देविंदर शर्मा
जैसी कि उम्मीद थी, श्रीलंका सरकार द्वारा जैविक खेती अपनाने के क्रांतिकारी निर्णय पर विवाद खड़ा होना लाज़िमी था। वही पुरानी दलीलें, भयाक्रांत करने, सिद्धांत विशेष का वास्ता देकर बताया गया कि यह कदम कृषि में दुनिया को फिर से पीछे ले जाने वाला है। बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में फंसी कृषि-औद्योगिकी के शक्ति-संतुलन को जब भी चुनौती मिलने की कोई संभावना बनती है तो यही पुराना राग अलापा जाने लगता है।
इससे पहले कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य व्यवस्था शिखर सम्मेलन विश्व के लिए एक बेहतर स्वास्थ्यप्रद, ज्यादा टिकाऊ और अधिक न्यायसंगत खाद्य व्यवस्था को मान्यता दे, श्रीलंका ने कुछ महीने पहले ही साहसिक निर्णय लेकर कृषि-पारिस्थितिकीय सिद्धांत को मूर्त रूप देते हुए 6 मई को एक गजटीय अध्यादेश के जरिए देश में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे पहले सरकार ने पाम ऑयल के आयात पर भी प्रतिबंध लगा दिया था और किसानों को मौजूदा पाम वृक्ष चरणबद्ध ढंग से उखाड़ने का आदेश देकर खेती के भविष्य को स्वास्थ्यप्रद और टिकाऊ बनाने वाला परिवर्तन कर दिखाया है।
न्यूयॉर्क में 22 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र के आम सत्र को संबोधित करते हुए श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने कहा ‘पर्यावरणीय अक्षुण्ण बनाना श्रीलंका की राष्ट्रीय नीति ढांचे का मुख्य स्तंभ है। चूंकि मिट्टी की प्रजनन शक्ति, जैव विविधता, जलस्रोत एवं स्वास्थ्य पर बुरा असर हो रहा था, इस वजह से मेरी सरकार ने साल के शुरू में रासायनिक खाद, कीट एवं खरपतवार नाशकों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने का फैसला ले लिया था।’ उन्होंने आगे कहाः ‘जैविक खाद अपनाने के अलावा जैव-कृषि में निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहनपरक बनाया गया है।’
वह देश जिसके सिर पर पहले से बहुत भारी विदेशी कर्ज का बोझ है और सालाना आमदनी का लगभग 80 फीसदी ऋण-सूद अदायगी में खप रहा हो और ठीक इसी समय भारी खाद्य किल्लत से भी जूझ रहा हो, इसके बावजूद श्रीलंकाई राष्ट्रपति उन लोगों की परवाह न करते हुए अपने निर्णय अडिग हैं, जो जैविक कृषि चुनने से उपज में गिरावट से बनने वाली खाद्य-असुरक्षा के नाम पर भय दिखा रहे हैं। यह प्रसंग मुझे इस किस्म के अन्य दबाव की याद दिलाता है, जब इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुहार्तो ने 1980 के दशक के अंत में अध्यादेश जारी कर एक झटके में धान पर इस्तेमाल होने वाले 57 रासायनिक कीटनाशकों को प्रतिबंधित कर दिया था। यह आदेश धान पर भूरे टिड्डे के अभूतपूर्व हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप था। अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान और संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की सलाह पर अमल करते राष्ट्रपति सुहार्तो ने तब एकीकृत धान कीट निदान कार्यक्रम शुरू किया था।
श्रीलंका में ऐसा आभास पैदा किया जा रहा है कि मानो देश में बना खाद्य संकट जैविक खेती की तरफ मुड़ने से बना है। लेकिन यह बात गलत है और रसायन उद्योग द्वारा फैलाया जा रहा एक दुष्प्रचार है। वास्तव में, रासायनिक खादों पर प्रतिबंध का फैसला मई महीने की शुरुआत से प्रभावी हुआ था, उसके बाद से याला नामक एक फसल चक्र, जिसकी बुवाई मई माह में और कटाई अगस्त महीने में होती है, आ चुका है, लेकिन इससे पहले कि उपज मंडी में आती, उत्पादन में कमी की हवा फैला दी गई। जबकि होता यह है कि रासायनिक खाद का इस्तेमाल बंद करने के दूसरे और तीसरे वर्ष में जाकर, स्थिरता प्राप्त करने से पहले, उत्पादन में कुछ कमी आती है और उसके बाद धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। किसी भी सूरत में, रसायन आधारित सघन खेती व्यवस्था अपने पीछे जो अतिरिक्त दुष्प्रभाव छोड़कर जाती है, उसकी कीमत समाज को जरूर चुकानी पड़ती है। उदाहरणार्थ, देश के उत्तरी क्षेत्र की धान पैदावार पट्टी में गावों के गरीब तबके में बड़ी संख्या में गुर्दे खराब होने के मामले आए हैं। बहुतों का मानना है कि इसका संबंध रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से है, जबकि अनेक विशेषज्ञ ऐसी किसी संभावना को खारिज करते हैं।
‘द इंडिपेंडेंट’ के मुताबिक पिछले 20 सालों में गुर्दे की बीमारी गंभीर बनने से 20000 से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई है और 4 लाख से अधिक बीमार पड़े हैं। चाय उत्पादन के मामले में, जिसका स्थान श्रीलंकाई निर्यात में दूसरा है, वहां भी जैविक राह चुनने से उत्पादन में कमी का हौवा खड़ा किया जा रहा है जबकि पहले ही चाय की उपज में काफी कमी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमान के मुताबिक पिछले दशक से चाय की पैदावार लगातार गिर रही है और अधिकांश बागानों में यह मात्रा 400 किलो प्रति एकड़ से घटकर 350 किलो रह गई है, तो कुछ जगह 150 किलो तक पहुंच गई है। लगभग 75 फीसदी चाय बागान मालिक छोटे हैं, उत्पादन घटने के पीछे मिट्टी की उर्वरता में हुआ ह्रास मुख्य कारणों में से एक है। पूरी तरह से जैविक खेती अपनाने का लाभ यह रहेगा कि आने वाले सालों में खेती में समुचित कृषि-पर्यावरण मित्र तरीके लागू करने से श्रीलंका का मिट्टी-स्वास्थ्य पुनः बन जाएगा, जिससे चाय के पौधों में नवजीवन संचारित होगा। जैविक उत्पाद का लेबल लगने पर तब श्रीलंकाई चाय वैश्विक बाजार में अपने लिए विशिष्ट जगह बना लेगी। इस सोच के साथ कि विश्व में जैविक खाद्य पदार्थों की मांग हर साल बढ़ने जा रही है। श्रीलंका ने पहल करके खुद को फायदेमंद स्थिति में रख लिया है, बशर्ते परिवर्तन की राह बताने में सही कदम उठाए जाएं।
श्रीलंका के सामने अगली चुनौती है अपने अनुसंधान, विकास और उत्पादन के तरीकों में बदलाव लाने की। इसका आगाज सबसे पहले राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान कार्यक्रम के शैक्षणिक पाठ्यक्रम में समुचित बदलाव लाकर किया जाए। अनुसंधान वरीयता में सामुदायिक ज्ञान और नयी खोज को मान्यता देने और बचाने पर आधारित कर बदलाव लाना होगा। उपलब्ध रिवायती और विविधता समृद्ध पौधों की किस्में मौसम में आए बदलावों की वजह से बनी जटिलताओं के प्रति विशेष रूप से सहनशील होती हैं। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि रूपांतरण प्रक्रिया भागीदारी वाली हो, कृषकों पर जबरदस्ती दीर्घकाल में कारगर नहीं होगी।
वे सब, जिनको यह शंका है कि कृषि-पारिस्थिकीय पद्धति, जिसमें जैविक, प्राकृतिक और जैव-गतिज खेती व्यवस्था इत्यादि शामिल हैं, क्या दुनिया का पेट भरने में सक्षम होगी। यदि उत्तर हां में है तो फिर इस खाद्य व्यवस्था के नये स्वरूप की प्राप्ति कैसे संभव है। इसके लिए वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संस्थान के खाद्य सुरक्षा एवं पौष्टिकता पर उच्च स्तरीय विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट ने तफसील से रास्ते सुझाए हैं। इसमें रफाएल डी’एनायोफ्लो और साथियों द्वारा किए गए अतिरिक्त-विश्लेषण (2017) का जिक्र भी आता है। जिसके मुताबिक निर्णायक रूप से बताया गया है कि कृषि-पारिस्थितिकीय व्यवस्था अपनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद है। विश्लेषित किए गए मामलों में 61 फीसदी में फसल उत्पादन में वृद्धि हुई है तो 20 प्रतिशत में घटी है, जबकि 66 फीसदी मामलों में कृषि मुनाफा बढ़ा है। अकेले अपने दम पर खड़े होने के लिए साहस चाहिए होता है और यह तभी आता है जब आपको किसी बात पर पूरा यकीन हो। जिस कदर राजपक्षे ने अपनी नियति जैविक खेती से जोड़ी है, हो सकता है वह दुनिया के लिए जैविक कृषि के भविष्य का दरवाज़ा खोल दे।
लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।