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शिक्षा नीति के भारतीयकरण की तार्किकता

सुरेश सेठ आज देश में ज्ञानार्जन को नयी परिभाषाएं और नये प्रतिमान दिए जा रहे हैं। इसे नयी शिक्षा नीति के लक्ष्य हेतु रोजगारपरक आयाम भी दिए जाते हैं। डिजिटल दुनिया की फोर जी, फाइव जी और सिक्स जी की...
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फाइल फोटो
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सुरेश सेठ

आज देश में ज्ञानार्जन को नयी परिभाषाएं और नये प्रतिमान दिए जा रहे हैं। इसे नयी शिक्षा नीति के लक्ष्य हेतु रोजगारपरक आयाम भी दिए जाते हैं। डिजिटल दुनिया की फोर जी, फाइव जी और सिक्स जी की ताकत ने विदेशों के विश्वविद्यालयों के द्वार भारतीय छात्रों के लिए खोल दिए हैं। अब उन्हें अध्ययन के लिए विदेशी वीजा जुटाने के स्थान पर अपने देश के विश्वविद्यालयों या शिक्षण संस्थानों में एक ही समय दो डिग्रियां अर्जित करने की इजाजत मिल गई। भले ही बहुभाषी संस्कृति का स्वागत करने के लिए कहा जा रहा है लेकिन क्षेत्रीय भाषायी कट्टरता उसके आड़े आ रही है। फिर भी हर दिन यूजीसी द्वारा ज्ञान के नये विस्तार के लिये नये द्वार खोलने का प्रयास होता है।

आज शिक्षा संस्थानों के परिसर तो बड़े-बड़े बन गए लेकिन उसमें उत्साही और समर्पित छात्रों का अभाव है। उन्हें लगता है कि जो पाठ्यक्रम नयी शिक्षा के नाम पर उन्हें दिए जा रहे हैं, वे आज भी उतने व्यावहारिक नहीं। लेकिन देश अपनी पुरातन संस्कृति की ओर भी देख रहा है। अपने बीते इतिहास में भी उजले बिंदुओं की तलाश कर रहा है और देश की नई युवा पीढ़ी को केवल विदेशी चकाचौंध ही नहीं बल्कि भारतीयता की नई और विस्तृत भावभूमि पर भी खड़ा कर देना चाहता है। जो कि सदियों से इस देश के नौजवानों को समर्थ बनाती रही है।

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इस विषय में शिक्षा के नियंताओं द्वारा स्कूली शिक्षा व उच्च शिक्षा तक बड़ी पहल की गई है। बहुत दिनों से जिस प्राचीन ज्ञान को अव्यावहारिक मानकर भुला दिया गया था, उसमें से भी ज्ञान के मोती तलाशकर नौजवानों को उपहार देने का मन बना लिया गया है। फैसला किया गया है कि आज बदलते माहौल में शिक्षा के नये मॉडलों में प्रत्येक विषय या कोर्स में भारतीय ज्ञान की उस सफलता को मिश्रित किया जाए जो कि न सिर्फ देश में नई पीढ़ी को भारतीय होने का अर्थ समझाए, उसे गर्व दे बल्कि उसे अपने ज्ञान की दुनिया में एक नई मौलिक पहचान भी दिला दे।

जाहिर है इसकी वापसी में शिक्षकों की बहुत बड़ी भूमिका होगी। इसके लिए उन्हें अपने उन वाचनालयों की गहराइयों में डूब जाने का संदेश होना चाहिए, जहां यह शिक्षा उनसे संवाद करने के लिए तैयार है। यूजीसी ने अहम पहल कर दी है। उसने भारतीय ज्ञान परम्परा पर पाठ्यक्रम भी डिजाइन कर दिया है। भारत को सोने की चिड़िया इसलिए कहा जाता था क्योंकि खगोल विज्ञान की स्पष्ट प्रामाणिक वैदिक धारणाएं थीं। सुश्रुत संहिता में तो प्लास्टिक सर्जरी और मोतियाबिंद सर्जरी के भी भेद लिखे गये हैं। जिन विद्वानों ने उस बीते युग की शिक्षा को आज तक प्रामाणिक बनाये रखा है, उनमें चरक हैं, सुश्रुत हैं, आर्यभट्ट हैं, वराहमिहिर हैं, भास्कराचार्य हैं। पाणिनी और पतंजलि व नारी की सबलता की प्रतीक मैत्रेयी और गार्गी जैसे विदुषियां हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत ज्ञान का अध्ययन, शोध, नये पाठ्यक्रमों में शामिल होगा।

यूजीसी अब विश्वविद्यालयों और कालेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भारतीय ज्ञान परम्परा के तहत प्रशिक्षित करने जा रही है। भारतीय ज्ञान परम्परा के जो विषय आज के आधुनिक विषयों को पूर्ण बना सकते हैं, उनमें प्राचीन गणित, ज्योतिष, प्राचीन भारत में जल प्रबंधन हैं और शिक्षा के क्षेत्र भी शामिल हैं।

यूजीसी ने इस फैसले के साथ शिक्षा को सम्पूर्ण बनाने के लिए एक बड़ी उड़ान भरी है। इसका स्वागत तो होना ही चाहिए। लेकिन जो सब पुराना है, वही श्रेष्ठ है, ऐसा आग्रह न हो। जो श्रेष्ठ है, उसे स्वीकारा जाए और जो समय के साथ चल नहीं पाया, उसे बीते युग के पन्नों में लुप्त हो जाने देना चाहिए।

कुछ उदाहरण लें, आज भी गीता का ज्ञान व्यावहारिक जीवन में जीने के लिए कितना समुचित है, गीता के सूत्र अगर व्यक्ति का पथ निर्देशित करें तो इंसानियत को जीने की नई दृष्टि मिल जायेगी। पाणिनी के सूत्र भाषाओं के आधार बन सकते हैं और कौटिल्य का अर्थशास्त्र जटिल होती अर्थव्यवस्था की दुनिया में एक नया रास्ता दिखा सकता है।

संवेदनाशून्य, आपाधापी और स्वार्थपरता के साथ केवल अहम की तुष्टि वाले दौर में सर्वकल्याण के लिए जो वसुधैव कुटम्बकम‍् का उद्घोष मार्गदर्शक है; जिसे भारत में हो रहे जी-20 के सम्मेलनों के लिए भी आदर्श सूत्र दिया जा रहा है, वह हमारे प्राचीन ज्ञान की ही देन है। जरूरत इस समय उस शोध और उस अन्वेषण की है जो पुराने ज्ञान को नकारे नहीं बल्कि उसके समुद्र में डुबकी लगाकर उन परिमार्जित ज्ञान सूत्रों को बाहर निकाल सके, जिसके पश्चिमी ज्ञान के साथ सम्मिश्रण से एक नये समाधान का ज्ञान-समुद्र खुल सकता है। नौजवान पीढ़ी को अंधेरे में भटकने की बजाय अगर पूर्व के खोए हुए इस ज्ञान की भारतीय सजगता के साथ आभूषित किया जाए तो निश्चित ही उन मानवीय संवेदनाओं और नैतिक आदर्शों की वापसी हो सकती है, जिनको आज हम पश्चिमी गलाकाट प्रतियोगिता की व्यावसायिकता के भारत के बाजारों में हावी होते देखते हुए लुप्त होता पा रहे हैं।

लेखक साहित्यकार हैं।

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