कृष्ण प्रताप सिंह
नगालैंड में म्यांमार सीमा के निकट स्थित मोन जिले के तिरु व ओटिंग गांवों के बीच अफस्पा के दिये विशेषाधिकारों से लैस सुरक्षा बलों द्वारा 13 नागरिकों को विद्रोही समझकर मार गिराने के खिलाफ जो गुस्सा भड़का है, उसे कोई सार्थक दिशा मिल पायेगी?
फिर भी जो गुस्सा भड़का है और जिसका कुफल सुरक्षा बलों पर हमले के रूप में देखने में आया है, उसकी तीव्रता व स्वाभाविकता का इससे अनुमान किया जा सकता है कि ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स ऑर्गनाइजेशन (ईएनपीओ) ने इस घटना की निन्दा करते हुए उसके विरोध में क्षेत्र के छह जनजातीय समुदायों से राज्य के सबसे बड़े पर्यटन कार्यक्रम ‘हॉर्नबिल’ महोत्सव से भागीदारी वापस लेने का आग्रह किया है। उसने छह जनजातियों से राज्य की राजधानी के पास किसामा में हॉर्नबिल महोत्सव स्थल ‘नगा हेरिटेज विलेज’ में अपने-अपने ‘मोरुंग’ में घटना के खिलाफ काले झंडे लगाने को भी कहा है।
अलबत्ता, उसने संयम बरतते हुए यह भी कहा है कि यह आदेश/कदम राज्य सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि सुरक्षा बलों के खिलाफ नाराजगी जताने और छह जनजातीय समुदायों के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस हत्याकांड के बाद न सिर्फ नगालैंड बल्कि मणिपुर और पूर्वोत्तर के कई अन्य दूसरे इलाकों से अफस्पा हटाने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ेगी। इरोम शर्मिला इस मांग को लेकर दुनिया का सबसे लम्बा अनशन कर चुकी हैं।
अतीत के इस तरह के कई मामलों की तरह इसको लेकर सरकार की ओर यह नहीं कहा जा रहा कि उग्रवाद या आतंकवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बल कठिन परिस्थितियों में जान हथेली पर रखकर अपने आपरेशन को अंजाम देते हैं तो इस तरह के वाकये हो ही जाते हैं और वहां मानवाधिकारों के हनन के मामले उठाते हुए ‘याद’ रखना चाहिए कि सुरक्षा बलों के जवानों के भी कुछ मानवाधिकार होते हैं। इसके उलट कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने, भारत सरकार से पूछा है कि नगालैंड में सुरक्षा बलों के उग्रवाद विरोधी अभियान में न आम लोग सुरक्षित रह गये हैं, न सुरक्षा कर्मी तो केन्द्रीय गृह मंत्रालय आखिर क्या कर रहा है?
विपक्ष द्वारा मामले को गंभीरता से उठाये जाने का ही असर है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस सिलसिले में जो कुछ और जैसे भी हुआ, उसको लेकर लोकसभा में खेद जताया और जानें गंवाने वालों के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की है। सेना द्वारा भी उक्त कांड और उसके बाद हुई घटनाओं को ‘अत्यंत खेदजनक’ माना जा रहा है तथा उनकी उच्चतम स्तर पर जांच की जा रही है। साथ ही कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी के आदेश दिये गये हैं। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने एसआईटी (विशेष जांच दल) से उच्चस्तरीय जांच कराये जाने का वादा और समाज के सभी वर्गों से शांति बनाये रखने की अपील की है।
फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि क्या इतना ही काफी है और क्या बड़ी से बड़ी जांच और मुआवजे की बड़ी से बड़ी घोषणा से भी उक्त तेरह जानों के नुकसान की क्षति पूर्ति की जा सकती है? अगर नहीं तो किसी भी उग्रवाद विरोधी अभियान के वक्त, उसे पुलिस चला रही हो, अर्धसैनिक बल या सैनिक, ऐसी ‘अत्यंत खेदजनक’ घटनाओं को रोकने के लिए पर्याप्त एहतियात क्यों नहीं बरते जाते?
बरते जाते तो जैसा कि इस मामले में हुआ, यह क्योंकर संभव होता कि कुछ दिहाड़ी मजदूरों को, जो शाम पिकअप वैन के जरिये एक कोयला खदान स्थित अपने कार्यस्थल से घर लौट रहे हों, प्रतिबंधित संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-के (एनएससीएन-के) के युंग ओंग धड़े के उग्रवादी समझ लिया जाये और उनके वाहन पर गोलीबारी कर दी जाये?
ठीक है कि मोन म्यांमार की सीमा के पास स्थित है और म्यांमार से एनएससीएन का युंग ओंग धड़ा अपनी उग्रवादी गतिविधियां चलाता है और सेना की 3 कोर के मुख्यालय का दावा है कि मोन जिले के तिरु में उग्रवादियों की संभावित गतिविधियों की विश्वसनीय खुफिया जानकारी के आधार पर इलाके में विशेष अभियान चलाए जाने की योजना बनाई गई थी। बहरहाल, जैसे भी संभव हो, ऐसे उपाय किये जाने बहुत जरूरी हैं कि ऐसी वारदातों की किसी भी स्थिति में पुनरावृत्ति न हो।