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भारतीय हॉकी का यादगार साल और बाकी मलाल

15 मार्च, 1975 को भारतीय हॉकी टीम का कुआलालंपुर में फाइनल में पाकिस्तान को हराकर विश्व कप हॉकी चैंपियनशिप जीतना काफी अहम था। यह उपलब्धि इससे पहले, और बाद में भी, कभी हासिल नहीं की गई थी। भारतीय हॉकी टीम...
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15 मार्च, 1975 को भारतीय हॉकी टीम का कुआलालंपुर में फाइनल में पाकिस्तान को हराकर विश्व कप हॉकी चैंपियनशिप जीतना काफी अहम था। यह उपलब्धि इससे पहले, और बाद में भी, कभी हासिल नहीं की गई थी। भारतीय हॉकी टीम जीत की कई कहानियों से लैस रही है।

प्रदीप मैगज़ीन

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नदी की धार की तरह समय बहता है, जिसमें अतीत और वर्तमान के मिश्रण से कुछ नया पैदा होता है। विगत के कुछ क्षण ऐसे होते हैं जिन्हें हम भुला देना चाहते हैं। और फिर गर्व भरी कुछ ऐसी युगांतकारी घड़ियां भी होती हैं, जो एक राष्ट्र के रूप में हमारी सामूहिक पहचान को पुष्ट करती हैं, जिनका खुशनुमा अहसास हम कभी छोड़ना नहीं चाहते।

कोई पचास साल पहले, देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया था। उस वर्ष 1975 को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक माना जाता है, लेकिन हॉकी प्रेमियों के लिए वह साल हर्षोल्लास का रहा।

आपातकाल से करीब तीन महीने पहले, 15 मार्च, 1975 को, भारतीय हॉकी टीम ने देश के सपने को साकार कर दिखाया, जब कुआलालंपुर में विश्व कप हॉकी चैंपियनशिप जीती, एक ऐसी उपलब्धि जो इससे पहले, और बाद में भी, कभी हासिल नहीं की गयी। यह ऐतिहासिक जीत तब मिली थी, जब किसी वक्त अजेय रही टीम, जिसने कभी आठ ओलंपिक स्वर्ण जीते थे लेकिन सत्तर का दशक आते-आते ‘अपराजेयता’ का तमगा गंवा चुकी थी। 1960 में भारत को ओलंपिक विजेता की गद्दी से उतरना पड़ा था। देश विभाजन के चलते अस्तित्व में आया पाकिस्तान भारतीयों के लिए तगड़ा प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा। इस प्रतिद्वंद्विता ने हॉकी जगत को रोमांच से भर दिया था, जिसमें भारत ने 1964 के ओलंपिक में वापसी करते हुए एक बार फिर स्वर्ण पदक जीता। इस जीत के बावजूद भारत का ग्राफ नीचे गिरता गया, जिसका असर 1968 के ओलंपिक में भी दिखा, जब वह तीसरे स्थान पर पिछड़ गया। पदक सुनहरी से बदलकर तांबई हो गया।

अगले सात साल भारतीय हॉकी टीम के पैर नहीं लग पाए, नंबर एक का रुतबा जाता रहा और 1980 के मास्को ओलंपिक के अलावा कोई ओलंपिक स्वर्ण हाथ नहीं आया। मॉस्को में जीता ओलंपिक स्वर्ण पदक कई मायनों में अलग था क्योंकि जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, इंग्लैंड और पाकिस्तान जैसे तगड़ी टीमों द्वारा बायकॉट के कारण इसका महत्व कम हो गया था। 1975 में विश्व कप जीतना एक तरह से टीम की आखिरी बड़ी हॉकी उपलब्धि है।

वह विश्व कप प्राकृतिक टर्फ (घास) पर खेले जाने वाले चंद प्रमुख हॉकी आयोजनों में से एक था, क्योंकि तब तक हॉकी की दुनिया में बदलाव आने लगा था और अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए सिंथेटिक टर्फ पसंदीदा विकल्प बन रहा था। इसका भारत पर बहुत विपरीत असर पड़ा, क्योंकि सिंथेटिक टर्फ पर भारतीयों की कलाई की लचक, चकमा देने के कौशल में श्रेष्ठता की तुलना में फिटनेस, गति और स्टेमिना अधिक मायने रखते थे।

कुआलालंपुर में 32 में से 8 मैच बारिश के कारण स्थगित करने पड़े थे, इसने भी विश्व हॉकी महासंघ के अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट सिंथेटिक टर्फ पर खिलाने के फैसले को गति दी। यह भारत में हाकी के लिए घातक झटका रहा,जो पहले ही प्रशासकों की आपसी खींचतान और भाई-भतीजावाद से पीड़ित थी, परिणामस्वरूप 1975 विश्व कप आयोजन भारत से मलेशिया स्थानांतरित किया गया था।

एक ओर जहां खिलाड़ी बड़े आयोजन की तैयारी कर रहे थे, भारतीय हॉकी महासंघ के दक्षिणी और उत्तरी गुट गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में व्यस्त थे। अदालत में चल रहे मामलों और इस खेल के दो सबसे शक्तिशाली प्रशासक - दक्षिण से व्यवसायी एमएएम रामास्वामी और पंजाब से पूर्व आईपीएस अधिकारी अश्विनी कुमार – के बीच कलह के कारण, अंतर्राष्ट्रीय खेल संघ ने विश्व कप आयोजन भारत से बाहर स्थानांतरित किया।

उत्तर लॉबी के खिलाफ भाई-भतीजावाद के आरोप थे, जिसमें उन पर भारतीय टीम में पंजाबियों को भरने का आरोप लगाया गया। साल 1968 के ओलंपिक में मिली पराजय के पीछे गलत चयन और पक्षपात को जिम्मेदार ठहराया गया कि 16 सदस्यीय टीम में नौ खिलाड़ी एक ही समुदाय से थे।

यह लेख प्रशासकों पर न होकर, भारतीय हॉकी की जीत और उससे जुड़ी कई कहानियों की गाथा है। एक ऐसा देश जहां खेल उपलब्धियों का रिकॉर्ड बहुत कम या नगण्य हो, पिछले महीने उसकी राजधानी नई दिल्ली स्थित शिवाजी स्टेडियम में किस्सों और तथ्यों से भरपूर एक किताब का विमोचन किया गया। जिसके संयुक्त लेखकों में एक हैं, के. अरुमुगम जिन्होंने केंद्र सरकार में अपनी उपनिदेशक की नौकरी छोड़कर नब्बे के दशक में अपनी सारी ऊर्जा और समय भारत में हॉकी के उत्थान में लगा दिये। इस पुस्तक के सह लेखक हैं, अनुभवी खेल लेखक एरोल डीक्रूज़। पुस्तक का नाम है –‘मार्च ऑफ़ ग्लोरी : विश्व कप 1975 में भारतीय विजय गाथा’। यह जीत कैसे हासिल हुई, यह किताब उसका विस्तृत किस्सा है। आईआईटी मुंबई से शिक्षा प्राप्त अरुमुगम ने 14 किताबें लिखी हैं, जिनमें ज़्यादातर हॉकी पर हैं। इस पुस्तक के विमोचन समारोह में हॉकी के कई दिग्गज शामिल हुए। इनमें हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के बेटे और विरोधियों को चकमा देने की कला में माहिर खिलाड़ी अशोक कुमार भी एक थे। उन्होंने बताया कि विश्व कप जीत का उनके, टीम और देश के लिए क्या मतलब था।

1975 में 26 साल की उम्र में अशोक बाकमाल ड्रिबलर थे, जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल में एक रिबाउंड पर मैच जिताऊ गोल दागा था। पाकिस्तान ने इस गोल का विरोध किया, कि गेंद गोल के बाहरी पोस्ट से टकराई थी, लेकिन भारतीय इससे सहमत नहीं थे और सबसे अहम कि मलेशियाई रेफरी जी. विजयनाथन भी इस एतराज से इत्तेफाक नहीं रखते थे। गोल माना गया और भारत की जीत हुई। किताब में इस गोल पर विजयनाथन का पक्ष भी है, जिसमें उन्होंने पक्षपात के सभी आरोपों को खारिज किया है और 1973 के फाइनल में अपने विवादास्पद फैसले का संदर्भ दिया, जब उन्होंने नीदरलैंड के खिलाफ सुरजीत सिंह के पेनल्टी कॉर्नर गोल को खारिज कर दिया था। अगर वह गोल मंजूर हो जाता, तो भारत 3-0 से आगे हो जाता। इतिहास में दर्ज है कि नीदरलैंड ने न केवल 2-2 से बराबरी की, बल्कि पेनल्टी शूटआउट जीतकर विश्व कप जीता। अशोक कुमार ने बताया कि टूर्नामेंट से पहले चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय के मैदान पर लगे तैयारी शिविर का खिलाड़ियों को प्रेरित करने में सकारात्मक प्रभाव रहा। इससे उन्हें फाइनल में पाकिस्तान को हराने में मदद मिली!

उन दिनों पाकिस्तान एक ‘जानी दुश्मन’ था, तथापि यह प्रतिद्वंद्विता हॉकी के मैदान तक ही सीमित थी। इसके बाहर, वे दोस्त थे, जिसका उदाहरण है- भारतीय कोच और मैनेजर, महान खिलाड़ी बलबीर सिंह (सीनियर), फाइनल से एक दिन पहले पाकिस्तानी टीम के साथ मस्जिद में गए।

तीन बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता बलबीर की मौजूदगी टीम का मार्गदर्शन करने और रणनीति बनाने में प्रेरणादायक थी। मलेशिया के खिलाफ़ सेमीफाइनल में जब भारत हार की कगार पर था, तब भारत के 1-2 से पिछड़ने पर वैकल्पिक खिलाड़ी और डिफेंडर असलम शेर खान को मैदान में उतारा गया। भारत में करोड़ों लोग रेडियो से सटे कमेंट्री सुन रहे थे, जिसमें जसदेव सिंह की आवाज़ में भारतीयों का दिल एक बार फिर टूटने का डर झलक रहा था। मैच खत्म होने में अब सिर्फ़ 12 मिनट बचे थे, जब भारत ने पेनल्टी कॉर्नर अर्जित किया। सब को आश्चर्य हुआ,जब स्ट्राइक लेने के लिए असलम को चुना गया। असलम ने हिट मारी, एक सेकंड के लिए जसदेव की आवाज़ खो सी गई,फिर वे जोर से चीखे: ‘गो....…ल’। भारत की स्वर्ण की दावेदारी फिर से हरी हो गई और दो दिन बाद उसने विश्व कप चैंपियन बनने का अपना अंतिम लक्ष्य हासिल कर लिया।

लेखक खेल विषयों के वरिष्ठ स्तंभकार हैं।

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