महान क्रांतिकारी और दार्शनिक महर्षि अरविन्द अपनी पुस्तक ‘पश्चिम के खंडहरों में से भारत का पुनर्जन्म’ में कहते हैं कि राष्ट्र क्या है? मातृभूमि क्या है? वह एक भूमि का टुकड़ा ही तो नहीं है, न वाणी का एक अलंकार है और न मस्तिष्क की कल्पना की एक उड़ान मात्र है। वह एक महान शक्ति है, जिसका निर्माण उन करोड़ों एककों की शक्तियों को मिलाकर हुआ है, जो राष्ट्र का निर्माण करते हैं। अरविन्द उन तीस करोड़ देशवासियों (तब की आबादी) की शक्ति की ओर इशारा करते है, जो निष्क्रिय है, सुषुप्त है, तमस के इंद्रजाल में बंदी है, अज्ञानता और आत्मासक्त निष्क्रियता में दबी हुई है। किसी तरह उसको जगाना है। तभी भारत अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। तभी उसका पुनर्जन्म हो पायेगा।
महर्षि अरविन्द का यह सपना उन तमाम देशभक्तों का सपना भी था, जिन्होंने अपना सर्वस्व देश के नाम पर कुर्बान कर दिया था। बहुत हद तक हमारे संविधान निर्माताओं के सपने भी इससे मेल खाते थे, जिन्होंने भारत को एक प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य का रूप दिया। इसकी परिकल्पना भी महज स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नहीं की गयी थी। दरअसल, यह ऐसा सपना था जो हजारों वर्षों से हमारे भीतर सोया पड़ा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले एक हजार साल से भारत अनेक तरह की रूढ़ियों और अंधविश्वासों में फंसा हुआ था, राजनीतिक दृष्टि से भी वह आधुनिक शब्दावली में एक राष्ट्र नहीं था, लेकिन यह भी सच है कि वह हमारे सपनों में था, हमारे चिंतन में था, हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक विश्वासों में था। 1300 साल पहले आदि शंकराचार्य ने इस भू-भाग के चार कोनों में चार धाम स्थापित कर एक राष्ट्र का खाका यूं ही नहीं खींचा था। आज देश के 72वें गणराज्य दिवस पर हम उसी सपने की हकीकत टटोलने बैठे हैं।
इस लिहाज से देखें तो लगता है कि किसी भी राष्ट्र के जीवन में सात दशक का समय बहुत नहीं होता। लेकिन बहुत तेजी से भागते समय के लिहाज से यह समय बहुत कम भी नहीं है। इस दृष्टि से भारत का एक महाशक्ति के रूप में उभरना कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। वह भी तब जबकि आरम्भ के अनेक दशक हम अंग्रेज़ी साम्राज्य के व्यामोह में ही फंसे रहे। उन्हीं के बताये रास्ते पर चल कर भी हमारी यात्रा यहां तक पहुंची है तो इस अवसर पर दुःख जताने या स्यापा करने से कोई लाभ नहीं है। अभी तक गणतंत्र दिवस पर जब हम अपने गणराज्य के सपनों और हकीकत का आकलन करते थे तो कहते थे कि भले ही हमने विकास के दीये गलत जगह पर रख दिये थे, फिर भी हम अपने साथ आज़ाद हुए देशों के साथ अपनी तुलना करते थे तो भी लगता था कि हमारी प्रगति धीमी जरूर है, पर निराश करने वाली नहीं।
पिछले दो दशकों में हमने तरक्की की जो उड़ान भरी है, उसने हमें दुनिया की अग्र पंक्ति में ला खड़ा किया है। पहले नई आर्थिक नीति के चलते और बाद में अपनी परमाणु और वैज्ञानिक उड़ान भरने से भारत को दुनियाभर में सम्मानभरी निगाहों से देखा जाने लगा है। यद्यपि अभी भी हमारी अर्थव्यवस्था पश्चिम की तर्ज पर ही चल रही है, गांधी जी के बताये ग्राम स्वराज को हम बहुत पीछे छोड़ आये हैं, लेकिन फिर भी पंचायती राज क़ानून और पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से जमीनी स्तर पर समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े दरिद्रनारायण को आत्मनिर्भर बनाने वाली योजनायें और कार्यक्रम शुरू किये गए हैं, उसने नई उम्मीद जगाई है। वर्ष 1990 के बाद एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि कहीं नई आर्थिक नीति की आंधी में देश का दीन-हीन वर्ग दम न तोड़ दे लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा शुरू की गई डेढ़ सौ से अधिक योजनाओं का लाभ सीधे गरीब वर्ग को मिलने से अब यह उम्मीद जगी है कि पूंजीवाद में भी समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति की सुधि ली जा सकती है।
इन व्यवस्थागत सुधारों के अतिरिक्त देश में एक मजबूत मध्यवर्ग पैदा हुआ है। देश के 65 फीसदी युवा नए जोश में हैं। यह सही है कि पिछले बीस वर्षों में अमीर वर्ग भी बढ़ा है, लेकिन विशाल मध्यवर्ग की वजह से आज भारत भूमि की तरफ दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं। टॉमस फ्राइडमैन जैसे विचारक और पॉल क्रुगमन जैसे अर्थशास्त्री आज यह मानते हैं कि अब दुनिया गोल नहीं रही। अर्थात् बेंगलुरु से लेकर सिलिकॉन वैली तक भारत अपने पंख पसार रहा है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं कि भारत के युवाओं में एक नया जोश दिखाई पड़ता है। वे आत्मविश्वास से लबरेज़ नई उड़ान भरने को तत्पर दिखाई देते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब एक बार उन्होंने अमेरिकी युवाओं को चेतावनी देते हुए कहा था, तैयार हो जाओ, वरना बेंगलुरु से युवा आ जायेंगे। इसलिए दुनिया की कोई भी ताकत हो, भारत को नज़रअंदाज नहीं कर सकती।
हमारी सीमाएं हमेशा से असुरक्षित रही हैं। बाहरी आक्रान्ता सदैव इसकी खुशहाली देखकर ललचाते रहे हैं। आज भी पाकिस्तान और चीन हमारी सीमाओं पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। पिछले चालीस साल से कश्मीर में भारत एक छद्म युद्ध लड़ रहा है। हमारी सेनायें जितने ही आतंकवादियों का खात्मा करती हैं, उतने ही सीमा पार से नए आ जाते हैं। पुरानी सरकारों की ढील और ढुलमुल नीतियों की वजह से भारत को एक सॉफ्ट स्टेट मानकर वे इस तरह का युद्ध चलाये हुए थे। कश्मीर समस्या को देखकर लगता ही नहीं था कि वह कभी हल भी होगी। लेकिन जैसे ही भारत ने अपना सॉफ्ट चोला उतार फेंका, वैसे ही अमन कि एक नई राह खुल गयी। चाहे सर्जिकल स्ट्राइक हो, या एयर स्ट्राइक गलवान घाटी की झड़प हो या डोकलाम का गतिरोध, भारत ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया। नतीजा यह है कि दुश्मन देश हतप्रभ हैं और डरे हुए हैं कि भारत न जाने कब हमला कर दे। यह स्थिति एक दिन में नहीं बन गई।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि धीरे-धीरे ही सही, भारत स्वावलंबन की ओर बढ़ रहा है। अन्दर से भी और बाहर से भी वह एक नई ऊंचाई को छू रहा है। एक बार फिर से महर्षि अरविन्द को याद करते हुए, यदि भारत को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उसे फिर से युवा बनना होगा। ऊर्जा के धाराप्रवाह तरंगायित स्रोत उसमें उड़ेलने होंगे। उसकी आत्मा को फिर से वैसी ही बनना होगा, जैसी वह पुरातन काल में थी—लहरों जैसी, विशाल, शक्तिशाली, इच्छानुसार शांत अथवा विक्षुब्ध, कर्म अथवा बल का एक महासागर।
लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली में प्रोफेसर हैं।