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प्रगतिशील सुधार आंदोलन बदलेगा सामंती सोच

राधिका हत्या प्रकरण
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वर्ण व्यवस्था व पितृ सत्ता को खत्म करने के लिए जाति व लैंगिक भेदभाव के खिलाफ सत्याग्रह, संघर्ष, अभियान, आंदोलन चलाते हुए हमारे यहां नागरिक समाज का निर्माण हो। जहां इंसान की मानवीय गरिमा व लोकतांत्रिक अधिकार जाति, धर्म, लिंग भेद से ऊपर हों।

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डॉ. जगमति सांगवान

सपनों के शहर मिलेनियम सिटी गुरुग्राम में 25 वर्षीय राधिका यादव के सपनों का इतना दर्दनाक अंत बहुत ही झकझोर देने वाली घटना है। मिलेनियम सिटी, उसका सुशांत लोक संभवत: सबसे पाश इलाका। उसमें एक जानी-मानी टेनिस खिलाड़ी, उसके लाइसेंसी रिवाल्वर रखने वाले पिता के द्वारा किचन में काम करते हुए पीछे से 5 गोलियां दागकर हत्या। इस अपराध का पूरा प्रोफ़ाइल हरियाणा में रियल-एस्टेट, बिल्डर, प्रॉपर्टी डीलर आदि के अनाप-शनाप धंधों से अच्छा खासा पैसा बनाकर तथाकथित आधुनिक जीवन जीने की लालसा रखने वाले तथा सामंती व पितृ सत्तात्मक विचारों से उस पर इज्जत का मुलम्मा चढ़ाने वाले लोगों के विखंडित व्यक्तित्व का कॉकटेल है। वैसे तो इज्जत के नाम पर ऐसी हत्याएं हमारे समाज की मुख्य धारा के लोगों की भी समस्याएं हैं, लेकिन भले ही इधर-उधर हाफले मारकर इन नवधनाढ्यों ने 21वीं सदी के अमीरों वाली सुविधा जुटा ली है परंतु मानसिकता अभी भी 18वीं सदी में खड़ी है। ये अपनी बीवी बेटियों को अपनी संपत्ति समझते हैं जिन्हें वह जैसे चाहें बरत सकते हैं। इनके जीवन-मूल्य सिविल सोसायटी या नागरिक समाज की संगति में नहीं बने-ढले। बल्कि सामंतवाद पर आरोपित पूंजीवादी आधुनिकता में रचे बसे हैं।

हरियाणा की बेटियाें को खेलों के माध्यम से ज्ञान (एक्स्पोज़र) व ताकत दोनों मिले हैं वे भी न्याय के लिए शीर्ष राजनीति या पितृसत्ता से टकराते हुए ज्यादा आगे-पीछे की नहीं सोच रही। फिर चाहे वह शिक्षा डागर, विनेश फोगाट, साक्षी मलिक या राधिका यादव कोई भी हो। इस केस में क्योंकि पिता नवधनाढ्य वर्ग से आता है जो सोचते हैं ‘हमने क्या-क्या जलालत झेलकर इनके लिए ये सुख-सुविधाएं जुटाई और आज यही आगे से जवाब देते हैं।’ तो यहां एक अतिरिक्त असहिष्णुता का पुट भी है।

लेकिन खिलाड़ी लड़कियां, जिनके खेलों के माध्यम से सशक्त व्यक्तित्व बने हैं वो आसानी से हथियार डालते नजर नहीं आ रही। हरियाणा की जूनियर कोच जिस पर पूर्व खेल मंत्री द्वारा यौन हमले का आरोप है उसने उसका दमन करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। उसके बावजूद आज तक कोर्ट में उसके सामने डटी खड़ी है। साक्षी मलिक, विनेश फोगाट, संगीता फोगाट बिना आगे पीछे की परवाह किए यौन शोषण आरोपी भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष व भाजपा सांसद बृजभूषण को बचाने वाली सरकार के खिलाफ सीधा जंतर मंतर पर जाकर धरने पर बैठ गई। वे बृजभूषण को सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर घसीट कर ले आई। यहां राधिका यादव के पिता ने भी जो मीडिया में आया है उसके हिसाब से कई बार उसे रील न बनाने व खेल एकेडमी बन्द करने का आदेश दिया। राधिका ने रील बनाना तो बन्द कर दिया मगर अपनी पसन्द का काम नहीं छोड़ा। वैसे भी किचन में काम कर रही राधिका पर पीछे से पीठ में गोलियां दागी हैं। शायद पिता को यह अंदेशा रहा हो कि अगर आमने-सामने होंगे तो मुमकिन है राधिका बच निकले या पलटवार करे।

राधिका की हत्या अंतिम रूप में इज्जत के नाम पर की गई हत्या है। दीपक यादव कह रहा है कि लोग उसे ताने देते थे कि ‘बेटी की खेल अकेडमी की कमाई खा रहा है जो रोज रीलें बनाती है यह मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ।’ यही तो इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्याओं का उद्गम-स्थल है। जब कोई व्यक्ति विशेष जीवन के किसी भी क्षेत्र में समाज की स्वीकार्य आचार संहिताओं से अलग व्यवहार करता है तो समाज द्वारा अलग-अलग तरीके से उसका विरोध किया जाता है। मगर सामान्य बुद्धि के लोग ज्यादा समाज व धर्म भीरु होते हैं। उदाहरण के तौर पर इसी केस में दीपक यादव ने कभी किसी ताना देने वाले पर हमला नहीं किया मगर अपनी बेटी की तो जान ही ले ली। किसको नहीं पता कि दहेज व महिला असुरक्षा की वजह से लड़की की भ्रूण हत्या होती है। मगर यह समाज दहेज के खिलाफ या महिला सुरक्षा के लिए लड़ने की बजाय लड़कियों की गर्भ में ही हत्या करने में गुरेज नहीं करता। आज नहीं तो कल इस सामाजिक मानसिकता को संविधान की संगति में ढालने के काम की चुनौती यहां के लोगों को स्वीकार करनी ही पड़ेगी। हमें समझना होगा कि अपने से अलग मत को भी सहन करते हुए लोकतंत्र में सामाजिक सहअस्तित्व की जगह निकालनी होती है।

इसके लिए प्रदेश में एक प्रगतिशील समाज सुधार आंदोलन की जरूरत को रेखांकित करना होगा। जिसमें वर्ण व्यवस्था व पितृसत्ता को खत्म करने के लिए जाति व लैंगिक भेदभाव के खिलाफ सत्याग्रह, संघर्ष, आंदोलन चलाते हुए हमारे यहां नागरिक समाज का निर्माण हो। जहां इंसान की मानवीय गरिमा व लोकतांत्रिक अधिकार जाति, धर्म, लिंगभेद से ऊपर हों। दीपक जैसे लोगों को पता है कि गवाह, सबूत के अभाव में वे सजा से बच सकते हैं। इसलिए अब कानून का ड्राफ्ट आगे बढ़ाना ही चाहिए। कानून के अभाव में भी इतने निर्मम समाजभीरु व धर्मभीरुओं को उदाहरणीय सजा सुनिश्चित करवाने के लिए पुलिस को अभी से इस केस में एहतियाती कदम उठाने होंगे।

लेखिका के विचार निजी हैं।

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