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भारत-पाकिस्तान के बीच बदलती फिजा के संकेत

द ग्रेट गेम
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ज्योति मल्होत्रा

क्या प्रधानमंत्री मोदी के लिए समय आ गया है कि वे अपनी झिझक छोड़कर कहें : ‘हां, मैं पाकिस्तान जाऊंगा’? जिन लोगों को ज्यादा खबरों का पता न होगा, उनके लिए बता दें कि पिछले 48 घंटों में बहुत कुछ घटा है। पंजाब में सिकुड़ते जा रहे शिरोमणि अकाली दल का फायदा आम आदमी पार्टी को अपना आधार मजबूत करने में हो रहा है– खासतौर पर जब अकाली विधायक अपने पूर्व सहयोगी दल भाजपा में शामिल होने से कतरा रहे हैं– पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, जिनका परिवार अमृतसर से है, उन्होंने मोदी को पत्र लिखकर अक्तूूबर में इस्लामाबाद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है। विदेश मंत्रालय ने पुष्टि की है कि उसे ऐसा निमंत्रण मिला है, लेकिन इसको लेकर इरादा क्या है, यह नहीं बताया। यह भी सच है कि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ने इस उम्मीद में यह खबर जारी की होगी कि इससे भारत के अंदर कुछ सार्वजनिक दबाव बनेगा –अपने दिल में दर्द पाले उन उदारवादियों का, जिनकी आजीविका ‘संपर्क करने और छूने’ की मानवीय भावना को उभार देने पर टिकी है, फिर अटारी-वाघा बॉर्डर पर ‘मोमबत्ती जलाने वाली टोली’ सदा इस रूप में भरोसेमंद रही है कि वह बातचीत के लिए दबाव बनाए।

हर चीज़ को नकारने वाले लोगों की उबाऊ भविष्यवाणी भी उतनी ही सटीक है। उनके लिए ः मोदी इस्लामाबाद नहीं जाएंंगे, न ही जा सकते हैं और जाना भी नहीं चाहिए,क्योंकि पाकिस्तान दुश्मन है, सो भरोसे लायक नहीं है। अगर आप भी ऐसे लोगों में एक हैं, तो फौरन अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर अगली बस पकड़कर गुरदासपुर पहुंचें, ताकि आपको अपनी दुश्मनी को और पुख्ता करने का मौका मिले। जहां पर भारत-पाकिस्तान सीमा के कुछ किलोमीटर अंदर, जीरो लाइन से गज भर की दूरी पर ड्रोन उतरते हैं, यह तब आप जानेंगे कि कैसे हेक्साकॉप्टरों (ड्रोन) द्वारा शुद्धतम ग्रेड की सफेद हेरोइन -स्थानीय भाषा में चिट्टा- पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के आदेश पर पैकेटों के रूप में पहुंचाई जाती है। निसंदेह 'छद्म युद्ध' चलाने के अनेकानेक तरीके हैं।

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दूसरा तरीका है, प्रशिक्षित आतंकवादियों की घुसपैठ जम्मू क्षेत्र में करवाना। सैन्य विश्लेषकों का मानना है कि हाल के महीनों में भारतीय सैनिकों और अर्धसैनिक बलों पर घात लगाकर जो हमले हुए हैं- जिनमें इस बार की गर्मियों में अब तक 18 सैनिक शहीद हुए हैं – कश्मीर घाटी से ध्यान हटाने के लिए पाकिस्तानी सरकार की एक सोची-समझी रणनीति है। तो, प्रधानमंत्री मोदी को क्या करना चाहिए? उन्हें पाकिस्तान जाना चाहिए या नहीं? सनद रहे पूरे 10 साल पहले,मोदी ने दिल्ली में अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया था और शरीफ आए भी - अपने शक्तिशाली सैन्य प्रतिष्ठान की सलाह के विरुद्ध। जब शरीफ दिल्ली से वापस घर लौटे, तो कहा जाने लगा कि वे और उनका पद मुश्किल में है, क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति से हाथ मिलाना चुना जो 2002 के दंगों के वक्त गुजरात का मुख्यमंत्री था, जिसमें एक हजार से अधिक मुसलमान मारे गए थे। लेकिन शरीफ ने इसकी व्याख्या इस तरह से की : ‘मोदी दक्षिण एशिया के सबसे शक्तिशाली देश के प्रधानमंत्री थे, पाकिस्तान भारत का पड़ोसी है और दोनों ने विगत में उतार-चढ़ाव देखे हैं–ऐसे में शांति का हाथ बढ़ाना उनका कर्तव्य था’।

परंतु शांति की यह बयार ज्यादा देर तक नहीं चली। 2 जनवरी, 2016 को पाकिस्तानी आतंकवादियों ने पठानकोट के वायुसेना अड्डे पर हमला किया। जल्द ही,मोदी ने घोषणा की कि सीमा पारीय आतंकवाद समाप्त होने तक वे पाकिस्तान के साथ तमाम बातचीत बंद कर रहे हैं। वार्ता प्रक्रिया ठंडे बस्ते में डाल दी गई। लेकिन सच यह है कि आठ साल बाद भी सीमा पारीय आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ है। इस साल ग्रीष्म ऋतु शुरू होने के साथ जम्मू में घटी आतंकी घटनाएं संकेत देती हैं कि कोई तो है जो पर्दे के पीछे से पूरे तमाशे को चला रहा है। ‘उसकी टूटी (नल का हैंडल) मेरे हाथ में है’–ये शब्द थे एक वरिष्ठ पाकिस्तानी जनरल के, जब 1999 की गर्मियों में, कारगिल युद्ध के चरम पर, उसने अपने सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ को सीमा पारीय आतंकवाद पर पाकिस्तान के नियंत्रण के बारे में कुछ इस तरह समझाया था। इस बातचीत को भारतीय खुफिया विभाग ने रिकॉर्ड किया, लिपिबद्ध किया और तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री सरताज अजीज को दिखाया, जब वे बीजिंग जाते समय दिल्ली में रुके थे। पहले तो अज़ीज़ वह बचाने का प्रयास करते रहे जिसका बचाव हो नहीं सकता था यानि कारगिल में पाकिस्तानी आक्रमण, लेकिन जब टेप सुनाकर पूछा गया तो इसके बाद उनके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था।

2016 से मोदी भी ठीक इसी तरह दुविधा का सामना कर रहे हैं। वह अच्छी तरह समझते हैं कि पाकिस्तानी की प्रकृति बदली नहीं है और इससे अधिक यह कि निकट भविष्य में बदलाव होने की संभावना नहीं है। यदि कोई गुंजाइश थी भी, वह पड़ोसी बांग्लादेश में जिस तरह सुनियोजित ढंग से गड़बड़ को भड़काकर शेख हसीना को सत्ताच्युत किया गया, उससे जाती रही - इसमें जरा संदेह नहीं कि स्थिति को इस चरम तक पहुंचने देने के लिए वह खुद भी पूरी तरह से जिम्मेदार रहीं – इससे मोदी को भारत के खतरनाक पड़ोस की एक स्पष्ट तस्वीर मिल जाती है। तो, क्या उन्हें 2016 में की गई 'सर्जिकल स्ट्राइक' और उसके बाद 2019 में बालाकोट में मिसाइल हमले जैसी निवारक कार्रवाइयों वाला तरीका ही जारी रखना चाहिए - भले ही यह साफ हो कि पाकिस्तान हर दिन भारत को नुकसान पहुंचाने के नए-नए तरीके खोजेगा? या फिर उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी का अनुसरण करते हुए उस देश के साथ शांति स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए, जिसके साथ बाद में उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा था?

यह स्पष्ट है कि भारत-पाकिस्तान की फिज़ा में हवा फिर से बदल रही है। मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर मजबूत बने हुए हैं, लेकिन यूक्रेन के मुद्दे पर रूस और अमेरिका, दोनों को,खुश रखने के लिए उन्हें अतिरिक्त प्रयास करने पड़ेंगे। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या बड़ी शक्तियां चाहती हैं कि मोदी फिर से पाकिस्तान के साथ संपर्क स्थापित करें, जिसकी व्याख्या इस्लामाबाद से मिले आमंत्रण का वक्त करता है। भले ही यह निमंत्रण चीन समर्थक संगठन के वास्ते हो, वास्तव में एससीओ (शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन) यही है,शायद अमेरिका अभी मामले की थाह लेना चाहता हो। वे निश्चित रूप से नहीं चाहेंगे कि पाकिस्तान पूरी तरह से चीन के प्रभाव तले खिंच जाए।

और फिर कश्मीर का मामला भी है। एक से अधिक बार हुई भारत-पाकिस्तान-अमेरिका ट्रैक टू बातचीत से यह खुलासा होता है कि यदि भारत जम्मू और कश्मीर में चुनाव करवाए तो शायद पाकिस्तान अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर अपनी अति कठोर आलोचना को नर्म करने और वार्ता में फिर से लौटने को तैयार हो भी जाए। अंदाजा लगाइए कि सितंबर में वहां क्या हो सकता है। तथ्य यह है कि इस्लामाबाद जाने या न जाने का फैसला मोदी को अपने विवेक के आधार पर लेना होगा और यह भी कि इसका घरेलू असर क्या रहेगा। एक तो, यह होने पर अटारी-वाघा में मोमबत्ती जलाने वाले प्रभावशाली लोगों में उनकी साख चमकनी तय है। दूसरे, मोदी जानते हैं कि अपनी स्थिति को लेकर एक आश्वस्त नेता और देश किसी से बात करने से नहीं डरते, खासकर अपने दुश्मनों से। तीसरी बात, महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव नजदीक हैं। अगर वे हरियाणा और महाराष्ट्र में विपक्ष के हाथों हार जाते हैं, तो इससे भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को राजनीतिक रूप से कोने में और धकेल दिए जाने की भावना बलवती हो जाएगी।

इस तथ्य के अलावा कि अपने दुश्मन के साथ आपकी ईमानदार और आमने-सामने की बातचीत से ही वास्तविक शांति बन पाएगी, कल्पना कीजिए कि यदि मोदी पाकिस्तान चले जाएं, तो उनकी लोकप्रियता में कितनी वृद्धि होगी।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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