गुरबचन जगत
राज-व्यवस्था का मूल कर्तव्य नागरिकों की जान व माल की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। जब कोई सरकार यह मूलभूत न्याय नहीं दे सकती तो शासन करने का हक गंवा बैठती है। कहां है न्याय, जब नागरिकों को अपने परिजनों की लाश ले जाने और अंतिम संस्कार की बारी पाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़े? कहां है न्याय जब लोगों को मामूली प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं तक नहीं मिल पा रही? उन ईएसआई अस्पतालों का क्या हुआ, जिनको चलाने के लिए व्यवसायी अंशदान देते हैं? उन तमाम स्वास्थ्य योजनाओं और बीमा पॉलिसियों का क्या हुआ, जिनका प्रीमियम नागरिक अपनी गाढ़ी कमाई से भरते हैं? बहुतों को तो अस्पतालों में भर्ती तक नहीं नसीब हुई, इलाज के पैसे वापस मिलना तो भूल ही जाएं। बहरहाल, जिनकी जानें स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में गईं, उनको पैसा नहीं बल्कि न्याय चाहिए। जी हां उन सबको न्याय चाहिए जो गुजर गए या पीछे रह गए। सच को झूठ के आवरण से छुपाया नहीं जा सकता– यह सड़कों पर पसरा पड़ा है, सबकी आंखों के सामने। हमारे नेतृत्व का प्रपंच बेनकाब हो गया है और उतर चुका है मायाजाल का वह पर्दा जो हमारी आंखों पर डालकर भरमाते रहे।
उद्वेलित करती उपरोक्त पंक्तियां लिखने के लिए मुझे समाचार पत्र ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ के 8 मई के अंक के मुखपृष्ठ पर छपी वित्त मंत्रालय की अप्रैल माह की समीक्षा ने उकसाया है, जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर दावा किया गया था कि कोविड की दूसरी लहर का ‘देश की आर्थिकी पर बहुत कम असर पड़ेगा’ हो सकता है यह दावा करने वाले अपने बनाए जिस संसार में रहते हैं, वहां यह सही बैठता हो। लेकिन इसके लिए अलग ही दुनिया चाहिए जहां कोरोना और इसका बरपाया कहर नदारद हो। जब देशभर में हमारे चारों तरफ मौत का नाच और बर्बादी का तांडव मचा है, जहां महामारी हमारी जानें और आर्थिकी लील रही है, ऐसे में कोई समझदार व्यक्ति ऐसा बयान दे कैसे सकता है? जबकि भरोसेमंद अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां हमारे आर्थिक विकास की संभावित दर को लगातार घटा रही हैं।
महामारी को लेकर हमारी सरकार की पहली प्रतिक्रिया एकदम डोनाल्ड ट्रंप के अंदाज वाली थी-नज़रअंदाज़ करो। हालांकि इसका खमियाजा राष्ट्रीय लॉकडाउन के रूप में देना पड़ा, जिसने मजदूर वर्ग और राष्ट्रीय आर्थिकी की कमर तोड़ डाली। आगे जब महामारी की चाल में कुछ सुस्ती आई तो हमारे केंद्रीय नेतृत्व ने इस पर पार पा लेने का विजयघोष कर डाला और दमगज़े मारे कि हमने अपने गतिशील आपदा प्रबंधन से विश्व को दिखा दिया है कि महामारी को कैसे हराया जाता है। मायने अब भारत विश्व गुरु बन चुका है। महामारी को छोटी-मोटी समस्या जानकर देश का सर्वोच्च नेतृत्व बंगाल के चुनावी संग्राम को जीवन-मरण का प्रश्न बनाकर कुछ इस तरह कूद पड़ा, मानो यह लड़ाई महामारी से ज्यादा बड़ी है। दूसरी लहर आने की तमाम चेतावनियों को अनसुना कर किया गया। समय रहते कोई ऐसा नियंत्रण केंद्र नहीं बनाया गया जहां से देश में महामारी की वास्तविक स्थिति को लेकर निगरानी रखी जाती, न तो कोई आपदा प्रबंधन दल तैयार किया गया, न ही अस्पताल, बिस्तर, आईसीयू वार्ड, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन, वैक्सीन, एम्बुलेंस इत्यादि की संख्या बढ़ाने का प्रबंध करने हेतु खरीदारी की गई। मानो कोविड को खत्म हुआ जान फाइल बंद कर डाली।
दूसरी ओर, बंगाल की चुनावी रणभूमि में 200 से ज्यादा सीटें पाने की हसरत संजोए केंद्रीय नेतृत्व ताबड़तोड़ बड़ी-बड़ी रैलियां करने में व्यस्त रहा, बिना यह विचार करे कि यही सुपर स्प्रेडर (अत्यंत संक्रामक) बनेंगी। इसके अलावा कुंभ का मेला भी होने दिया गया, जिसमें दसियों लाख लोग अपने ‘पाप धोने या मोक्ष पाने’ को जुटे। यह आयोजन भी सुपर स्प्रेडर बना, लेकिन किसे परवाह जब सारा ध्यान बंगाल जीतने पर लगा हो। इसी बीच वायरस मानो बदला निकालने को फिर से अपने पंजे-नाखून तीखे करने में लगा रहा। राज्य-दर-राज्य कोविड के नये मामले उत्तरोतर बढ़ने लगे लेकिन ‘दीदी… ओ दीदी’ की रट लगाने वालों ने न तो महामारी की हकीकत पर ध्यान दिया, न ही सबके लिए सम्माननीय ‘दीदी’ शब्द की गरिमा रखी बल्कि इसको कटाक्ष का संबोधन बना डाला। इसी बीच कोविड के यथार्थ ने रंग दिखाना शुरू किया और विश्वभर ने संज्ञान लिया। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भारत में आई इस नयी लहर को प्रलयंकारी और केंद्रीय नेतृत्व के प्रबंधन इंतजामों में कमियों को हिमालयी चूक बताया। कुछ दिनों में तमाम सूबों में अस्पताल ऑक्सीजन, आईसीयू बिस्तर, वेंटिलेटर, वैक्सीन के लिए त्राहि-त्राहि होने लगी। संक्षेप में, लोगों की मदद को जो कुछ भी चाहिए था, वह कम पड़ गया। लेकिन समय रहते न कोई रिजर्व भंडार बनाया गया, न ही क्रय आदेश दिया गया, स्वास्थ्य सुविधाओं में काम आने वाले अवयवों का उत्पादन भी नहीं बढ़ाया, क्योंकि हम तो यह समझ बैठ गए थे कि महामारी अतीत की बात है। लिहाजा, हमें फिर उन दिनों में लौटना पड़ा जब भारत को पेट भरने को गेहूं मांगकर खाना पड़ता था, फिर से सभी देशों से मदद को कटोरा उठा लिया, फिर राहत किसी भी रूप में हो। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन विश्व के देश मदद को आगे आने लगे। इसमें समय इसलिए लगा क्योंकि हमारे नेतागण महामारी पर विजय पाने का डंका पीट चुके थे। इसमें ज्यादातर राहत सामग्री दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरी लेकिन हवाई अड्डे से गंतव्य तक पहुंचाने के माकूल इंतजाम नाममात्र के उपलब्ध थे। प्रबंधन के लिए न तो कोई कंट्रोल रूम था, न ही आने वाली सहायता सामग्री का हिसाब-किताब रखने की व्यवस्था, न ही सामग्री का पूरा ब्योरा रखा गया, न ही त्वरित डिलीवरी हेतु वाहनों को इकट्ठा किया गया। यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में हुई प्रेस वार्ता के दौरान भारत सरकार द्वारा राहत सामग्री आवंटन में कमियों पर सवाल उठ खड़े हुए। कुप्रबंधन वाली अपारदर्शी प्रक्रिया पर संशय पैदा होना लाजिमी है, क्योंकि राज्यों और राहत एजेंसियों तक को इल्म नहीं है कि क्या और कितना आ रहा या कहां भेजा जा रहा है।
उपचार सामग्री की भारी किल्लत से जूझ रहे सूबों में मांग करने को मानो होड़ मच गई, लेकिन दिल्ली में कोई नहीं था जो किसी व्यावहारिक फार्मूले के मुताबिक उन्हें राहत साम्रगी आवंटित करे या अंतर्राष्ट्रीय सहायता और घरेलू स्रोतों के बीच समन्वय बिठवाए। फिर से, यहां राजनीति हुई, पक्षपात करने के आरोप-प्रत्यारोप जमकर लगे। किसी को नहीं मालूम कि आपदा प्रबंधन बल ने अपने और अन्य विभागों के कौन से स्रोतों को राहत कार्य में लगाया है। सेना को फील्ड अस्पताल बनाने के काम में क्यों नहीं लगाया गया, जैसा कि वर्ष 2001 में भुज में आए भूकंप के समय हुआ था। जब इस्राइली सेना ने हमारे यहां 24 घंटे में वह फील्ड अस्पताल बना डाला, जहां मामूली उपचार से लेकर हृदय रोग जैसे जटिल इलाज करना संभव है, और इसके लिए उन्होंने हमसे सिवाय जमीन का टुकड़ा लेने के, एक छोटी-सी चीज भी नहीं मांगी। हमें भी तो ऐसा करना चाहिए था, हमारे पास भी पर्याप्त श्रमिक, विशेषज्ञ, संस्थान हैं, लेकिन उन्हें आजादी से काम करने और फलने-फूलने दें, तब न। हमारे मुल्क में क्रिकेट से लेकर महामारी प्रबंधन तक, सब कुछ राजनीतिपरक है और राजनीति सिरे से भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार ने हमारी व्यवस्था के प्रत्येक अंग को दूषित कर दिया है और हर गुजरते साल के साथ यह बुराई बढ़ती जा रही है।
जब कोविड की दूसरी लहर ने बुरी तरह कहर बरपाना शुरू कर दिया, तो केंद्रीय नेतृत्व और इसके विभिन्न विभाग पहले तो हकीकत को नकारते रहे या फिर ऊलजलूल आदेशों में उलझे रहे। अंत में अपने ब्रह्मास्त्र यानी ‘सब कुछ बंद कर दो’ चलाने पर उतर आए। हे माननीय… आप सबको मुबारक हो, आपने आग बुझाने के फेर में बहुत बढ़िया कर दिखाया है। लेकिन क्या इस पर विचार करेंगे कि यह आग भी आपकी ही लगाई हुई है, जब मेले-कुंभ-राजनीतिक रैलियों जैसे सुपर स्प्रेडर आयोजन होने दिए। आपने लॉकडाउन से बनने वाली बेरोजगारी, भूख, स्कूल फीस, किश्तें, किराया, तनख्वाहों जैसे सूक्ष्म किंतु अति आवश्यक अवयवों को नजरअंदाज किया है… मानो यह फिक्र करने लायक विषय ही नहीं है, तिस पर तुर्रा कि ‘आर्थिकी पर असर बहुत कम रहेगा।’ सब कुछ बंद कर देना आसान है, राजनेता और नौकरशाह अपने हाथ में ऐसी शक्ति होने का गर्व करते हैं। नेतृत्व, किसी भी स्तर का हो, उसकी परिभाषा समाज को देने की क्षमता से बनती है, न कि वापस लेने से। इस प्रकार के व्यक्तित्व के दर्शन हमें गांधी, मंडेला, लिंकन जैसी महान शख्सियतों में होते हैं। उनके नेतृत्व ने शांति, मदद, न्याय प्रदान किया था-लेकिन आपके पास देने को है तो केवल पीड़ा, तिस पर व्यक्ति की आजादी और अभिव्यक्ति को इस तरह छीन लिया है कि बड़े से बड़ा तानाशाह शरमा जाए।
राज-व्यवस्था से सवाल है :-
उन सभी लोगों को क्या दिया, जिनकी नौकरी और आमदनी लॉकडाउन से चली गई?
तमाम छोटे व्यवसायियों को क्या दिया, जिनका काम-धंधा चौपट हो गया और आत्मनिर्भर परिवार अब पैसे-पैसे को तरसने लगे हैं।
स्वरोजगार पेशेवर, जैसे कि वकील, अकांउटेंट, नाई, रसोइए, सेल्समैन, अध्यापक… सूची लंबी है, इनको राहत के रूप में क्या दिया गया?
उन छात्रों के क्या मिला जो फोन के माध्यम से पढ़ाई जारी रखने का यत्न कर रहे हैं?
तो इन सबका उतर है—शून्य।
फेहरिस्त लंबी है, लेकिन शासक अपने लिए विस्टा जैसे आलीशान भवन, लग्जरी हवाई जहाज, चुनावी प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहाना, योजनाओं के प्रचार के लिए धुआंधार विज्ञापन और आम आदमी को मूर्ख बनाने वाली अगली योजनाओं में व्यस्त हैं। लेकिन आप मृतक और मरणासन्न को बेवकूफ कैसे बनाएंगे, उन लोगों को कैसे बहलाएंगे, जिनके परिजन व्यवस्था की कमी की वजह से इस महामारी की भेंट चढ़ गए? मैं उम्मीद करता हूं कि सेंट्रल विस्टा, यदि पूरा हो गया तो यह और कुछ नहीं बल्कि महात्रासदी के दौरान देश के नेतृत्व की गलत तरजीहों का विद्रूप स्मारक होगा। यह देशवासियों को याद दिलवाता रहेगा कि हमारे नेताओं को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।
क्या गंगा को स्वच्छ भारत अभियान के तहत साफ किया जा सका? तो इसका उत्तर, गंगा में फूलकर तैरते वह शव जो कभी मानव हुआ करते थे, इस भयावह दृश्य में छिपा है। कदाचित मृत रूहों को गंगा मईया की गोद में कुछ राहत मिली हो, जो उन्हें जीते जी नहीं मिल पाई।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं।