योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आज हमारा समाज एक विचित्र सी मनःस्थिति में जी रहा लगता है। सभी कहीं-न-कहीं यही चाहते हैं और यही सोचते भी हैं कि उन्हें कोई कष्ट या बाधा अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में न झेलनी पड़ जाए। कभी-कभी तो हम आसन्न बाधाओं की कल्पना मात्र से इतने भयभीत हो जाते हैं कि अपने कर्म से ही विमुख हो जाते हैं। महाकवि जय शंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ काव्य में महाप्रलय के कारण सृष्टि के विनाश को देखकर बुरी तरह हताश और निराश मनु को श्रद्धा के द्वारा जो संदेश दिलाया है, वह वस्तुतः हमारी संस्कृति का मूलमंत्र है। जो हो गया, उसे भूल कर आगे बढ़ने का नाम ही तो ज़िन्दगी है। ‘श्रद्धा’ हताश-निराश मनु को कहती है :-
‘तपस्वी क्यों इतने हो क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम इतने अधिक हताश,
बताओ, यह कैसा उद्वेग?’
‘कामायनी’ की श्रद्धा का यह प्रश्न आज हम सबके लिए प्रासंगिक बन गया है। हम भी प्रलय के बाद जीवित बचे मनु की तरह ही जीवन के भविष्य को अंधकारमय मान कर कर्म से ही भागना चाहते हैं, तो श्रद्धा का प्रश्न है :-
‘हृदय में क्या है नहीं अधीर,
लालसा जीवन की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग,
तुम्हें, मन में धर सुंदर वेश?’
निश्चय ही आने वाला कल उजियारा लेकर भी तो आ सकता है न? तब क्यों हम अंधियारे के विकल्प से ही चिपके रहें? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए एक बोधकथा पढ़ने को मिली। बताती है कि हमें जब भी विकल्प चुनने का कोई अवसर मिले, तो मन से निराशा के अंधियार को दूर फेंककर हमें आशा के उजियार को चुनना चाहिए। कथा इस प्रकार है—
‘एक बार पांच कैदियों को फांसी की सज़ा सुनाई गई और फांसी के फंदे पर लटकाने से पहले उन्हें एक विकल्प दिया गया कि वो चाहें, तो फांसी पर लटक जाएं या फिर सामने वाले उस दरवाजे के पीछे जो चीज़ है, वे उसका सामना करें। विकल्प की बात सुनकर सारे कैदी डर गए। उन्हें लगा कि शायद उस दरवाज़े के पीछे कोई और भी खतरनाक चीज है जिसे पाकर मौत से उनका सामना होगा। इसी कल्पना से डरे पांच में से चार कैदी दरवाजे के पीछे वाली चीज का सामना करने से हट गए और एक-एक करके फांसी पर लटक गए। आखिरी कैदी ने मन में सोचा कि जब फांसी लगवा कर मरना ही है, तो दरवाजे के पीछे की उस चीज़ का सामना करके ही क्यों न मरा जाए? और उसने विकल्प चुन लिया।
जब वह दरवाज़ा खोला गया, तो सामने एक बड़ा-सा मैदान था और वो वास्तव में आज़ादी का दरवाजा था, लेकिन डरकर चार कैदियों ने मन के अनजाने डर के कारण उस दरवाज़े को ‘खोलने वाले विकल्प’ को चुना ही नहीं? सच में, इसे ही तो विज़न कहते हैं। जो सामने नहीं हो, उसे भी कम से कम एक बार देख लेना।’
इस बोधकथा का संदेश यही है कि ज़िंदगी में कुछ भी स्थायी नहीं है। हमें ही लगता है कि कल अमुक व्यक्ति जीवन में नहीं होगा, तो हमारा क्या होगा? लेकिन ज़िंदगी के पास तो हर चुनौती का समाधान है न? इसी कारण हम कई बार मन को मारकर, किसी की खुशामद करने में लगे रहते हैं, जबकि जीवन का अटल सत्य यह है कि वो हमें सदा अचंभित कर देता है।
दरअसल, किसी कड़वे अनुभव के बाद हम ‘यह दुनिया तो रहने लायक ही नहीं’ जैसे वाक्य को अपना जीवन मंत्र बना कर सब पर अविश्वास करने लगते हैं, जबकि यह दुनिया सदैव भरोसेमंद लोगों के कारण ही चली आ रही है। अगर दुनिया में सब गलत ही होते, तो ये संसार तो नर्क ही हो जाता?
नि:संदेह, ज़िंदगी में सारे कड़वे अनुभव खराब ही नहीं होते, वो हमें सही और गलत का एहसास भी कराने आते हैं। हमें आने वाले कठिन समय के लिए तैयार करने भी आते हैं और सच कहूं, तो हमारे जीवन से गंदगी, तकलीफें और बाधाएं साफ करने भी आते हैं। हां, कभी-कभी कुछ लोगों को भी ये घमंड हो जाता है कि मेरे बिना दुनिया का कुछ नहीं होगा, मेरे अलावा तो इसे कोई नहीं पूछेगा, जबकि ऐसा होता नहीं है, क्योंकि ज़िंदगी हर बार एक नया दरवाज़ा खोल ही देती है। बस हमें चुनना होता है कि उस नए दरवाज़े के पीछे जो चीज़ है, उसका सामना हमें करना है या नहीं?
तो आइए, ‘कामायनी’ के इस संदेश को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाकर आशावादी होकर जीवन को भरपूर रूप में जीयें और बाधाओं से डरने की कल्पना के बजाय उनसे लड़ना सीखें।
‘औरों को हंसते देखो मनु,
हंसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत करलो,
सबको सुखी बनाओ।’