दुनिया में शांति के ढोंग के पीछे सत्ता की लालसा छिपी है, जो संघर्ष और युद्ध को लगातार बढ़ावा देती है, मानवता को विनाश की ओर ले जा रही है।
सुरेश सेठ
ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्ध राष्ट्रों के लिए वैश्विक तनाव एक रणनीतिक आवश्यकता बन चुका है—अपनी सैन्य शक्ति के प्रदर्शन, हथियारों के व्यापार को बढ़ावा देने और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में वर्चस्व बनाए रखने के लिए। दशकों पुरानी शत्रुता के साथ शांति और अहिंसा की बातें केवल औपचारिक वक्तव्यों तक सीमित हैं। वास्तविकता यह है कि कहीं न कहीं युद्ध का बहाना ढूंढ़कर उसे भड़का दिया जाता है।
इन शक्तिशाली देशों ने अपने ऐतिहासिक विकास की कीमत पर दो गंभीर समस्याएं—पर्यावरण प्रदूषण और वैश्विक ऊष्मीकरण—तीसरी दुनिया के कंधों पर डाल दी हैं। स्वयं आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद वे इन समस्याओं से निपटने के लिए न तो पर्याप्त आर्थिक संसाधन साझा करने को तैयार हैं, और न ही कोई वास्तविक उत्तरदायित्व लेने को। इसके विपरीत, वे भारत जैसे उभरते देशों को नेतृत्व का दायित्व सौंपते हैं, शायद इसलिए कि ये देश संसाधनों के अभाव में हमेशा उनकी मदद के मोहताज बने रहें और वैश्विक राजनीति में उनकी शर्तों पर खेलते रहें।
आज दुनिया को जिन वास्तविक युद्धों की आवश्यकता है—भुखमरी, महंगाई, भ्रष्टाचार और युवाओं के भविष्य की सुरक्षा के लिए—वो युद्ध कभी लड़े ही नहीं गए। इसके बजाय, शंतिप्रिय देशों पर आधुनिक हथियारों की वर्षा कर के, राष्ट्रों के भूगोल को युद्धभूमि बना दिया गया। आज जब रूस-यूक्रेन युद्ध एक तीन ‘पुरानी त्रासदी’ बन चुका है और चीन-ताइवान का टकराव स्थायी तनाव का चित्र बन गया है, तब दुनिया का ध्यान इस्राइल और ईरान के बीच उभरे नए संकट पर केंद्रित है। यह संघर्ष न केवल क्षेत्रीय अशांति का प्रतीक है, बल्कि इसके पीछे छिपी वैश्विक राजनीति की कई परतें भी उजागर करता है। निस्संदहे, इस्राइल को अपने पड़ोसी देशों और आतंकी संगठनों से लंबे समय से खतरे का सामना रहा है। लेकिन इस्राइल को पश्चिमी शक्तियों, विशेषकर अमेरिका का भरपूर समर्थन प्राप्त है—ऐसा समर्थन जो सिर्फ सैन्य या कूटनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक नियंत्रण के इरादे से संचालित होता है। ईरान जब परमाणु शक्ति की ओर अग्रसर होता है, तो उसे परमाणु अप्रसार संधि का वास्ता देकर रोका जाता है, जबकि जिन देशों के पास पहले से परमाणु हथियार हैं, वे न केवल इस संधि से बाहर हैं, बल्कि अपनी परमाणु क्षमताएं और सैन्य दबदबा लगातार बढ़ा रहे हैं।
हाल ही में इस्राइल ने ‘ऑपरेशन राइजिंग लायन’ के तहत ईरान के लगभग सैन्य व परमाणु ठिकानों को निशाना बनाते हुए बड़ा हमला किया, जिसमें कई वरिष्ठ कमांडर, सेना प्रमुख और परमाणु वैज्ञानिक मारे गए। इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने बयान दिया कि ईरान को किसी भी कीमत पर परमाणु शक्ति नहीं बनने दिया जाएगा, क्योंकि वह ‘हमारे अस्तित्व के लिए खतरा’ है। ईरान ने इसका कड़ा जवाब देने की चेतावनी दी है, जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इसे ‘सिर्फ शुरुआत’ करार देते हुए ईरान को परमाणु हथियार का सपना भूलने की धमकी दी है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह वास्तव में इस्राइल और ईरान का युद्ध है? या फिर यह उन वैश्विक शक्तियों की रणनीति का हिस्सा है जो नहीं चाहतीं कि मुस्लिम दुनिया कभी संगठित या परमाणु रूप से सशक्त हो? क्या यह संघर्ष वाकई आत्मरक्षा का है, या फिर शक्ति-राजनीति की एक सोची-समझी स्क्रिप्ट, जिसमें इस्राइल केवल एक मोहरा है और असली नियंत्रण अमेरिका जैसे देशों के हाथ में है? चाहे युद्ध कहीं भी हो और कोई भी पक्ष लड़ रहा हो, हार अंततः मानवता की होती है। इसका सबसे बड़ा नुक़सान नई पीढ़ी को भुगतना पड़ता है, जिसकी किताबों में ज्ञान की जगह हथियारों की समझ भर दी जाती है। जिन मानवीय सहायता समूहों और संस्थानों के पुनर्निर्माण का वादा वैश्विक शक्तियों ने किया था, उन्हें फंडिंग मिलनी बंद हो जाती है, और वे समाज के सबसे पिछड़े वर्गों को और गहरे अंधकार में छोड़ देते हैं।
इस समय दुनिया हिंसा और उत्पीड़न के एक गंभीर दौर से गुजर रही है। हाल की संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि जबरन विस्थापित लोगों की संख्या 12.2 करोड़ को पार कर चुकी है—यह संख्या पिछले वर्ष से 20 लाख अधिक और पिछले दशक की तुलना में दोगुनी है। सीरिया से लेकर सूडान तक, अफगानिस्तान से यूक्रेन और बांग्लादेश तक—हर कोना मानवीय त्रासदी की कहानी कह रहा है। यूक्रेन, जो कभी एक समृद्ध, शिक्षित और खनिज संसाधनों से भरपूर देश था, तीन साल के युद्ध में तहस-नहस हो चुका है। वहीं अफगानिस्तान में एक करोड़, यूक्रेन में 88 लाख और म्यांमार में भी विस्थापन का संकट गहराता जा रहा है। धर्म, राजनीति या भू-राजनीतिक हितों के नाम पर लोगों को उजाड़ा जा रहा है और वे नए ठिकानों की तलाश में भटक रहे हैं।
विकास की दिशा युद्ध और हथियारों की नहीं, बल्कि शिक्षा, ज्ञान और संस्कृति की होनी चाहिए। लेकिन अफसोस, आज लड़ाई केवल ज़मीन, आकाश और समुद्र तक सीमित नहीं रही—अब अंतरिक्ष में भी युद्ध की तैयारी हो रही है। हम अपने विनाश की पटकथा स्वयं लिख रहे हैं, अपने साहित्य, संस्कृति, नैतिकता और जीवन मूल्यों की आहुति देकर।
लेखक साहित्यकार हैं।