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नदी-तालाबों को राह देने से राहत की उम्मीद

गुरुग्राम में जलभराव
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पानी के बहने के मार्ग को रोकने का अर्थ है सौभाग्य बाधित करना। गुरुग्राम शहर में थोड़ी सी बारिश में जलभराव भी नदी -नाले खत्म करने का परिणाम है। वास्तव में जल-संकट, बाढ़ और सूखे से बचना है तो नदी-नालों के पारंपरिक मार्गों को तलाश कर उन्हें उनके नैसर्गिक रूप में लौटाना अनिवार्य है।

बीती 10 जुलाई को करीब डेढ़ घंटे बरसात हुई और देश में साइबर सिटी और बड़े औद्योगिक घरानों के लिए मशहूर गुरुग्राम में कई-कई किलोमीटर लंबा जाम लग गया। सात लोग भी मारे गए। आश्चर्य है कि यह महानगर सालभर जल संकट से जूझता है, लेकिन बारिश होते ही दरिया बन जाता है। जहां सबसे महंगी ज़मीन है, वहीं सबसे ज़्यादा जलभराव होता है। आठ घंटे के जाम से गुरुग्राम को अनुमानत: सैकड़ों करोड़ रुपये का नुक़सान होता है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का इस शहर पर भरोसा भी डगमगाने लगा है।

नाले-सीवर साफ न होना जैसे कारण तो अमूमन देश के हर शहर को बरसात में लज्जित करते हैं, लेकिन गुरुग्राम के डूबने का असल कारण अलग है - नदी-तालाबों को गुम कर वहां कंक्रीट का जंगल खड़ा करना। अरावली की गोद में बसे इस शहर के पास नैसर्गिक रूप से इतनी जल निधियां थीं कि चाहे जितना पानी गिरे, उनमें ही भर जाये। सारे साल हर घर को पानीदार बना कर रखने की क्षमता थी। जब लोग गुस्साते हैं कि पानी हमारे घर-बस्ती में घुस गया, नदी–तालाब मौन रहकर ‘कहते हैं’ कि समाज ने हमारा घर उजाड़ कर कब्जा किया।

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करीब डेढ़ दशक पहले तक एक नदी बहा करती थी- साबी या साहबी नदी। जो जयपुर जिले की सेवर की पहाड़ियों से निकल कोटकासिम, धारूहेड़ा, बहरोड़, तिजारा, पटौदी और झज्जर होते हुए नजफगढ़ झील तक पहुंचती थी। नए गुरुग्राम में इसका प्रवाह घाटा, ग्वाल पहाड़ी, बहरामपुर, मेरावास, नंगली और बादशाहपुर तक फैला था, जहां इससे जुड़ी कई बड़ी झीलें थीं। कुछ स्थानों पर साहबी का पाट एक एकड़ तक चौड़ा था। आश्चर्य है कि गुरुग्राम की सीमा में इस नदी का कोई राजस्व रिकॉर्ड ही दर्ज नहीं है। करीब 15 साल पहले हुड्डा ने नदी के जलग्रहण क्षेत्र को ‘आर-ज़ोन’ घोषित कर दिया। इससे पहले इस क्षेत्र की ज़मीन कुछ किसानों के नाम दर्ज थी। आर-ज़ोन घोषित होते ही ज़मीन पर बिल्डरों की नज़र पड़ी और एक एकड़ की क़ीमत पचास लाख से बढ़कर पंद्रह करोड़ प्रति एकड़ तक हो गई। नदी मार्ग पर सेक्टर 58 से 65 तक कई कॉलोनियां और बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी गईं। जब नदी के रास्ते में निर्माण होगा, तो पानी इमारतों के आसपास जमा होगा ही।

असल में इस नदी के बहाव से कई तालाब जुड़े थे–जब नदी उफान पर होती तो तालाब भर जाते। गुरुग्राम में 1956 में 640 तालाब थे जो कि 1971 में 519 रह गये और आज बड़े मुश्किल से 251 बचे हैं, जिनमें से आधे ठीक करना सम्भव नहीं। थोड़ी-सी बरसात में ही गुरुग्राम के पानी-पानी होने और फिर सालभर बेपानी रहने का कारण केवल नदी और तालाबों का लुप्त होना नहीं, जमीन के लालच में कई अहम नाले हड़पना भी है । डीएलएफ फेज तीन से सिकंदरपुर, सुचाराली से पालम विहार व बादशाहपुर से खाडसा होते हुए नजफगढ़ वाला नाला भी गुम हो गया। इन तीनों की जल-ग्रहण क्षमता कई हजार घन मीटर थी। यह सारा पानी कारखानों, दफ्तरों के आगे सड़कों पर रुकता है।

गुरुग्राम के दिल्ली की द्वारका की तरफ के इलाके में जल-भराव का मुख्य कारण उस विशाल जल-निधि का तहस-नहस होना है जो दिल्ली एनसीआर की प्यास बुझाने को अकेले ही काफी थी। दिल्ली-गुड़गांव अरावली पर्वतमाला के तले है और अभी सौ साल पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर’ में जमा होती थी। ‘डाबर यानी उत्तरी-पश्चिम दिल्ली का वह निचला इलाका जो कि पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किमी था जो आज गुड़गांव के सेक्टर 107, 108 से लेकर दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई नहरें व सरिता थीं।

आज दिल्ली के भूजल प्रदूषण का बड़ा कारक बना नजफगढ़ नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील व वहां से दिल्ली में साबी नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था। साल 1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई व अंग्रेजी हुकूमत ने नजफगढ़ नाले को गहरा कर पानी निकासी का जुगाड़ किया। इसके साथ ही नजफगढ़ झील के नाले में बदलने की दुखद कथा शुरू हो गई। सन 2005 में ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नजफगढ़ नाले को देश के सर्वाधिक दूषित 12 वेट लैंड में से एक बताया था। प्रकृति के साथ लगातार छेड़छाड़ की कीमत महज इंसानों ने ही नहीं चुकायी, इस वेटलैंड में सदियों से बसने वाले कई जानवर, पक्षी ओर वनस्पति भी इसके शिकार हुए। जंगल या जल तब तक ही सुरक्षित रहता है जब तक उसमें जीव-जंतुओं की संख्या का संतुलन बना रहे। वहीं थोड़ी सी बारिश में ही निचले इलाके में झील को घेर कर बनी कॉलोनियों में पानी भर जाता है। नजफगढ़ नाले में पानी बढ़ने और दूसरी ओर यमुना में उफान आने से गुरुग्राम के फारूखनगर, दौलताबाद में यमुना के ‘बैक वाटर’ से बाढ़ के हालात बन जाते हैं।

आज भी सामान्य बारिश में नजफगढ़ झील के 52 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पानी भरता है। द्वारिका, छावला आदि इलाके में पर्याप्त दलदली जमीन है जहां ग्रेटर फ्लेमिंगो जैसे दुर्लभ प्रवासी पक्षी आते हैं। यानि प्रकृति व पानी को बचाया जाना चाहिये। यह कुछ घंटों का जाम तो खुल ही जाता है लेकिन जिस जल को बांध कर यह जाम उपजाया जा रहा है, वह बेशकीमती है और उसका मार्ग रोकने का अर्थ है सौभाग्य का रास्ता बाधित करना। यदि गुरुग्राम को वास्तव में जल-संकट- बाढ़ और सुखाड़ दोनों, से बचाना है तो नदी-नालों के पारंपरिक मार्गों को तलाश कर उन्हें उनके नैसर्गिक रूप में लौटाना अनिवार्य है।

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