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दीवारें उठी तो छोटा होगा हमारा आंगन

विश्वनाथ सचदेव संभल की जामा मस्जिद का विवाद अभी सुलग ही रहा था कि अजमेर की दरगाह को भी विवाद के घेरे में उलझा दिया गया है। कहा जा रहा है कि यह दरगाह भी किसी हिंदू मंदिर को ढहा...
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विश्वनाथ सचदेव

संभल की जामा मस्जिद का विवाद अभी सुलग ही रहा था कि अजमेर की दरगाह को भी विवाद के घेरे में उलझा दिया गया है। कहा जा रहा है कि यह दरगाह भी किसी हिंदू मंदिर को ढहा कर बनायी गयी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में कई मस्जिदें मंदिरों के ऊपर बनायी गयीं। वह हमारे इतिहास का हिस्सा है। यह काम न होता तो अच्छा था। मंदिर अपनी जगह बने रहते, मस्जिदें अपनी जगह बनतीं। लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि विजेता पक्ष अपनी महत्ता और ताकत को साबित करने के लिए इस तरह के दंभपूर्ण काम करता है। अपने ही देश में एक धर्म के मंदिर ढहा कर दूसरे धर्म का पूजा स्थल बनाये जाने के ढेरों उदाहरण हैं। न जाने कितने बौद्ध मंदिर हिंदू मंदिरों को ढहा कर बने थे, और इसका विपरीत काम भी हुआ था।

नि:संदेह, धर्म के नाम पर यह ‘लड़ाई’ निंदनीय ही कही जा सकती है। यह भी समझना होगा कि इस तरह की लड़ाई अनंतकाल तक नहीं चल सकती। कहीं तो इस पर पूर्ण-विराम लगना ही चाहिए था। स्वतंत्र भारत के नेतृत्व में आज़ादी पाने के दिन अर्थात‍् 15 अगस्त, 1947 यह पूर्ण-विराम घोषित कर दिया। हमारी संसद ने वर्ष 1991 में एक कानून बनाकर यह तय कर दिया कि देश के सभी धार्मिक स्थल उसी रूप में रहेंगे जो सन‍् 15 अगस्त, 1947 को था– सिर्फ बाबरी मस्जिद के प्रकरण को इससे बाहर रखा गया था, क्योंकि यह विवाद तब न्यायालय में पहुंच चुका था। बहरहाल, अब वह विवाद नहीं रहा, अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन चुका है। उम्मीद की गयी थी कि इसके साथ ही ‘इतिहास को ठीक’ करने का तर्क भी समाप्त हो जायेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने तो स्पष्ट कहा था कि मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने की कवायद बंद होनी चाहिए। पर ऐसा हुआ नहीं। कहना चाहिए ऐसा होने नहीं दिया जा रहा। कुछ तत्वों से जुड़े लोग चाहते हैं, कि इस विवाद की आंच जलती रहे। संभल और अजमेर में यही आंच जलाये रखने की कोशिश हो रही है। इससे, किसे क्या लाभ होगा यह वही जाने, पर नुकसान सारे देश को हो रहा है। अतीत के ‘अपराधों’ को ठीक करने के नाम पर हम अपने भविष्य के प्रति ‘अपराध’ किये जा रहे हैं!

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संविधान की मूलभूत भावना की रक्षा के लिए हमने ‘पूजास्थल कानून’ बनाया था। तय किया था कि अब किसी पूजा स्थल में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं होगा। स्पष्ट है, यह बीती को बिसार के आगे की सुधि लेने वाला निर्णय था। ताकि भविष्य सुरक्षित रहे, बेहतर हो। अब इस महत्वपूर्ण निर्णय को स्वयं न्याय व्यवस्था नकारती-सी दिख रही हैं। पहले वाराणसी में, और अब संभल में मस्जिदों के नीचे दबे मंदिरों की न्यायिक जांच करने का आदेश देकर जैसे किसी बांध का दरवाजा खोल दिया है।

इस संदर्भ में भीड़-तंत्र सांप्रदायिकता को ही हवा दे रहा है। इसके अलावा और क्या मतलब हो सकता है ‘वोट जिहाद’ जैसे नारों का? यही नहीं, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारे वोट भले ही दिलवा दें, पर इससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द पर आंच ही आयेगी। आज आवश्यकता सांप्रदायिकता की आग पर पानी-मिट्टी डालने की है, लेकिन एक तरह से विवाद को भड़काया ही जा रहा है। ‘मेरा मंदिर, तेरी मस्जिद’ वाला यह खेल अब बंद होना ही चाहिए। विभाजन के बाद जो अल्पसंख्यक ‘अपना वतन’ छोड़कर पाकिस्तान नहीं गये थे, उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना सही नहीं है। अब भी कभी-कभी हमारे कुछ नेता देश के मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की सलाह देकर शायद उन्हें यह जताना चाहते हैं कि वे भारत में अवश्य हैं, पर भारत के नहीं हैं। इस तरह की भावना भड़काने वाले गलत ही कर रहे हैं।

देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने संविधान सभा में ‘अल्पसंख्यक रिपोर्ट’ पेश करते हुए एक चेतावनी दी थी देश के बहुसंख्यकों को। उन्होंने कहा था यह हम बहुसंख्यकों को समझना है कि अल्पसंख्यक समुदाय क्या अनुभव कर रहा होगा और यह भी कि हमारे बारे में भी वही सोचा जाये जैसा अल्पसंख्यकों के बारे में सोचा जा रहा है तो हमें कैसा लगेगा?’

यह प्रश्न नहीं था, चेतावनी थी जो सरदार पटेल ने देश के बहुसंख्यकों को दी थी। और यह आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी 1949 में थी, जब लौह पुरुष सरदार पटेल ने देश को सांप्रदायिकता के खतरे से आगाह किया था। आज़ादी के इन 75 सालों में ऐसे बहुत मौके आये हैं जब हमने ‘ईश्वर एक है’ की अपनी मान्यता को विश्व के समक्ष एक आदर्श के रूप में रखा है। यदि हम इस बात को मानते हैं तो फिर ऐसा कुछ बचा नहीं रहता जो धर्म के आधार पर हमें बांटे। आज संभल या अजमेर जैसे मुद्दे उठाकर हमारी वसुधैव कुटुंबकम‍् वाली मान्यता को चुनौती दी जा रही है। सारे विश्व को एक परिवार मानने वाला हमारा दर्शन किसी को पराया नहीं, अपना मानने का ही मंत्र देता है। विवेक का तकाजा है कि हम हिंदू-मुसलमान, सिख या ईसाई में मनुष्य को बांटने की प्रवृत्ति को पूरी ताकत से नकारें। जुड़ना सिर्फ हिंदुओं को नहीं है, देश के हर नागरिक को जुड़ना है– एक भारतीय नागरिक के रूप में जुड़ना है। संभल में जो हो रहा है अथवा अजमेर में जो किये जाने की कोशिश की जा रही है, वह हमें जोड़ेगी नहीं, सिर्फ तोड़ेगी। बांटेगी।

सर संघचालक मोहन भागवत की इस बात को अमल में लाने की आवश्यकता है कि मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने की कवायद अब बंद होनी चाहिए। भागवत से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह अपने इस महत्वपूर्ण कथन को अमल में लाने का वातावरण तैयार करें। अपने अनुयायियों को समझाएं कि देश के हर नागरिक का देश पर समान अधिकार है, और यह भी कि हर नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह देश- हित के बारे में सोचे, देश-हित को सर्वोपरि माने।

मंदिर-मस्जिद वाला यह खेल अब बंद होना चाहिए। धार्मिक-स्थलों वाला 1991 वाला कानून देश में ईमानदारी के साथ लागू होना चाहिए। न्यायिक व्यवस्था से भी यही अपेक्षा की जाती है कि वह कानून के पालन का वातावरण बनाने में योगदान दें, न कि विवादों को हवा देने का काम करें। वर्ष 1991 में हमने मंदिर-मस्जिद के नाम पर होने वाले विवादों को समाप्त करने का एक सार्थक प्रयास किया था, उस प्रयास को धार देने की जरूरत है, उसे भुलाकर हम भविष्य के प्रति अपने कर्तव्य को ही भुला रहे हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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