बतौर एक छात्र और अध्यापक मैंने सदा जीवन-निरंतरता और नैतिकता से परिपूर्ण विश्वविद्यालय होने के विचार को पोषित किया है, ऐसा विश्वविद्यालय जो छात्र में मुक्त जिज्ञासा को सक्रिय करे, छात्रों और अध्यापकों को मानवीय एवं समानाधिकारवादी दुनिया बनाने के प्रयासों में प्रोत्साहित करे, ज्ञान की खोज को गहरा अर्थ दे– ज्ञान बतौर प्यार, ज्ञान जो सत्ता के जुमलों पर प्रश्न उठाने के साहस जैसा हो, या ज्ञान बतौर एक जागृति। हालांकि, मैंने हमेशा अपने आदर्शों और हमारे विश्वविद्यालयों की हकीकत के बीच फर्क पाया है, फिर भी मैं अपने पोषित आदर्शों की कदर-कीमत कायम रखे हुए हूं क्योंकि यह मुझे अपना सपना जिंदा रखने में मददगार है। एक अन्य संभावना के सपने के बिना या एक व्यवहार्य स्वप्नलोक के सहारे के बगैर हम कैसे मौजूदा विकृति का प्रतिरोध कर सकेंगे, जो आज हमारी अधिकांश यूनिवर्सिटियों का चाल-चरित्र है- जी हां, इसमें हमारी सर्वोच्च रैंकिंग वाले विश्वविद्यालय भी शामिल हैं।
तथापि, इससे पहले कि मैं हमारे समय में रैंकिंग और ब्रांडिंग पर खुशियां मनाने का संदर्भ छेड़ूं, मुझे चुभती हकीकत से शुरू करने दें। एक दिन मेरी एक पूर्व छात्रा, जो बिहार की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है, उसने बताया, ‘सर मैं बहुत हतोत्साहित और मायूस हूं क्योंकि विद्यार्थी कभी-कभार कक्षा में आते हैं। वहां किसी किस्म की अध्यापन गतिविधि नगण्य है। और लगता है हम भी इसके अभ्यस्त हो चले हैं।’ उसकी इस उदासीनता और वेदना में मैं आजकल का चाल-चलन देख पा रहा हूं।
हमारे अधिकांश कॉलेज-यूनिवर्सिटियों में शायद ही कहीं अर्थपूर्ण पढ़ाई और अनुसंधान होता है। ऐसा मुल्क जहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की डिग्री पाने की दीवानगी हो, वहां यह अप्राकृतिक नहीं होगा कि जिन विद्यार्थियों को बीए-एमए की डिग्री पाने की खातिर कॉलेज-यूनिवर्सिटी आने की मजबूरी है, उनमें ज्यादातर खुद को पराजित और हतोत्साहित समझते हैं। आगे बढ़ने के लिए निजी ट्यूशन या कोचिंग केंद्रों का सहारा लेते हैं। जहां वे बुरी तरह लिखी गाइड-कुंजियां या नोट्स पढ़ते हैं, अदूरदर्शी इम्तिहान देते हैं, जिनमें रट्टा लगाकर डिग्री पाने के अलावा और कुछ करने की जरूरत नहीं है–मसलन, संस्कृत में बीए, बौद्ध अध्ययन में एमए, बॉटनी में एमएससी इत्यादि। हर चीज को महत्वहीन कर दिया लगता है– बीएड से लेकर पीएचडी तक।
हमारा देश विरोधाभासों से भरा है : एक ओर अभिजात्य इलाकों में पांच सितारा अंतर्राष्ट्रीय स्कूल हैं तो दूसरी तरफ घटिया गुणवत्ता वाले सरकारी विद्यालय या फिर एनआईआरएफ अनुमोदित टॉप-रैंकिंग यूनिवर्सिटियों के बरक्स पतनोन्मुख संस्थान हैं, जिसका मकसद सिर्फ इम्तिहान करवाना, डिग्री-डिप्लोमा बांटना है। तथापि इस शोचनीच परिदृश्य में मैं खुद से पूछता हूं : क्या इन टॉप रैंकिंग यूनिवर्सिटियों में कोई आशा की किरण है? हमारे में अधिकांश–छात्र और अध्यापक, विज्ञानी और अर्थशास्त्री– जो इन यूनिवर्सिटियों से संबंधित हैं, प्राप्त रैंकिंग देख-देखकर मुग्ध होते रहते हैं। इससे हमारा अहम तुष्ट होता है, हम स्वयं को बधाई देते हैं और अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित होते रहते हैं– पुरस्कार एवं प्रकाशन, सेमिनार और अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्किंग, प्लेसमेंट के दावे और हमारे ‘उत्पाद’ का बाजार भाव, इन सब पर। इस जश्न के बीच–यह पता करना कि कौन-सा ‘ब्रांड’ बेहतर है, दिल्ली का लेडी श्रीराम कॉलेज या सेंट स्टीफन्स कॉलेज– आपाधापी भरे इस माहौल में मैं खुद को अकेला महसूस करता हूं। इन ‘टॉप’ यूनिवर्सिटियों में भी मुझे अपना आदर्श नहीं मिलता।
मुझे इस संभावना से इंकार नहीं कि हो सकता है, इनमें कुछ अध्ययन केंद्रों में अच्छा अनुसंधान, सक्रिय कक्षा संस्कृति, कक्षा से बाहर निकलकर पढ़ाई करवाने वाले उत्साही शिक्षक और युवा विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का बेहतर निदान होता हो। फिर भी हमें रैंकिंग और ब्रांडिग को लेकर बनी सामाजिक लालसा को नहीं भूलना चाहिए। नवउदारवाद का पैमाना– वह, जो मापने लायक है उसे पता नहीं, जो प्रत्येक खोज को अपने उपयोगितावादी ध्येय में बदल दे या जो कुछ पढ़ाना-सीखना है यह तय करने की वैधता बाजार की मांग सर्वोपरि रखकर बनाए–एक उपभोक्ता वस्तु की तरह शिक्षा के कार्यक्षेत्र, यूनिवर्सिटी में भी सेंध लगाना है। इससे तीन नुकसान होते हैं। पहला, यह ज्ञान की रिवायती व्यवस्था में पदानुक्रम बना देता है क्योंकि उदार संकाय जैसे कि कला और मानवता संकाय की तुलना में बाजार चालित तकनीकी-वैज्ञानिक, प्रबंधन और अर्थशास्त्र के कोर्सों को धन, बुनियादी ढांचा और अनुसंधान हेतु अनुदान की मात्रा अधिक मिलती है। दूसरा, कौशल सिखलाई पर बेजा जोर देना (बाजार-उद्योग गठजोड़ से आई किन्हीं कौशल विशेष की मांग के अनुरूप) इससे यूनिवर्सिटी में बतौर एक महत्वपूर्ण अवयव रही अकादमिक संस्कृति में शिक्षा-विज्ञान का ह्रास होकर रहेगा। एक तरह से, यह सीखने की संस्कृति का गैर-राजनीतिकरण और सुविधावादियों का ऐसा समूह तैयार करना है जो नवउदारवाद के हर हुक्म को ‘जी हुजूर’ कहे। तीसरा, यह विद्यार्थी की वृत्ति को बिगाड़ देता है। अब छात्र एक जिज्ञासु, यायावर या एक जाग्रत नागरिक नहीं रहा, इसकी बजाय वह उपभोक्ता है, जो ब्रांड के पीछे भागे– जैसे कि एक ब्रांडेड यूनिवर्सिटी या ब्रांडेड कोर्स। यह एक शिक्षक का स्वरूप भी बदल देता है। अब विद्यार्थी का ध्यान ‘नेटवर्किंग’ (फायदे के लिए संबंध बनाना) की कला विकसित करने, खुद की ब्रांडिंग कैसे करनी है और अंतहीन ‘शोधपत्र’ पैदा करने का ‘विज्ञान’ सीखने पर अधिक है। एक तरह से, हम सब अब मूल्य-पट्टिका लगी वस्तु भर हैं।
जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, उस पर नजर दौड़ाएं तो पाते हैं कि पर्यावरण संकट से लेकर बढ़ता सैन्यीकरण और अधिनायकवाद, भौंडा उपभोक्तावाद और सितारों की जीवनशैली की कहानियों से लेकर सामाजिक-आर्थिक असमानता, ‘ब्रेकिंग’ की होड़ में सनसनी फैलाने वाली अर्थहीन मीडिया रिपोर्टों की भरमार को आम चलन बनाने तक, हम गहरे संकट में धंसे हैं। शिक्षा का मतलब क्या रह जाता है, यदि यह अंतरात्मा और नैतिक संवेदनशीलता रहित केवल ‘विशेषज्ञ’ और ‘माहिर’ ही तैयार करे और इस बिगाड़ को रोकने के लिए हमें बुद्धिमत्ता और नैतिक बल न दे पाए। क्या अपने इन जख्मों के बिना हमारे बेहतर भविष्य की कल्पना संभव नहीं? शिक्षा का अर्थ क्या रह जाता है यदि यह केवल उत्पादकता और सक्षमता जैसे जीवन-नकारात्मक सिद्धांतों में उलझी रहे- अकादमिक शोधपत्र पैदा करने वाला एक उद्योग, जहां उद्धरण-सूचकांक (साइटेशन इंडेक्स) की गिनती से किसी को प्रतिनिधिक खुशी मिलती हो या जब प्रयोगशाला अथवा सेमिनार कक्षों से बाहर की दुनिया जल रही हो और ऐसे में पढ़ाए जाने वाले कोर्स और अनुसंधान परियोजनाएं बाजार भाव के मुताबिक शुरू करना कहां तक जायज है? क्या अपनी उपलब्धियों भरे संतति-पत्र का प्रदर्शन करने से परे कुछ नहीं? रैंकिंग और ब्रांडिंग के युग में, क्या हमारी अवस्था वस्तुतः सौंदर्य प्रतियोगिता की दौड़ में शामिल प्रतिभागियों से अलग है–आत्ममुग्धता और सफलता के प्रतीकात्मक भार से लदी। यही सही समय है, जब खुद से यह असहज सवाल पूछना शुरू करें।
लेखक समाजशास्त्री हैं।