देश की शीर्ष अदालत में न्यायालय की अवमानना कानून में आपराधिक अवमानना को परिभाषित करने से संबंधित एक प्रावधान को चुनौती दी गयी है। तर्क यह दिया गया है कि इस कानून के प्रावधान से संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन होता है। यह एक विचार हो सकता है लेकिन हकीकत तो यह है कि संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार कभी भी निर्बाध नहीं रहा है और इसे तर्कसंगत तरीके से सीमित किया जा सकता है।
न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 की धारा 2(सी)(1) के प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के संदर्भ में चुनौती दी गयी है। इस धारा के अनुसार न्यायालय को बदनाम करने अथवा उसके प्राधिकार को ठेस पहुंचाने संबंधी किसी सामग्री का प्रकाशन या ऐसा कोई अन्य कृत्य आपराधिक अवमानना है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है। कुछ विषयों के संबंध में इसे प्रतिबंधित भी किया गया है। ऐसे प्रतिबंधों में ही न्यायालय की अवमानना भी शामिल है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय कई फैसले दे चुका है।
अवमानना कानून के संदर्भ में लेखिका अरुन्धती राय को न्यायालय की अवमानना के लिये दोषी ठहराते हुए शीर्ष अदालत ने छह मार्च, 2002 को अपने फैसले में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कोई भी व्यक्ति संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में कानून का शासन कायम करने के लिये स्थापित अदालतों का सम्मान करने के कानून का उल्लंघन नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति जीबी पटनायक और न्यायमूर्ति आरपी सेठी ने यह फैसला सुनाते हुए अरुन्धती राय को सांकेतिक रूप से एक दिन की कैद और दो हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी।
इस मुद्दे को वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी, एन. राम और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने उठाया है। इन सभी का तर्क है कि अवमानना कानून का यह प्रावधान असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान की प्रस्तावना में प्रदत्त मूल्यों और बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का उल्लंघन करता है।
चूंकि न्यायालय की अवमानना कानून का यह प्रावधान लंबे समय से विवाद का मुद्दा बना हुआ है। इस विवाद को ध्यान में रखते हुए ही मार्च 2018 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस विषय को विधि आयोग के पास विचारार्थ भेजा था। यह विषय इस कानून की धारा 2 में संशोधन के बारे में न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों और आदेशों की जान-बूझकर अवज्ञा करने संबंधी परिभाषा तक सीमित था। आयोग ने इस विषय पर अप्रैल, 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें उसने इस धारा में किसी प्रकार के बदलाव से अहसमति व्यक्त की थी।
विधि अायोग ने 274वीं रिपोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के संदर्भ में अवमानना कानून के प्रावधानों पर विस्तार से विचार किया है। आयोग का कहना है कि जिस संविधान ने नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्रदान किया है, उसी संविधान ने कुछ शक्तियां न्यायपालिका को भी प्रदान की हैं ताकि इन अधिकारों की आड़ में अदालतों का अपमान होने और न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप को रोका जा सके। रिपोर्ट के अनुसार अगर कोई व्यक्ति अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की आड़ में न्यायालय की अवमानना करता है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 129 या अनुच्छेद 215 के तहत दंडित कर सकता है। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय कई फैसले सुना चुका है।
न्यायालय ने कई मामलों में सजा भी दी है। दूसरी ओर, न्यायालय ने अनेक मामलों में ऐसे व्यक्तियों की बिता शर्त क्षमा-याचना स्वीकार करते हुए उन्हें आगाह करते हुए ऐसे मामले बंद कर दिये हैं।
जहां तक वकीलों का सवाल है वकीलों से हमेशा यही अपेक्षा है कि वे न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप का प्रयास नहीं करेंगे और न्यायपालिका तथा न्यायाधीशों के प्रति उनका आचरण सम्मानजनक होगा। देश के दो प्रमुख नामचीन पत्रकारों के साथ एक अधिवक्ता ने अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में न्यायालय की अवमानना कानून की धारा 2 (सी)(1) की वैधानिकता को चुनौती दी है। उम्मीद है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के बारे में न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था जल्द मिलेगी।