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मानसून में शासक मौन भ्रष्टाचारी सून

नरेश कौशल मानसूनी बारिश हमारे देश में विकास के भ्रष्टाचार के सारे किस्सों का सच कह जाती है। इस मौसम में भ्रष्टाचार के बादल फट जाते हैं। दरकते पुल, बहती सड़कें, हांफता ड्रेनेज सिस्टम और जलभराव हमारे सिस्टम में फैली...
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नरेश कौशल

मानसूनी बारिश हमारे देश में विकास के भ्रष्टाचार के सारे किस्सों का सच कह जाती है। इस मौसम में भ्रष्टाचार के बादल फट जाते हैं। दरकते पुल, बहती सड़कें, हांफता ड्रेनेज सिस्टम और जलभराव हमारे सिस्टम में फैली भ्रष्टाचार की सड़ांध को ही तो बयां करते हैं। भगवान ही जाने कि देश में कैसे ठेकेदार व इंजीनियर हैं कि एक बारिश सारा विकास बहा ले जाती है, और ठेकेदारों के लिये विकास के नये दरवाजे खोलती है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के ठेके लेने को नेता और उनके कारिंदे जो बेताबी दिखाते हैं, उससे पता चलता है कि सरकारी योजनाएं कैसे भ्रष्ट तंत्र के लिये कामधेनु बनी हैं। राजनेताओं के चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाने वाले ठेकेदारों और बिल्डर्स की जन्मपत्री इसी विकास की गंगा में डुबकी लगाने की अकुलाहट से समझी जा सकती है। पहले तो नेताओं की बड़ी परियोजनाओं में सीधी भूमिका होती है, जो नेताओं की सात पीढ़ी के खर्चे-पानी की व्यवस्था करती है। अगर नेता का परिवार या रिश्तेदार सीधे विकास योजनाओं के निर्माण में शामिल न हों तो उनका हिस्से का प्रतिशत ईमानदारी से उनके घर पहुंच जाता है। ईडी के छापों में करोड़ों की धनराशि नेताओं और नौकरशाहों के घर से बरामद होने को भ्रष्टाचार की अर्थव्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है। नेताओं से कोई पूछे कि देश की राजधानी के जिन निचले इलाकों में यमुना हर बार अपनी जगह तलाशती है वहां बस्तियां कौन बसाता है? कौन अवैध घरों में बिजली-पानी का कनेक्शन देता है? नदी तो अपना इलाका नहीं भूलती। दस साल में बाढ़ के साथ नदी अपने इलाकों में पहुंचती है। उसकी याददाश्त तो ठीक है, मगर नेता और अधिकारी अपना फर्ज भूल जाते हैं।

पहाड़ों की तो बात छोड़ दो, मैदानों में बड़े-छोटे शहर भी जरा-जरा सी बारिश में तालाब बन जाते हैं। कोई पूछे तो नगरपालिका तथा नगर परिषदों के चुने नुमाइंदों और अधिकारियों से कि प्लास्टिक के कचरे से भरी नालियों की सफाई मानसून से पहले हुई भी क्या? कितना बजट तय हुआ था नाले-नालियों की सफाई के लिये? कितना इस्तेमाल हुआ? कितना-कितना किस-किस की जेब में गया? कुछ ऐसे सवाल दिल्ली के उपराज्यपाल व आप नेताओं के बीच जुबानी तल्खी के दौरान भी आये थे। राष्ट्रीय राजधानी की बात छोड़ दें, देश की हर नगरपालिका, नगर परिषद और नगर निगमों में ऐसे तमाम किस्से हैं। किसी को ठेका दिया, उसने कमीशन लेकर किसी और को ठेका दे दिया। बारिश आयी तो सब विकास बहा ले गयी। जनता बस हाथ मलती रह गई।

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मानसूनी बारिश में और कुछ बहे न बहे मगर देश का विकास खूब बह जाता है। ठेकेदारों व इंजीनियरों की आंखों का पानी तो बस मर ही गया है। तभी तो आजादी से पहले अंग्रेजों के बनवाये पुल शान से खड़े हैं और आजादी के बाद देश के हर शहर में मोरबी पुल जैसे हादसे होते रहते हैं। हिमाचल की बाढ़ में भी तो कई पुल बह गये। उत्तराखंड में एक बड़ा पुल बीच से जमींदोज हो गया। अब जब नेताजी के चहेते को पुल निर्माण का ठेका मिलेगा तो ऐसा अनाड़ी खिलाड़ी पुख्ता पुल बनायेगा कैसे? पुल तो गिरना ही है। बिहार में पिछले दिनों सालों से बन रहा पुल भर-भराकर गिर गया। झेंप मिटाने को सरकार ने सफाई दी कि डिजाइन गलत था। आईआईटी के इंजीनियरों की सलाह पर दोषपूर्ण हिस्सा गिराया गया। चलो जितना भी भ्रष्टाचार हुआ कम से कम कुछ तो पुल बना। नहीं तो कहीं-कहीं तो कागजों में पुल बनता है और ग्रांट भी हज़म हो जाती है।

कहते हैं कि बारिश के बाद कुदरत निखर जाती है। पेड़-पौधे नहा-धोकर दमकने लगते हैं। भारत में तो भ्रष्टाचार का चेहरा भी सामने आ जाता है। सड़कें बह जाती हैं। पुल धराशायी हो जाते हैं। नदियों के किनारे-पुश्ते ढह जाते हैं। नहरों में दरार पड़ जाती है। अधिकारी भूल जाते हैं कि बारिश ज्यादा हो गयी, बैराज के गेट खोलने थे। सवाल ये भी है कि दिल्ली में जिस पानी ने कोहराम मचाया, क्या उसे विभिन्न चरणों में धीरे-धीरे नहीं खोला जाना चाहिए था? क्यों पूरी दुनिया में फजीहत करायी कि विश्व गुरु बनने जा रहे देश की राजधानी यमुना में गोते लगाने को आतुर है? बस नेताओं को आरोप-प्रत्यारोप लगाने का मौका जरूर मिल गया। कहा गया कि दिल्ली को डुबाने को पानी छोड़ा गया। जब पानी सिर से गुजरने लगा तो दिल्ली के यमुना बैराज के फ्लड गेट खोलने की याद आई। याद आई तो पता लगा कि गेट खुल ही नहीं रहे हैं। कई दिनों के बाद सेना गेट खोलने की मशक्कत करती रही। गेट भी बड़े ढीठ निकले, खुल कर नहीं दे रहे थे।

वैसे तो हिमाचल की बारिश ने पूरे देश को डरा दिया था। नदियों पर बने पुल बहते दिखे। कारें पानी में डूबती-उतरती देखीं। सड़कों के किनारे पहाड़ दरकते देखे। नदियों के किनारे बने घर भर-भराकर नदी में गिरते देखे। आखिर नदी के ठीक किनारों पर घर बनाने की इजाजत किसने दी? क्या ले-देकर मामले निपटाये जाते हैं? पहले जमाने में नदियों के किनारे केवल धार्मिक रस्मो-रिवाजों की इजाजत होती थी। कहा जाता था कि नदी किनारे भूत-प्रेत रहते हैं। मकसद यही था कोई स्थायी निर्माण न हो, कोई वहां रहने न लगे। अब तो अधिकारियों की जेबें गरम करके नदी की नाक के सामने होटल-रिजॉर्ट खूब बनने लगे। भ्रष्ट अधिकारी भूल जाते हैं कि नदी की याददाश्त अच्छी होती है। वो अपने इलाके को तलाशती है, जब ज्यादा पानी उसकी गोद में होता है। क्या हमारे नेताओं को नहीं दिखता कि कहां मकान बन रहे हैं? कहां होटल बन रहे हैं? सामान्य विज्ञान का नियम है कि पानी ऊपर से नीचे को बहता है। जब बाढ़ आती है तो नदी ज्यादा जगह लेकर बहती है। जब इंसान उसके रास्ते में पक्के निर्माण कर देगा तो पानी उसे अपने साथ बहाकर ले ही जायेगा।

वास्तव में खाते-पीते विभागों के लोग ठेकेदारों से पूछते नहीं कि जो सड़कें वे बना रहे हैं, वो बरसात का पानी झेल पाएंगी? इन इंजीनियरों व ठेकेदारों से पूछना चाहिए कि हिमालय पर्वत शृंखला के कच्चे पहाड़ों में फोर लेन और सिक्स लेन सड़क बनाने का हक क्या कुदरत ने उन्हें दिया है? देश के तमाम पहाड़ी इलाकों में सड़क के किनारे बसी बस्तियों में ज्यादा तबाही आती है। सड़क चौड़ी करने के लिये पहाड़ की जड़ ही खोदी जाती है। जब तेज बारिश आती है तो जड़ें पहाड़ की हिलती हैं। फिर मलबा व पत्थर ऊपर से गिरने लगता है। अगर सड़क बनाने वाली एजेंसी सड़क चौड़ी करने के दौरान पहाड़ की जड़ खोदने के बजाय पहाड़ की जड़ों को मजबूती देने का उपाय करतीं तो पहाड़ नीचे न आता। जरा-सी बारिश में हिमाचल की सैकड़ों सड़कें बंद हो जाती हैं। जाहिर है कि सड़कों में पानी निकासी की व्यवस्था नहीं होती। फिर धमाकों से चौड़ी की गई सड़कें पहाड़ों की चूलें हिला देती हैं। सुरंग बनाने के लिये होने वाले धमाके पूरे पहाड़ को कमजोर कर देते हैं।

चुनावों में विधायकों व सांसदों की जय-जयकार करने वाले भक्तों को सरकार बनने के बाद जो ठेके बांटे जाते हैं, उनके किए काम विकास के ताबूत की कील साबित होते हैं। वे तो सिर्फ कमीशन खाते हैं और अपने आकाओं को हिस्सा देते हैं, उन्हें विकास व निर्माण की क्वालिटी से कोई लेना-देना नहीं होता। इसीलिए तो उद्घाटन से पहले पुल व भवनों का निर्माण जमींदोज होने की खबरें आती हैं। अब जब समस्या गंभीर होती जा रही है तो हमें समस्या के हल के विकल्पों के बारे में गंभीरता से सोचना है। यह संकट तब तक दूर न होगा जब तक एक नागरिक के रूप में हम जिम्मेदार भूमिका नहीं निभाएंगे। सरकारी पैसा हमारा है इस सोच से निगरानी करनी है। समय की मांग है कि विकास योजनाओं और जल निकासी की योजनाओं का सोशल ऑडिट हो। जनता नुमाइंदों से पूछे कि कितना पैसा लगा, कहां लगा और समाधान कितना प्रभावी है। मीडिया का काम जगाना है। अब वक्त आ गया है कि मानसूनी धुलाई से खुलती भ्रष्टाचार की कलई पर निर्णायक रोक लगे।

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