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भारत की ताकत रही है धार्मिक विविधता

विश्वनाथ सचदेव शेक्सपियर तो लिख गये कि क्या रखा है नाम में, पर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में शुरू हुआ नाम का विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा। उत्तर प्रदेश की सरकार ने आदेश निकाला था कि कांवड़ियों...
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विश्वनाथ सचदेव

शेक्सपियर तो लिख गये कि क्या रखा है नाम में, पर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में शुरू हुआ नाम का विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा। उत्तर प्रदेश की सरकार ने आदेश निकाला था कि कांवड़ियों की यात्रा के मार्ग में पड़ने वाली खाने-पीने के समान की सभी दुकानों, रेहड़ी वालों, ठेले वालों को अपनी दुकान के बाहर मालिक का, और वहां काम करने वाले सभी लोगों का, नाम लिखकर लगाना होगा, ताकि उन दुकानों आदि से सामान खरीदने वालों को यह पता रहे कि वह किस धर्म को मानने वाले से सामान खरीद रहे हैं! तर्क यह दिया जा रहा है कि सवाल कांवड़ियों की आस्था की शुचिता का है!

लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि यह वार्षिक यात्रा, या देशभर में इस तरह की धार्मिक यात्राएं तो न जाने कब से चल रही हैं, आज तक तो किसी की धार्मिक आस्था को चोट नहीं पहुंची, फिर अचानक कांवड़ियों को लेकर यह विवाद क्यों?

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प्रशासन की तरफ से कहा यह जा रहा है कि यह सब 18 साल पहले के एक कानून के अनुसार किया जा रहा है। तत्कालीन सरकार ने इस आशय का कानून पारित किया था, जो अब लागू किया जा रहा है, इसलिए इसे लेकर विवाद नहीं होना चाहिए। लेकिन विवाद हो रहा है, सड़क से लेकर संसद तक, और उच्चतम न्यायालय में भी विवाद की गूंज पहुंची है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर विवाद नहीं छिड़े। इस संदर्भ में बहुत कुछ अप्रिय हुआ है देश में, हिंदू और मुसलमान को लेकर अक्सर सवाल उठाये जाते रहे हैं। कभी पूजा स्थल को लेकर, कभी पूजा-अर्चना की पद्धति को लेकर और कभी कथित धार्मिक पहनावे के नाम पर अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश में सांप्रदायिकता की आग भड़कायी गयी है।

सवाल नाम से पहचान का भी नहीं है, सवाल उस मानसिकता का है जो धर्म के नाम पर समाज को बांटने में विश्वास करती है। उस घटिया राजनीति का है जो धर्म के नाम पर वोट मांगने में किसी प्रकार की लज्जा अनुभव नहीं करती। अभी हाल में बंगाल में भाजपा के नेता शुभेंदु अधिकारी ने यह घोषणा करने में तनिक हिचकिचाहट नहीं दिखाई कि हमें (अब) ‘सबका साथ, सबका विकास’ की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने बंगाल की एक सभा में यह कहना ज़रूरी समझा कि जो हमारे साथ हैं हम उनके साथ हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट करना ज़रूरी समझा कि भाजपा को अपना अल्पसंख्यक मोर्चा बंद कर देना चाहिए। यह बात दूसरी है कि इस ‘गर्जना’ के कुछ ही घंटे बाद उन्हें शायद भाजपा आलाकमान के आदेश पर यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि उनके कहने का गलत अर्थ लगाया गया है। था कोई ज़माना जब राजनेता अक्सर यह कहकर बच निकलते थे कि उन्हें ग़लत उद्धृत किया गया, अथवा ग़लत समझ गया, पर चौबीस घंटे समाचार चैनलों के युग में यह बहानेबाजी नहीं चल सकती। सारी दुनिया ने शुभेंदु अधिकारी के उस भाषण को सुना है। दुनिया ने तो भाजपा के एक अन्य बड़े नेता को पिछले चुनावों के समय प्रचार के दौरान यह कहते भी सुना था कि हमें अल्पसंख्यकों के वोट की आवश्यकता नहीं है। यही क्यों, स्वयं भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यह कह चुका है कि कांग्रेस वाले देश के संसाधन मुख्यत: ‘ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों’ को देना चाहते हैं। यह सारी बातें सांप्रदायिकता की उस घटिया और खतरनाक राजनीति की ओर इशारा करती हैं जो देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर बनाने में लगी है। हमारा पंथ-निरपेक्ष संविधान सर्व धर्म समभाव में विश्वास करता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-विचार कर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने से इनकार किया था। आसेतु-हिमालय हमारा भारत सभी धर्मों को मानने वाले भारतवासियों का देश है। हमारे प्रधानमंत्री यह कहते नहीं थकते की 140 करोड़ भारतवासी उनका परिवार है। जब इस परिवार के एक हिस्से को पंक्ति से बाहर बिठाने की कोशिशें हो रही हैं तो स्वयं को परिवार का मुखिया मानने वाले व्यक्ति के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वह इन विघटनकारी गतिविधियों का न केवल विरोध करे बल्कि उन्हें असफल बनाने का उदाहरण प्रस्तुत करे। दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा। प्रधानमंत्री को तब विरोध करना चाहिए था जब सबका साथ, सबका विकास के उनके नारे को नकारा गया। बंगाल के उस भाजपाई नेता के कथन पर भाजपा का कोई बड़ा नेता कुछ नहीं बोला, यह बात रेखांकित होनी चाहिए। यह भी रेखांकित होना चाहिए कि कांवड़ियों की आस्था की पवित्रता के नाम पर देश में अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है।

न्यायालय ने अपने विवेक से इस बारे में उचित निर्णय लिया। लेकिन एक निर्णय इस देश की जनता को भी लेना है— उन सारी ताकतों को असफल बनाने का निर्णय जो हमारी सामाजिक समरसता को बिगाड़ने पर तुली हैं। हमारी गंगा-जमुनी सभ्यता ने हमें एक ऐसे समाज के रूप में विकसित होने का अवसर दिया है जहां मनुष्य को उसकी धार्मिक आस्था के आधार पर चिन्हित किए जाने का कोई स्थान नहीं है। यही हमारा वह संविधान भी कहता है जिसकी शपथ हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि लेते नहीं थकते। शपथ लेना ही पर्याप्त नहीं है, शपथ के विश्वास को प्रमाणित करना भी ज़रूरी है। यह काम कथनी और करनी की एकरूपता से ही हो सकता है। संविधान को माथे से छुआने से नहीं, उसके अनुरूप आचरण करने से संविधान के प्रति निष्ठा प्रमाणित होती है।

कांवड़ियों की आस्था की पवित्रता की दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए की यात्रा के मार्ग में कांवड़ियों का स्वागत-सत्कार करने वाले सिर्फ हिंदू ही नहीं हैं। अन्य धर्म के लोग भी इस कार्य में आगे बढ़कर काम करते हैं। कांवड़ियों पर हेलीकॉप्टर से फूल भले ही कोई सरकार, या संगठन बरसाये, पर यात्रा को सफल बनाने में उनके योगदान को नहीं भुलाया जाना चाहिए जो गैर-हिंदू होते हुए भी श्रद्धालुओं की मदद करना अपना कर्तव्य समझते हैं। उदहारण ऐसे मुसलमानों के भी मिलते हैं जो हिंदू कांवड़ियों के कंधे से कंधा मिलाकर यात्रा में हिस्सा लेते हैं!

धार्मिक त्योहारों को मिल-जुलकर मनाने की हमारी लंबी परंपरा रही है। हम ईद और दिवाली मिलकर मनाने में विश्वास करते हैं। एक-दूसरे की आस्था-परंपरा का सम्मान करना इसी विश्वास का एक हिस्सा है। रहा सवाल सामिष और निरामिष भोजन का, तो यह काम खाने-पीने की जगह पर स्पष्ट सूचित करने से हो सकता है। ‘हिंदू पानी और मुस्लिम पानी’ जैसी कोई व्यवस्था रिश्तों को बिगड़ने का काम ही करेगी। जरूरत देश की जनता के बीच रिश्तों को मज़बूत बनाने की है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए सामाजिक और धार्मिक सद्भावना के वातावरण को बिगाड़ने वाले कुल मिलाकर देश के दुश्मन ही कहे जाने चाहिए। ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिए जो ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की राह से भटकाने वाला हो। धार्मिक विविधता हमारी ताकत है। इस विविधता को बनाये रखना हर सच्चे भारतीय का कर्तव्य है– और इसके लिए ज़रूरी है कि हम स्वयं को पहले भारतीय समझें, फिर कुछ और!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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