सीताराम गुप्ता
मिलने पर अथवा किसी से मिलने जाने पर किसी की कुशलता विषयक जानकारी लेना शिष्टाचार का प्रमुख अंग है। सामान्य बातचीत हो अथवा किसी की मिजाजपुर्सी के लिए जाना हो, प्रायः प्रश्नों का ही आदान-प्रदान होता है। इस दौरान हम जो प्रश्न पूछते हैं, उनसे न केवल ये पता चलता है कि हम शिष्टाचार का पालन करना जानते हैं अथवा नहीं अपितु उनसे हमारी मनोवृत्ति व नीयत का भी पता चल जाता है। किसी के द्वारा पूछे गए प्रश्नों से उनकी मानसिकता ही नहीं, उनमें व्याप्त मानस रोगों का भी पता चल जाता है। इसलिए अनिवार्य है कि प्रश्न पूछते समय हम न केवल सतर्क रहें अपितु सामान्य शिष्टाचार, व्यवहार कुशलता व अवसरानुकूलता का भी ध्यान रखें। दुख के वातावरण में आमोद-प्रमोद की बातें करना व किसी मांगलिक अवसर पर पूरी दुनिया के दुखों की कहानियां लेकर बैठ जाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता लेकिन कुछ लोगों को ऐसा करने में ही आनंद आता है।
वास्तव में किसी का जी दुखाने वाले अथवा किसी को अपमानित करने वाले प्रश्न पूछने वाले लोग कतिपय मनोग्रंथियों के शिकार होते हैं। यदि हम दूसरों के प्रति संवेदनशील हैं व उनके दुख-दर्द से सचमुच दुखी हैं तो हम कभी ऐसे नकारात्मक प्रश्न नहीं पूछ सकते, जिनको सुनकर या जिनका उत्तर देने में सामने वाले को कष्ट हो। साथ ही कोई ऐसी टिप्पणी भी नहीं करते, जिससे सामने वाले की पीड़ा कम होने के बजाय और बढ़ जाए। कई बार कुछ लोग दूसरे लोगों की उपस्थिति में ऐसे प्रश्न पूछ लेते हैं, जिनका जवाब देना कठिन ही नहीं, असंभव होता है। किसी को नीचा दिखने के उद्देश्य से पूछे गए ऐसे प्रश्न तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराए जा सकते। यदि हम ऐसा करते हैं तो हममें सामान्य व्यावहारिक गुणों के साथ-साथ मनुष्यता नाम का तत्व भी बिलकुल नहीं माना जा सकता।
कुछ लोग जाएंगे तो दूसरों की मिजाजपुर्सी के लिए लेकिन जितनी देर ठहरेंगे, बात करेंगे सिर्फ अपने और अपने बच्चों के बारे में। न सामने वाले को बोलने का मौका ही देंगे और न उसके घर-परिवार व उससे संबंधित किसी बात को महत्व देंगे। क्या इस प्रकार के व्यवहार व वार्तालाप द्वारा परस्पर स्वस्थ संबंधों का विकास संभव होगा? शायद नहीं। हमें चाहिए कि हम जिससे बात करने पहुंचे हैं, उसको ही नहीं, उससे संबंधित हर व्यक्ति व बात को महत्व दें। उसके विषय में व उसके परिवार के विषय में पूछें। यदि हम किसी की किसी प्रकार की कोई भी मदद नहीं कर सकते तो कम से कम उसको उपेक्षित अनुभव करवाने अथवा उसका जी दुखाने के स्थान पर उसके कंधे पर हाथ रखकर आत्मीयता का प्रदर्शन तो कर ही सकते हैं।
हमें चाहिए कि हम जो बात भी पूछें, इस तरह से पूछें कि बात पूछने में ही अपनापन झलके। कई लोग जब भी बात करेंगे तेरा-मेरा करके ही करेंगे। ज्यादा से ज्यादा शब्द आपका प्रयोग कर लेंगे। पिछले दिनों पुत्र कोविड से संक्रमित होकर गंभीर रूप से बीमार था। उसका हालचाल जानने के लिए प्रायः ही मित्रों व परिचितों के फोन आते थे। इससे बड़ी संतुष्टि मिलती थी कि लोग हमारे साथ खड़े हैं। अनेकानेक लोगों ने हर प्रकार से सहायता भी की। लेकिन साथ ही कई लोगों के व्यवहार व उनकी भाषा और पूछने के ढंग से दुख भी कम नहीं होता था। एक सज्जन प्रायः संदेश भेजकर पूछते थे कि आपका लड़का कैसा है? वी आर वरीड अबाउट योर सन। ये भाषा क्या प्रदर्शित करती है? क्या हममें नाममात्र का भी अपनापन नहीं है? यदि नहीं है तो मिजाजपुर्सी का नाटक करने की ही क्या जरूरत है?
हर व्यक्ति का एक नाम होता है। जब हम किसी का नाम लेकर बात करते हैं तो उसमें आत्मीयता झलकती है। आपका बेटा कौन सी कक्षा में पढ़ता है, ये पूछने की बजाय विकास बेटा कौन सी कक्षा में आ गया है, ये पूछना हर दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। कुछ लोगों को जन्मसिद्ध अधिकार ही होता है दूसरों की पीड़ा को बढ़ा देना। वे ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं जब वे किसी के जले पर नमक छिड़क सकें। ऐसा करके ही उन्हें आत्मिक संतोष मिलता है।
एक युवक जब एमबीबीएस करके घर लौटा तो उसके एक रिश्तेदार ने पूछा कि भई इंजेक्शन तो ठीक से लगाना आ गया ना। अब डॉक्टर इस बात का क्या जवाब देता लेकिन पूछने वाले के मनोभावों और ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का वहां उपस्थित सभी लोगों को पता चल गया। यदि कोई ये समझता है कि ऐसा करने से लोग उसकी योग्यता का लोहा मानने लगेंगे या उससे डरने लगेंगे तो ये अत्यंत भ्रामक धारणा है। ऐसे लोगों से लोग बात करना भी पसंद नहीं करते।
जहां तक डरने की बात है लोग ऐसे लोगों से डरने के बजाय उनसे बचने के प्रयास में लगे रहते हैं। यदि सामने वाला भी कोई उस जैसा ही टकरा गया तो लेने के देने भी पड़ सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि बातचीत करते समय अथवा प्रश्न पूछते समय हम स्वयं को शिष्टाचार व व्यावहारिकता की मर्यादा में रखें।