-सामान पर मानसिक दृढ़ता की जीत थी – लड़ाई लंबी खींचने की बजाय युक्तिपूर्ण प्रहार।

अब 2025 में, ऑपरेशन सिंदूर - जिसे 88 घंटों में अंजाम दिया गया - उद्देश्य था संघर्ष जल्द खत्म करना : रणक्षेत्र में दुश्मन पर हावी होना। भारत ने वांछित परिणाम लागू किए और फिर संयम चुना।

भारत ने युद्ध को विस्तारित होने से रोका क्योंकि पाकिस्तान की अस्थिरता जानबूझकर निर्मित है - न कि आकस्मिक। वर्षों से पाकिस्तान में अस्थिरता को औजार के रूप में बरता जाता है। पाकिस्तान का संरक्षक बने चीन को फायदा इसमें है कि भारत लगातार प्रतिक्रियात्मक मुद्रा में उलझा रहे। भारत का ध्यान भटके रहना चीन के रणनीतिक उद्देश्यों के माफिक है । वहीं पाकिस्तान के दोगलेपन को लंबे समय से स्वीकार करने के बावजूद, अमेरिका अभी भी उसे अपनी सेना के लिए एक उपयोगी माध्यम के रूप में देखता है– चाहे यह इलाकाई फायदा हो या खनिजों अथवा अफगानिस्तान तक पहुंच बनाए रखने लिए। बहुपक्षीय संस्थान और पश्चिमी प्रेस के कुछ हिस्से का भी इसमें हित जुड़ा है।

खुद अस्थिरता को पाेसने वाली पाकिस्तानी सेना पीड़ित होने का दिखावा करती है- और दुनिया, सब कुछ जानते हुए भी, उसका साथ देती है। इस वैश्विक रंगमंच पर, पाकिस्तान एक कठपुतली बना है - न केवल आतंक के लिए, बल्कि लेन-देन की कूटनीति के लिए भी। और भारत, बहुत लंबे समय से अकेले ही इसकी कीमत चुकाता रहा। ऑपरेशन सिंदूर ने इसे बदल दिया है। शोर मचाकर नहीं, बल्कि कर दिखाया है। भारत कठपुतलियों से बात नहीं करना चाहेगा। लेकिन पाकिस्तान के लोगों के पास विकल्प है कि खुद को इस्तेमाल किए जाने से इनकार करें। ईमानदार शासन की शुरुआत नागरिकों द्वारा अपनी सेना को यह जतलाने से होगी : ‘शासन नहीं सेवा करो, तोड़ो नहीं सबको जोड़ो’।

भारतीय सिद्धांत है स्पष्टता, न कि विजय। भारत का यह रणनीतिक दृष्टिकोण समय के साथ विकसित हुआ है। अब हम प्रतिक्रियात्मक नहीं रहे, निरोधक प्रतिक्रिया करने लगे हैं - सटीक, आनुपातिक और उद्देश्यपूर्ण ढंग से। ऑपरेशन सिंदूर एक परिपक्व सिद्धांत को दर्शाता है - फालतू खूनखराबा नहीं, फिर भी विरोधी के व्यवहार को बदलने लायक जरूरी। तमाशेबाजी नहीं, फिर भी रावलपिंडी के सेना मुख्यालय को झटका देने के लिए काफी। लड़ाई जो लड़ने से पहले ही जीत ली जाए। यह विवेकपूर्ण शक्ति-प्रदर्शन है। जब विरोधी आपकी चालों का अनुमान न लगा पाएं, और सहयोगी भी केवल अंदाजा ही कर पाएं, तब एक नया संतुलन उभरता है – एक ऐसा जिसमें भारत मुखर बना है, तथापि अपने मूल्यों से जुड़ा हुआ। ऑपरेशन सिंदूर युद्धक मंचों या बमबारी के बारे में नहीं था। यह स्पष्टता, पहल और नियंत्रण के संदर्भ में था। एक ऐसी दुनिया में, जहां युद्ध लंबे समय तक खिंच जाते हैं– जिनकी क्रूर कीमत नागरिकों- पुरुष, महिलाओं और बच्चों-को चुकानी पड़ती है - भारत ने एक अलग मॉडल पेश किया है : लंबी लड़ाई की जगह युक्तिपूर्ण सीमित प्रहार। जहां दूसरे थकने की हद तक लड़ते रहते हैं, हमने समाप्ति के लिए काम किया।

रिकॉर्ड गवाह है कि भारत ने युद्ध से पहले ही युद्ध जीत लिया। जबकि दुनिया के देश देखते रह गए, कुछ घबराए हुए, बाकी जानते हुए। लेकिन निर्विवाद रूप से अब सब को पता चल चुका है।

लेखक थलसेना की पश्चिमी कमान के कमांडर रहे हैं और पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।

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