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ट्रंप की तेल कूटनीति में नाटो का दुरुपयोग

पुष्परंजन वर्ष 1949 में वाशिंगटन संधि पर हस्ताक्षर के साथ गठित, ‘नाटो’ उत्तरी अमेरिका और यूरोप के 32 देशों का एक सुरक्षा गठबंधन है। नाटो का मूल लक्ष्य, राजनीतिक और सैन्य साधनों से मित्र राष्ट्रों की स्वतंत्रता, और सुरक्षा...
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पुष्परंजन

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वर्ष 1949 में वाशिंगटन संधि पर हस्ताक्षर के साथ गठित, ‘नाटो’ उत्तरी अमेरिका और यूरोप के 32 देशों का एक सुरक्षा गठबंधन है। नाटो का मूल लक्ष्य, राजनीतिक और सैन्य साधनों से मित्र राष्ट्रों की स्वतंत्रता, और सुरक्षा सुनिश्चित करना है। नाटो के दो मुख्य अंग हैं- राजनयिक, और सैन्य। यदि राजनयिक प्रयास विफल हो जाते हैं, तो नाटो सैनिक कार्रवाई के लिए धमकाता है। नीदरलैंड्स के पूर्व प्रधानमंत्री रह चुके मार्क रुट्टे, ट्रंप के ख़ास लोगों में माने जाते हैं।

बुधवार को वाशिंगटन में नाटो महासचिव मार्क रुट्टे ने कहा, कि रूस के साथ व्यापार करने वाले देशों को राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को फ़ोन करना चाहिए, और उन्हें बताना चाहिए कि यूक्रेन से शांति वार्ता के बारे में गंभीर होना होगा, वरना ब्राज़ील, भारत, और चीन पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा। रुट्टे ने कहा, ‘इन तीन देशों को मेरा मशविरा है कि यदि आप पेइचिंग में रहते हैं, या दिल्ली में, या आप ब्राज़ील के राष्ट्रपति हैं, तो आपको इस पर गौर करना चाहिए, क्योंकि यह आपको बहुत प्रभावित कर सकता है।’

यह धमकाना ही तो है। इसे आप ज़ुर्रत नहीं, तो क्या कहेंगे? खुन्नस आपको पुतिन से है, उसे निकाल रहे हैं, उन देशों पर, जो रूस से तेल व्यापार कर रहे हैं। एक अक्तूबर, 2024 से मार्क रुट्टे नाटो के महासचिव हैं। चार साल की कार्यावधि में मार्क रुट्टे ट्रंप की कठपुतली जैसा कार्य करेंगे, यह उनके बयानों से दिख रहा है। ब्रसेल्स के बाहरी इलाके में स्थित, एक विशाल परिसर में स्टील और कांच से बने नाटो मुख्यालय में सात वर्षों तक मेरा जाना रहा। रुट्टे अपने पूर्ववर्तियों की तरह व्हाइट हॉउस के आगे क्यों नतमस्तक हैं? उसकी वजह है, पैसा। मोबाइल थल सेना, वायु रक्षा, लंबी दूरी की हथियार प्रणालियों और सुरक्षा कवच ‘परमाणु छतरी’ के लिए नाटो, दशकों से अमेरिका पर निर्भर रहा है।

‘सेंटर फॉर यूरोपियन पॉलिसी एनालिसिस’ के वरिष्ठ फेलो और पूर्व शीर्ष नाटो अधिकारी, जनरल गॉर्डन बी. डेविस जूनियर (सेवानिवृत्त) कहते हैं, ‘नाटो की परमाणु छतरी, और पूरा सैन्य सेटअप अमेरिकी पैसे के बिना काम कर ही नहीं सकता।’ कहने के लिए नाटो 32 उत्तर अटलांटिक देशों का सुरक्षा गठबंधन है, दरअसल यह अमेरिका को सिजदा करने वाला संगठन है। दिक्कत, ट्रम्प के साथ है। इस महीने रूस ने कीव पर 10 घंटे तक लगातार हमले किए। इन हमलों के बाद, 14 जुलाई को ट्रंप बोले, ‘मैं राष्ट्रपति पुतिन से बिल्कुल भी खुश नहीं हूं। अब अमेरिका यूक्रेन को आत्मरक्षा के लिए ज्यादा हथियार देगा।’ मतलब, ट्रंप का ‘मिशन पीस’ हो गया फिस्स।

इस पूरी कहानी का दूसरा पक्ष है, तेल व्यापार। भारत में पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर्स की 23 रिफाइनरियां हैं। रूस में 30 बड़ी और मध्यम आकार की रिफ़ाइनरियां हैं, जबकि अमेरिका में 131 रिफाइनरियां हैं। अमेरिका, दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। उसके बाद ही सऊदी अरब, रूस, कनाडा, चीन, इराक, यूएई, ब्राज़ील, ईरान और कुवैत क्रमशः आते हैं। एनर्जी इन्फॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआईए) को आशंका है, कि अमेरिकी कच्चे तेल का उत्पादन 2026 के अंत तक उस उच्च स्तर से कम हो जाएगा, क्योंकि तेल उत्पादक प्रतिस्पर्धी कीमतों से खरीदारों को लुभाएंगे।

भारत ने रियायती कीमतों पर रूसी कच्चे तेल की अपनी खरीद में उल्लेखनीय वृद्धि की है, खासकर यूक्रेन में संघर्ष शुरू होने के बाद। भारत का कहना है, कि वह किसी भी प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं कर रहा है, अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए सस्ती ऊर्जा सुनिश्चित करना चाहता है। तेल उद्योग पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ इसे रूस से आयात करने वाले देशों पर दबाव बनाकर पुतिन को मजबूर करने की रणनीति के रूप में देखते हैं। रूसी तेल पर कीमतों को लेकर कोई ‘कैपिंग’ नहीं है, लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगियों ने 60 डॉलर प्रति बैरल की मूल्य सीमा लगा दी है, जिसके अनुसार यदि मास्को के कच्चे तेल की कीमत उस स्तर से नीचे है, तो पश्चिमी मालवाहक और बीमाकर्ता रूसी तेल व्यापार में भाग नहीं ले सकते। यह, एक क़िस्म की गुंडई है।

भारत और चीन, रूसी कच्चे तेल के शीर्ष आयातक हैं। भारत अपनी लगभग 88 प्रतिशत कच्चे तेल की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर है। फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद, जब पश्चिमी देशों ने रूसी कच्चे तेल से दूरी बना ली, तो रूस ने इच्छुक खरीदारों को अपने तेल पर छूट देना शुरू कर दिया। भारतीय रिफाइनरियों ने इस अवसर का तुरंत लाभ उठाया, जिसके परिणामस्वरूप रूस, जो पहले भारत को तेल का एक छोटा आपूर्तिकर्ता था, भारत के लिए कच्चे तेल का सबसे बड़ा स्रोत बनकर उभरा, और देखते-देखते पारंपरिक पश्चिम एशियाई आपूर्तिकर्ताओं को विस्थापित कर दिया।

टैंकर आंकड़ों के अनुसार, ‘जून 2025 में भारत के कुल तेल आयात में रूसी कच्चे तेल का हिस्सा 43.2 प्रतिशत था, जो अगले तीन आपूर्तिकर्ताओं- इराक, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को मिलाकर भी अधिक था।’ वैश्विक कमोडिटी मार्केट एनालिटिक्स फर्म, 'केप्लर' के वेसल ट्रैकिंग डेटा बताते हैं, ‘जून 2025 में भारत ने 2.08 मिलियन बैरल प्रति दिन (बीपीडी) रूसी कच्चे तेल का आयात किया, जो जुलाई 2024 के बाद से सबसे अधिक है।’ इस कारोबार से भारत की अर्थव्यवस्था जितनी तेज़ी से बढ़ी है, उतनी ही तेज़ी से अमेरिका के पिट्ठू देशों को खटकने लगी है।

कुछ हफ़्ते पहले, अमेरिका में एक विवादास्पद विधेयक को लेकर भारत में चिंताएं थीं, जिसमें रूस के साथ व्यापार जारी रखने वाले देशों पर 500 प्रतिशत टैरिफ लगाने का प्रस्ताव था। देखकर विचित्र लगेगा, कि धमकियों के साथ-साथ टैरिफ लगाने की घोषणाओं में भी ट्रम्प फेरबदल करते रहते हैं। हाल ही में ट्रम्प ने रूसी निर्यात के खरीदारों को बन्दर घुड़की दी थी, कि अगर 50 दिनों के भीतर रूस-यूक्रेन शांति समझौता नहीं होता, तो हम 100 प्रतिशत की दर से द्वितीयक शुल्क (विंडफॉल टैक्स) लगा देंगे। भारत में तेल व्यापार में ‘द्वितीयक शुल्क’ कच्चे तेल पर लगाया जाता है, जिससे सरकार को घरेलू तेल उत्पादकों को समर्थन देने, और आयातित तेलों की कीमतों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। अमेरिकी खब्त देखिये, 500 प्रतिशत विंडफॉल टैरिफ से ये सीधा 100 प्रतिशत पर उतर आये। सवाल है, भारत नाटो की इन धमकियों का अकेले जवाब देगा, या फिर चीन और ब्राज़ील के साथ मिलकर? नाटो की धमकियों को आप इग्नोर नहीं कर सकते। लेकिन, ट्रम्प ने अपने तेल व्यापार के लिए ‘नाटो’ का जिस तरह से दुरुपयोग करना शुरू किया है, वह चिंता का विषय है! भारत ने नाटो प्रमुख को डबल स्टैण्डर्ड से बाज़ आने की चेतावनी दे डाली है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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