पिछले कुछ समय से टेलीविजन पर आने वाली खबरें देखनी बंद कर दी हैं, खासकर ‘प्राइम टाइम’ की पैनल बहस। कुछ अपवादों को छोड़कर यह तथाकथित दलीलें अत्यधिक शोर-शराबे वाली और तेजाबी होती हैं। तथ्य तो यह है कि नैतिक और बौद्धिक रूप से अधकचरे स्टार एंकर्स और विभिन्न राजनीतिक दलों से आए आक्रामक प्रवक्ताओं के बीच चलने वाले संवाद, जो जरूरी नहीं कल्पनाशील और आकलनकारी हों, असल में बड़े पैमाने पर मानसिक हिंसा पैदा करने का कारक हैं।
शायद ही इन दिनों हमें कभी अर्थपूर्ण विचार-विमर्श देखने को मिलता हो, जिसमें विचारों की सुस्पष्टता, दूसरों को सुनने का माद्दा या सभ्यतापूर्ण धीरज बनाए रखा जाता हो। इसकी बजाय जहरबुझे शब्द, व्यक्तिगत तंज और ढर्रे के प्रत्यारोप देखने को मिलते हैं। मसलन अगर कांग्रेस राफेल के मुद्दे को उठाएगी तो भाजपा का प्रवक्ता बिना देर किए बोफोर्स रिश्वत कांड का जिक्र बीच में ले आएगा, यदि कांग्रेस गुजरात दंगों की बात करेगी तो भाजपा 1984 के सिख नरसंहार को याद दिलाना नहीं भूलती। इससे बात किसी मुकाम पर नहीं पहुंचती। इस वाद-विवाद से धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद और विकास पर हमारी समझ में कोई इजाफा नहीं होता। टीवी पर ऐसे कार्यक्रम देखते हुए लोग केवल बनावटी संस्कृति एवं मनोवैज्ञानिक उत्तेजना का हिस्सा बन रहे हैं। यानी मानसिक रूप से बीमार हो चुके हैं।
बाज दफा जहरीले बोलों से पैदा हुआ उग्र मानसिक उद्वेग जानलेवा भी बन सकता है और खुद प्रवक्ता तक इसके शिकार बन सकते हैं, भले ही वे खुद भी इस संस्कृति के वाहक होते हैं। उदाहरणार्थ हाल ही में एक टेलीविजन बहस में कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी को भाजपा के संबित पात्रा से गर्मागर्म वाद-विवाद के बाद दिल का दौरा पड़ा था और उनकी अकाल मौत हो गई। इस वाकये ने टेलीविजन जनित उस दुष्टता पर नया विमर्श छेड़ दिया है, जिसका पोषण इन दिनों किया जा रहा है। टेलीविजन पर आने वाली बहसों और राजीव त्यागी की मौत के बीच संबंध को कोई कैसे रफा-दफा कर सकता है? तथापि, इस प्रसंग ने जिस तथ्य को पुनः याद दिलाया है, वह मीडिया से उपजती हिंसक संस्कृति की तीव्रता से बनने वाले नतीजों का साक्षात संकेत है और यह भी कि इनसान को किस कदर मानसिक आघात हो सकता है। बतौर सजग नागरिक हमें इस विद्रूपता का संज्ञान लेते हुए विरोध करना होगा ताकि सार्वजनिक संचार माध्यमों पर शालीनता बनी रह सके।
हमें यह भी इल्म है कि इस तरह का मछली बाजार सजाने वाले ज्यादातर न्यूज चैनलों की रुचि वैसी खबरें प्रसारित करने में सचमुच नहीं है जो एक जीते-जागते प्रजातंत्र के विकास के लिए अत्यंत जरूरी हैं। नवउदारवादी अर्थतंत्र के तर्कों में किसी भी हीले-हवाले मुनाफा कमाने की यंत्रवत जहनियत निहित रहती है, सत्तारूढ़ सरकार से नजदीकी बनने का फायदा, वह ऐसे समय में जब विरोध की आवाज लगभग अपराध बन गई है और नित नए तमाशों से जनमानस पर सामूहिक सम्मोहन बनाया जा रहा है, वह कारक हैं जिनसे इस किस्म की जहरीली संस्कृति फल-फूल रही है। इसके नतीजों को देखें तो पाते हैं कि सत्य हाशिये पर जा रहा है; गंभीर पत्रकारिता घाटा भुगत रही है; सनसनीपन को बढ़ावा दिया जा रहा है; बहसें ऐसे वाक्युद्ध से भरी हैं, जिसमें दोफाड़ करना मकसद हो, मसलन, हिंदू बनाम मुस्लिम, राष्ट्रभक्त बनाम देशद्रोही, हिंदुत्व बनाम वाम/उदारवाद का ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष।’ जी हां, आजकल यही बिकता है, क्योंकि यह दर्शक की पशुता-ग्रंथि को उत्तेजित करता है। इस तरह के कार्यक्रम परोसने पर मीडिया कंपनियों को दर्शकों के आलोचनात्मक आकलन का खतरा नहीं रहता। यह सब देखना ऐसा है मानो एक नाटकीय धारावाहिक या रियलिटी शो या फिर बॉलीवुड की मसाला फिल्म चल रही हो। यह जनता की सामूहिक चेतना को कुंद बनाकर न्यून करने की गरज से है।
इसी में छिपी है असली चिंता। आखिरकार हमारे जैसे साधारण लोग जैसे कि क्लर्क या विभागाध्यक्ष, इंजीनियर एवं कॉर्पोरेट के कारकुन, विद्यार्थी या गृहिणियां, अध्यापक या मोची या फिर माली अथवा रेस्तरां का मालिक, हम सब इस ड्रामेबाजी को देखकर इन एंकरों का पोषण करने में मददगार हैं। हम ही उक्त चैनलों को जिंदा रखे हुए हैं, ऐसा करके हम लोग आभास देते हैं मानो राजनीतिक मुक्केबाजों का वाक्युद्ध सुनने को मरे जा रहे हैं। इससे ज्यादा की उम्मीद भी क्या करें जब राजनीति ही धर्म, जाति और वर्ग को केंद्र बनाकर सामूहिक भावना को भड़काने पर टिक चुकी है और सत्ताधीश झूठ को प्रचार के दम पर सच बनाने को उतारू हैं। यही हर शाम देखने को मिलता है।
एक तरह से हम लोग भी इस संस्कृति के वाहक हैं। संभव है, मौजूदा काल जहां सामूहिक जनमानस हर चीज त्वरित चाहता है, लोगबाग जड़ों से कटकर कहीं और बसे हुए हैं, भोगवाद की लोलुपता रात-दिन अपनी ओर खींच रही है और चंहुओर मीडिया की पहुंच है, इन सबके चलते मनुष्य अंदर से खोखला हो चुका है। हर वह विषय जिस पर गंभीर विमर्श अथवा आकलनकारी चिंतन की दरकार है, वह लोगों के लिए उकताने वाला बन जाता है। इन परिस्थितियों के आलोक में खूबसूरत शास्त्रीय या लोक साहित्य की जगह धारावाहिकों ने ले ली है; किसी गंभीर राजनीतिक पर्यवेक्षक का आकलन हो या फिर लोगों के बीच जाकर की जाने वाली वास्तविक पत्रकारिता, इनको यथेष्ट संख्या में दर्शक नहीं मिल पाते हैं। इसकी बजाय हम मानते हैं कि खबरें भी चटपटी और मनोरंजक होनी चाहिए। जैसे शोले फिल्म में अभिताभ बच्चन और गब्बर सिंह के बीच हुई लड़ाई उत्तेजित करती है। मूकदर्शक के तौर पर हम लोगों ने खुद को सनसनीपन, असभ्य संवाद, अश्लीलता और राजनीतिक मुक्केबाजी का व्यसनी बना लिया है। अतएव क्या हैरानी कि ट्विटर या व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ बरसने वाले संदेशों के जरिए जो भी जानकारी मिलती है, वही हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत बन गई है और जिस पर हम यकीन करना पसंद करते हैं।
इस समस्या का कोई त्वरित समाधान दिखाई नहीं देता। ऐसे में हमें अपनी शिक्षा पद्धति पर पुनः विचार करना होगा। मायने जिस तरह हम बड़े होते हैं, इस संसार को देखते हैं और इसमें विचरते-बरतते हैं। मेरा इशारा उस ओर है, जिसमें कुछ-कुछ राजनीतिक-नैतिक चेतना समाहित हो। जिसमें सजग नागरिक और जमीन से जुड़े सार्वजनिक बुद्धिजीवी बतौर अध्यापक हों। ऐसी शिक्षा जो हमें किसी का पिछलग्गू बनने से मुक्त करने में सहायक हो, जो हमारे अंदर अहसास जगाए कि राजनीति चौबीसों घंटे की जाने वाली ड्रामेबाजी नहीं है, न ही किसी आत्ममुग्ध व्यक्तित्व की छवि चमकाने के लिए है। इसके बजाय राजनीति में एक ऐसे पेशे का अनुभव होना चाहिए, जिससे न्यायसंगत समाज बन पाए। इस किस्म की उदार शिक्षा बनाकर हम समाज को सभ्य, सुसंस्कृत और सावर्जनिक जीवन में बौद्धिकतापूर्ण ईमानदार बनाने की दरकार रखते हैं। तब फिर, हम सच को झूठ से छांटकर अलग कर पाएंगे, बाहरी चमकदमक से इतर अंदरूनी ताकत को पहचान सकेंगे, ईमानदार संवाद और जहरीले दमगजों के बीच शिनाख्त करने की योग्यता पा जाएंगे।
इस प्राप्ति के बाद ही हमारे लिए संभव होगा कि जिस किसी चीज को हम क्रूर, शोषणकारी और हिंसक पाएं, उसको अपनी अंदरूनी तार्किक शक्ति सक्रिय करते हुए बहिष्कृत करें। तब हमारे लिए जहरीला प्रचार फैलाने वाले सभी टेलीविजन चैनलों को नजरअंदाज करना मुश्किल नहीं होगा और न ही इन तथाकथित ‘स्टार’ एंकर्स को नकारना जो हम लोगों को बंधक की तरह ले रहे हैं।
लेखक समाजशास्त्री हैं।