देविंदर शर्मा
मुंबई के इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) की छात्र-पत्रिका के लिए साक्षात्कार में मुझसे पूछा गया कि खाद्य मुद्रास्फीति को नाथने हेतु क्या उपाय हो सकते हैं। यह प्रश्न कोई नया नहीं है, क्योंकि हर किसी के मन में यही सवाल होता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से लेकर किसी टीवी चैनल के वार्ता पैनलों पर या अखबारों में मुद्रास्फीति पर खबरें देखें तो यह ऊपर उठती खाद्य मुद्रास्फीति है, जिसे विकास-गाथा में खलनायक की तरह पेश किया जाता है।
हमारे दिमागों में यह भर दिया गया है, चूंकि भोजन एक मूल आवश्यकता है, इसलिए इसकी कीमतों में बढ़ोतरी को मैक्रो-इकोनॉमिक सूचकांक के 4 फीसदी अंतराल (दो फीसदी ऊपर या दो प्रतिशत नीचे) के अंदर बनाए रखना जरूरी है। इसलिए जब कभी नए फसल खरीद मूल्य घोषित किए जाते हैं, साल में दो मर्तबा यानी रबी और खरीफ की फसल के लिए, तब-तब मीडिया में बढ़ती खाद्य मुद्रास्फीति का हौवा उठ खड़ा होता है। इस साल भी, जब खरीफ फसलों का मूल्य घोषित हो रहा था, एक सवाल बार-बार टीवी चैनलों (और अखबारों में भी) चला हुआ था कि क्या इससे खाद्य मुद्रास्फीति पैदा नहीं होगी? हालांकि, खरीफ की 14 में 11 जिन्सों के लिए मूल्य घोषित हुए, वे मुद्रास्फीति वाले मूल्य से भी कम थे, फिर भी फसल खरीद मूल्य में मामूली बढ़ोतरी को मुद्रास्फीति पर दबाव के लिए जिम्मेवार मानकर अंगुलियां उठाई जा रही थीं।
यह सर्वविदित है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य वस्तु वाला अवयव लगभग 45 प्रतिशत है। लेकिन कई बार हैरानी होती है कि मकान- चाहे अपना हो या किराए का- वहां रहने के खर्च पर किसी परिवार की मासिक आय का एक बड़ा हिस्सा खप जाता है, इस तत्व को क्यों नहीं मुद्रास्फीति सूचकांक की गणना करते वक्त शामिल किया जाता। इसी तरह पर्यटन-तफरीह, धीरे-धीरे ऊपर उठती तेल कीमतें, हवाई, रेल एवं टैक्सी सेवा के गतिशील मूल्य, जिन पर होने वाला खर्च किसी औसत परिवार के रसोई-व्यय से कहीं अधिक होता है, उन्हें भी मुद्रास्फीति सूचकांक की गणना करते वक्त क्यूं नहीं गिना जाता। कुछ दिन पहले, जिस रोज श्रीनगर से अधिकांश उड़ानें स्थगित कर दी गई थीं, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने लगातार बढ़ते हवाई यात्रा किराए को खुली लूट बताया था। अधिकांश लोग मुम्बई-दिल्ली के बीच एकतरफा हवाई किराया यानी 25000 रुपये को अत्यधिक नाजायज बताते हैं। इसलिए, मुद्रास्फीति असल में कौन-सी चीज बनाती है, उसका पुनः निर्धारण होना चाहिए और महंगाई के लिए जिम्मेवार विभिन्न अवयवों के मुताबिक उनकी हिस्सेदारी तय की जाये।
यहां जो मैं कहना चाहता हूं, वह यह है कि टैक्सी सेवा उपलब्ध करवाने वाले मंच (ओला या उबर) सुबह के वक्त- यहां तक कि 6 बजे के ठीक-ठाक उजाले में भी- किराया बढ़ाकर लेते हैं, लेकिन वहीं जब टमाटर के दाम 20 से 40 रुपये हो जाएं तो आसमान टूट पड़ता है, जबकि टमाटर के बढ़े दाम का भार भी किसी परिवार पर चीनी की एक किलोग्राम कीमत जितना भी नहीं पड़ता। भरे दिन में भी ओला-उबर कई बार ‘सर्ज’ लगा किराया वसूलते हैं, लेकिन गुस्सा सिर्फ टमाटर के दाम बढ़ने पर बनता है। तो इस तरह हमारे दिमागों को पट्टी पढ़ा दी गई है। हमें यकीन दिलवाया जाता है कि मूल्य उत्पादन-आपूर्ति में फर्क आने से बढ़े हैं लेकिन सामान्यतः हम लोग अहसास ही नहीं कर पाते कि एक तीसरा छिपा अवयव भी है–हेराफेरी। ऐसे मौके भी हैं जब प्याज़ के उत्पादन में महज 4 प्रतिशत की कमी होने पर देश के कई हिस्सों में खुदरा मूल्य 600 गुणा से ज्यादा बढ़ा दिए गए।
इस बारे में तमिलनाडु में जैविक खेती करने वाले एमजे प्रभु की बात सुनें- ‘मैं अपने बगीचे से प्रति नारियल 8 रुपये बेचता हूं, बिचौलिया आगे इसे 28 रुपये में तो गली का रेहड़ी वाला या दुकानदार प्रति नारियल भाव 50 से 55 रुपये वसूलता है। यह आपूर्ति शृंखला चलाने वालों का लालच है, जिसकी वजह से नारियल का भाव खेत से उपभोक्ता के बीच 7 गुणा बढ़ जाता है। अतएव खाद्य-मुद्रास्फीति का ज्यादा संबंध खेत में लगी कीमत से न होकर बीच वालों की मुनाफाखोरी से है।’
किसी सुपर मार्किट में जाएं और कीमतों का विश्लेषण करें, तो एक नया चलन बड़े पैकेटों पर साफ दिखाई देता है। सामान्यतः अर्थशास्त्र नियम कहता है कि बड़े पैमाने पर प्रसंस्करण कर बनाए खाद्य पदार्थों की कीमतें अपेक्षाकृत कम होती हैं। लेकिन गौरतलब है कि पिछले तीन महीनों में बड़े पैकेटों की श्रेणी में 62 प्रतिशत उत्पादकों ने मूल्य बढ़ा दिया। क्यों? किसी को नहीं पता। उदाहरणार्थ टाटा गोल्ड चायपत्ती के 100 ग्राम वाले पैकेट की खुदरा कीमत 40 रुपये है तो 500 ग्राम वाला 310 रुपये में मिल रहा है, जबकि आदर्श स्थिति में 500 ग्राम टाटा गोल्ड चायपत्ती 200 रुपये में मिलनी चाहिए। तेजी से बिकने वाली रोजमर्रा की अधिकांश वस्तुएं- मसलन साबुन, टुथपेस्ट व हेयर ऑयल इत्यादि- इनके मामले में, जहां कहीं लोकप्रिय ब्रांडों ने कीमतें नहीं बढ़ाई तो चतुराई से पैकेट के भार में कमी कर दी। जहां उपभोक्ता को अपनी जरूरी वस्तुओं के लिए बारम्बार 10 प्रतिशत अधिक दाम चुकाने पड़ रहे हैं वहीं इन्हें बनाने वाली कंपनियों की रिपोर्टों में मुनाफा वृद्धि साल-दर-साल 40 फीसदी की कुलांचें भर रही हैं।
यह वैश्विक चलन है। अमेरिका में कॉर्पोरेट जगत का मुनाफा पिछले 70 सालों में सबसे अधिक रहा जबकि वार्षिक मुद्रास्फीति दर मई माह में 8.6 फीसदी छू गई, जो कि पिछले 41 सालों की सबसे ज्यादा है। रोजमर्रा की वस्तुओं का व्यापार करने वाली 2000 अमेरिकी कंपनियों का मुनाफा कोविड महामारी से पहले की अवधि के मुकाबले कहीं ज्यादा रहा है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार खाद्य वस्तु बनाने वाले अरबपतियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। हैरानी यह है कि जहां कृषि से होने वाली कमाई में कहीं भी इजाफा नहीं हुआ वहीं खुदरा कीमतें पहले ही बहुत ज्यादा बढ़ा दी गईं। यहां तक कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले ही अनुमान के आधार पर वैश्विक कीमतों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई, जिन्होंने वर्ष 2007-08 में बनी खाद्य किल्लत के समय के मूल्यों को भी पछाड़ दिया।
इसलिए महंगाई के लिए खाद्य मुद्रास्फीति को जिम्मेवार ठहराना सरासर नाइंसाफी है। ऐसे अवसर कम हैं जब किसानों को अदा की कीमतों में बढ़ोतरी से खुदरा खाद्य मूल्यों में अप्रत्याशित उछाल आया हो, सिवाय जब आपूर्ति कम हुई हो। यह सीधा-सीधा बिचौलियों का लालच है, जिसमें कृषि-संबंधी वस्तुओं का व्यापार करने वाली महाकाय कंपनियां भी शामिल हैं, जो हेराफेरी से जब चाहे कीमतें बढ़ा देती हैं। ओईसीडी-आईसीआरआईईआर का अध्ययन बताता हैं कि 2000-2016 के बीच 16 सालों में किसानों को 45 लाख करोड़ का घाटा हुआ है। इस अवधि में जब भारतीय किसानों को अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों से 16 फीसदी कम दाम मिल रहा था तब कायदे से खाद्य मुद्रास्फीति ऋणात्मक रहनी चाहिए थी, किंतु वह अपने पुराने स्तर पर बनी रही। अतएव यही समय है जब खाद्य मुद्रास्फीति का नाम बदलकर ‘लालचस्फीति’ कर दिया जाए।
लेखक कृषि एवं खाद्य विषयों के विशेषज्ञ हैं।