इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि मौजूदा समय में दुनिया में यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते यदि सबसे ज्यादा खतरा किसी को है तो वह है पर्यावरण को। इतिहास इसका जीवंत प्रमाण है। इसका मानव जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है, इसकी संभावना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और दिल दहलने लगता है। सबसे बड़ी चिंता का कारण तो यही है। उस हालत में, और जबकि धरती पहले ही से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के चलते विनाश के कगार पर पहुंच चुकी है, यह खतरा और बढ़ जाता है। फिर युद्ध में परमाणु और जैविकीय हथियारों के उपयोग की आशंका से समूची दुनिया पर भयावह खतरा मंडरा रहा है। जाहिर है कि यदि ऐसा हुआ तो समूची दुनिया बहुत बड़े स्तर तक प्रभावित होगी और उसे भयंकर तबाही का सामना करना पड़ेगा।
असलियत में युद्ध कहें या सशस्त्र संघर्ष कहें, उसमें समूचे पर्यावरण की प्रकृति ही खत्म हो जाती है। इसमें दो राय भी नहीं कि युद्ध का परिणाम दीर्घकालिक होता है। युद्ध के दौरान जहां बमों की बरसात होती है, वहां बमों के रसायनों से वहां की पारिस्थितिकी ही काफी बदल जाती है। उसका अहम कारण यह है कि बमों में प्रयुक्त रसायन हवा में घुलकर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ते हैं। इससे प्रकृति प्रभावित होती है और वहां पर लम्बे समय तक खेती कर पाना संभव नहीं होता। गौरतलब यह है कि किसी भी इलाके में पर्यावरण संरक्षण की आशा तभी की जा सकती है जबकि वहां स्थायी रूप से शांति स्थापित हो। यह सुशासन की कीमत पर ही संभव है। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी उसी दशा में हो सकती है।
जहां तक जैविक हथियारों का सवाल है रूस, यूक्रेन पर आरोप लगा रहा है कि इस युद्ध में यूक्रेन जैविक हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है। रूस का दावा है कि यूक्रेन में अमेरिका के सहयोग से 26 जैविक अनुसंधान प्रयोगशालाएं हैं। वहां खतरनाक वायरस का भंडार है, जिनको अमेरिका युद्ध में इस्तेमाल कर सकता है। यही नहीं, अमेरिका के सहयोग से 30 देशों में 336 जैविकीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं। अमेरिका भी यह मान चुका है कि यूक्रेन में जैविक हथियारों की प्रयोगशालाओं को पेंटागन आर्थिक सहायता दे रहा था और जैविक हथियार रूस पर खतरा बढ़ाने का एक जरिया है। अमेरिकी उप-विदेश मंत्री विक्टोरिया नूलैंड की स्वीकारोक्ति इस आरोप का जीता-जागता सबूत है। चीन ने भी अमेरिका पर यूक्रेन के जरिये जैविक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगाया है और कहा है कि वह यूक्रेन में जैविक हथियारों का निर्माण कर रहा है।
देखा जाये तो जैविक हथियारों का युद्ध में शत्रु देश या आतंकी गुटों द्वारा इस्तेमाल की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इसका सबसे बड़ा कारण कम लागत में आसानी से उत्पादन और इसकी मारक क्षमता का सबसे ज्यादा घातक होना है। ये हथियार युद्धक अभिकारकों की घातकता को बहुत ज्यादा बढ़ा देते हैं। इनमें कई तरह के वायरस, फंगस और जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल होता है। ये थोड़े समय में ही बहुत बड़ी तबाही मचाने के कारण बनते हैं। इससे लोग गंभीर बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। यह शरीर को बहुत ही भयानक रूप से प्रभावित करते हैं। नतीजतन लोग विकलांग और मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
दरअसल, जैविक हथियारों के इस्तेमाल का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में युद्ध के दौरान दुश्मन के इलाकों के कुओं और तालाबों में जहर मिलाये जाने के उल्लेख मिलते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि छठी शताब्दी में मैसोपोटामिया के अस्सूर साम्राज्य के सैनिकों द्वारा दुश्मन के इलाकों के कुओं में जहरीले फंगस डाले जाने से बड़ी तादाद में सैनिकों की मौत हो गयी थी। तुर्की और मंगोल साम्राज्य में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। मंगोलिया में 1347 ईस्वी में दुश्मन के इलाकों के तालाबों और कुओं में बीमार जानवर फेंके जाने का भी उल्लेख मिलता है, जिसकी वजह से प्लेग जैसी महामारी जिसे ब्लैक डैथ की संज्ञा दी गयी, से चार साल के भीतर लाखों लोगों की मौत हुई थी। पिछली सदी में पहले विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा एन्थ्रेक्स और ग्लैंडर्स बैक्टीरिया के इस्तेमाल, दूसरे विश्व युद्ध में जापान द्वारा चीन के खिलाफ, 2001 में अमेरिका में आतंकवादियों द्वारा अमेरिकी कांग्रेस में एन्थ्रेक्स संक्रमित चिट्ठी भेजे जाने से पांच लोगों की मौत इसके जीते-जागते सबूत हैं। चीन का ताजा उदाहरण सबके सामने है, जिस पर आरोप लगा कि उसने वुहान लैब से दुनिया में कोरोना वायरस फैलाया। इससे जहां सारी दुनिया में तबाही हुई और लाखों लोग अनचाही मौत के मुंह में चले गये। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था बिगड़ी सो अलग , जो अभी तक सुधर नहीं पायी है। ऐसा माना जाता है कि दुनिया में अमेरिका, जर्मनी, चीन और रूस सहित 17 देश जैविक हथियारों से सम्पन्न हैं। वह बात दीगर है कि वह इस सत्य को अस्वीकार करें और जैविक हथियारों के निर्माण की होड़ में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। जबकि 26 मार्च, 1975 को 22 देशों ने बायोलाॅजिकल वैपन्स कन्वेंशन और जेनेवा प्रोटोकाॅल के तहत जैविक हथियारों के निर्माण पर पाबंदी के समझौते पर सहमति दी थी और आज इसमें 183 देश शामिल हैं।
अब जबकि यूक्रेन-रूस युद्ध को दो सप्ताह से अधिक हो चुके हैं और जिसके कई दौर की बातचीत के बावजूद जल्दी खत्म होने के आसार भी नहीं हैं। वह युद्ध जो अभी तक हवाई हमले, मिसाइल और टैंकों तक सीमित था, अब परमाणु और जैविकीय युद्ध की ओर बढ़ सकता है। इसकी आशंका दिन-ब-दिन और बलवती हो रही है।