हम भौतिकता की दौड़ में आज ऐसे दौड़ रहे हैं कि कैसे भी संसार की सारी दौलत हमारी हो जाए। आए दिन समाचारपत्रों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक व्यापारी या बड़े अधिकारी या किसी नेता के घर पर पड़े छापों में करोड़ों का काला धन पकड़ा गया, जिसे गिनने के लिए भी मशीनें लगानी पड़ीं।
ऐसे समाचारों को पढ़कर सामान्य आदमी के मन में एक ही विचार आता है कि यह सब क्यों किया जाता है? आदमी को भूख लगने पर अनाज की रोटियां ही तो खानी होती हैं न? क्या राजा, महाराजा, नेता या सेठ कभी सोना या चांदी खा कर जिंदा रहे हैं? जाने कब से हमें मस्त मौला कबीर कहता आ रहा है :-
‘सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु ना भूखा जाय।’
यही क्यों, रहीम ने तो इससे भी बड़ी बात सदियों पहले कहकर हमें जीवन का मर्म बताया था :-
‘गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरी समान।’
लेकिन, आदमी है कि समझता ही नहीं और धन की दौड़ में अपने ‘मन’ को खो बैठता है और फिर ढेर ऐश्वर्य होने के बाद भी, दो पल की नींद के लिए तरसता और तड़पता रहता है। हाल ही में मुझे मेरे एक आत्मीय ने बहुत प्रेरक और मन को छूने वाली पोस्ट भेजी, जिसे मैं आप सबसे साझा करना चाहता हूं :
‘एक बुज़ुर्ग शिक्षिका भीषण गर्मियों के दिन में किसी बस में सवार हुई। वह पैरों के दर्द से बेहाल थी, लेकिन बस में खाली सीट न देख कर जैसे-तैसे खड़ी हो गई। उसने कुछ ही दूरी तय की थी कि एक उम्रदराज गरीब-सी दिखने वाली औरत ने बड़े सम्मानपूर्वक उसे आवाज़ दी- ‘आ जाइए मैडम, आप यहां बैठ जाइए।’ और शिक्षिका को उसने अपनी सीट पर बैठा दिया। खुद वह गरीब-सी औरत बस में खड़ी हो गई। मैडम ने उसे दुआएं दीं- ‘बहुत-बहुत धन्यवाद, सच कहूं, आज मेरी बुरी हालत थी, पैरों में बहुत दर्द है मेरे।’
बुजुर्ग महिला की बात सुनकर उस गरीब महिला के चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान फैल गई। कुछ देर बाद शिक्षिका के पास वाली सीट खाली हो गई, लेकिन उस महिला ने एक और महिला को, जो एक छोटे बच्चे को गोद में लिए हुए यात्रा कर रही थी और मुश्किल से बच्चे को संभाल पा रही थी, उस खाली सीट पर बिठा दिया और स्वयं खड़ी ही रही।
अगले पड़ाव पर बच्चे के साथ खड़ी महिला भी उतर गई, तो वह सीट खाली हो गई, लेकिन उस नेकदिल महिला ने बैठने का लालच नहीं किया, बल्कि बस में चढ़े एक कमजोर बूढ़े आदमी को वहां बैठा दिया, जो अभी-अभी बस में चढ़ा था। कुछ देर बाद सीट फिर से खाली हो गई। बस में अब गिनी–चुनी सवारियां ही रह गईं थीं। अब उस अध्यापिका ने गरीब महिला को अपने पास बिठाया और प्यार से पूछा, ‘एक बात बताओ, वह सीट कितनी बार खाली हुई, लेकिन तुम दूसरे लोगों को ही वहां बैठाती रही। खुद उस खाली सीट पर तुम नहीं बैठी? यह क्या बात है?’
गरीब महिला ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैडम, मैं एक बहुत ही गरीब मजदूर हूं। मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं कुछ दान कर सकूं।’ इसलिए मैं क्या करती हूं कि कहीं रास्ते में पड़े पत्थर को उठाकर एक तरफ कर देती हूं, ताकि किसी को ठोकर न लगे। कभी किसी जरूरतमंद को पानी पिला देती हूं, तो कभी बस में किसी मजबूर के लिए सीट छोड़ देती हूं। फिर जब सामने वाला मुझे हंस कर दुआएं देता है, तो मैं अपनी गरीबी भूल जाती हूं। सच कहूं, मेरी दिन भर की थकान दूर हो जाती है। और तो और, जब मैं दोपहर में अपनी रोटी खाने के लिए बैठती हूं ना, बाहर बेंच पर, तो ये पंछी-चिड़ियां पास आ के बैठ जाते हैं, तो उन्हें भी रोटी तोड़कर डाल देती हूं छोटे-छोटे टुकड़े करके। जब वे पंछी खुशी से चिल्लाते हैं, तो उन भगवान के जीवों को देखकर मेरा पेट भर जाता है। पैसा धेला न सही, सोचती हूं, मुझे दुआएं तो मिल ही जाती हैं न मुफ्त में। मेरा तो फायदा ही है न? और हमने लेकर भी क्या जाना है यहां से?’
उस अनपढ़, गरीब मजदूर औरत की सीधी-सी बातें सुनकर बुजुर्ग शिक्षिका अवाक रह गई। एक अनपढ़-सी दिखने वाली बेहद गरीब महिला उसे इतना बड़ा पाठ जो पढ़ा गई थी। शिक्षिका सोच रही थी कि अगर दुनिया के आधे लोग भी ऐसी सोच को अपना लें, तो अपनी यह धरती स्वर्ग बन जाएगी।
अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में व्याख्यान देकर भौतिकता की चकाचौंध में डूबे अमेरिका को अपना अनुयायी बनाने वाले स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘कंदराओं में बैठकर तपस्या करने से मोक्ष नहीं मिलेगा, मोक्ष मिलेगा जीवित दरिद्र नारायण की सेवा करने से।’ लेकिन, जाने क्यों, धन और ऐश्वर्य की दौड़ में हम अपनी संस्कृति को ही भूल गए हैं। ‘कामायनी’ की श्रद्धा ने मनु को जो जीवन-मर्म बताया था, वही सत्य हमें आज फिर से याद रखना होगा :-
‘अपने में भर सब कुछ कैसे,
व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ है भीषण,
अपना नाश करेगा।’
आइए, हम कुछ देर तो मन की भी सुनें, ताकि चैन की नींद के लिए हमें गोलियां खाने की जरूरत न पड़े और हम अपने जीवन को सुख से जी सकें।