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संकट से जुड़े अंतर्सूत्रों को समग्रता में पहचानें

गिरता लिंग अनुपात
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लिंगानुपात में गिरावट के कारणों को समग्रता में पहचान कर उनके खिलाफ सामाजिक स्तर पर बड़ा सुधार आन्दोलन छेड़ने की जरूरत है। प्रशासनिक स्तर पर कानून को सख्ती से लागू करने के लिए हर स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करने की सख्त जरूरत है।

डॉ. जगमति सांगवान

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वर्ष 2024 के जन्म दर लिंगानुपात के आंकड़े हरियाणा में गिरते लिंगानुपात को दर्शाते हैं, जो महिलाओं के प्रति बढ़ते भेदभाव और सामाजिक लैंगिक असमानता को संकेतित करते हैं। हालांकि, पिछले दशक में किए गए प्रयासों से कुछ सुधार हुआ था, लेकिन 2024 के आंकड़े उस प्रयास को बड़े झटके की तरह सामने लाए हैं, जो राज्य में लड़की जन्म दर को बढ़ाने के लिए उठाए गए थे।

वर्ष 2014 में हरियाणा का जन्म दर लिंगानुपात 871 था, जो 2016 में बढ़कर 900 और 2019 में 923 हुआ। हालांकि, इसके बाद 2024 में इसमें 13 अंकों की गिरावट आई और यह 910 पर पहुंच गया। इसके परिणामस्वरूप, हरियाणा का कुल लिंगानुपात 1000:879 हो गया, जबकि राष्ट्रीय अनुपात 1000:940 है, जो चिंता का कारण बनता है।

पुत्र की अनिवार्यता की पुरानी धारणा, जो मुखाग्नि देने और वंश बेल को आगे बढ़ाने से जुड़ी रही है, अब बदल रही है। हाल ही में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री द्वारा मुखाग्नि देने या बेटियों द्वारा मां-बाप की अर्थी को कंधा देने जैसे उदाहरण सकारात्मक बदलाव को दर्शाते हैं। समाज में इस बदलाव को समर्थन देने के लिए कई पहल हो रही हैं, जैसे लड़की के जन्म पर उत्सव मनाना, लड़कियों को वंश की वारिस मानना, और महिलाओं के नामों को सम्मानजनक रूप में बदलना। इन प्रयासों को बढ़ावा देने की जरूरत है।

बेटियों द्वारा खेलों और शिक्षा के क्षेत्र में सफलता हासिल कर परिवारों और देश का नाम रोशन करना एक सकारात्मक बदलाव का संकेत है। हालांकि, गिरते लिंगानुपात के अन्य कारणों में प्रशासनिक और सरकारी प्रयासों की दिशा उत्साहजनक नहीं रही है। महिला सुरक्षा और आर्थिक संकट के बावजूद, दहेज और शादियों पर बढ़ते खर्चों के खिलाफ ठोस कदम उठाने की जरूरत है। रिसर्च से यह साफ है कि ये अंध उपभोक्तावादी प्रचलन गिरते लिंगानुपात में योगदान दे रहे हैं। निर्भया कांड और अन्य समान घटनाओं ने महिला सुरक्षा को एक ज्वलंत मुद्दा बना दिया था। वर्ष 2015 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना हरियाणा से शुरू की गई और सरकार ने इस मुद्दे के समाधान के लिए कुछ प्रतिबद्धता दिखाई। लिंग जांच पर सख्ती और प्रदेशभर में छापेमारी की गई, हालांकि अभियान का बजट अधिकतर प्रचार पर खर्च हुआ। परिणामस्वरूप, लिंगानुपात में 52 अंकों का सुधार हुआ, लेकिन जनसंख्या विशेषज्ञों ने डाटा की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं। लिंगानुपात में गिरावट से चिंतित हरियाणा स्वास्थ्य विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव ने हाल ही में सभी सिविल सर्जनों को सख्ती बढ़ाने व हर 15 दिन में रिपोर्ट मुख्यालय भेजने के निर्देश दिए हैं।

वास्तव में समान लिंगानुपात की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में समझने और समग्र प्रयासों की आवश्यकता है। पुत्र लालसा और पुत्र अनिवार्यता की जड़ें हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में गहरे तक समाहित हैं, जो समाज में भेदभाव और पितृसत्तात्मक मानसिकता को बढ़ावा देती हैं। यदि हमारे आर्थिक-सामाजिक ढांचे में भेदभावपूर्ण तत्व हैं, तो उनके परिणाम स्वाभाविक रूप से सामने आएंगे। वहीं, वे राज्य जहां लिंगानुपात समान हैं, वे राज्य हैं जहां महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिला है और जहां समाज सुधार आंदोलनों ने प्रभावी बदलाव किए हैं।

वर्तमान में महिलाओं की समानता को बढ़ावा देने वाले कानूनों और मूल्यों को वर्ण व्यवस्था के अनुरूप ढालने की कोशिशें हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर, दहेज विरोधी कानून और जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के तहत महिला सुरक्षा के कानूनों के सार को कमजोर किया जा रहा है। ‘महिलाएं झूठे मुकदमे लगाती हैं’ जैसे भ्रामक प्रचार को बढ़ावा दिया जा रहा है, जबकि सर्वे और आंकड़े इस तरह की धारणा के खिलाफ हैं और इसे गलत साबित करते हैं। यह स्थिति महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के बजाय उन्हें कमजोर करने की दिशा में है।

उधर महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों और व्यक्तियों को निशाना बनाया जा रहा है। जिन लोगों ने महिला भ्रूण हत्या पर रोक लगाने के लिए संघर्ष किया, आज उन्हें उनके विभिन्न अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इसके विपरीत, पुत्र लालसा को बढ़ावा देने वालों को सम्मानित किया जा रहा है, जो महिला अधिकारों के खिलाफ एक नकारात्मक संदेश है। दूसरी तरफ यह तो मान्य तथ्य है ही कि बढ़ते आर्थिक संकट की कीमत महिलाएं ही सबसे ज्यादा अदा करने को अभिशप्त हैं। पढाइयां उन्हीं की छूटती हैं। बेरोजगारी से बढ़ती नशाखोरी की वजह से अनेक तरह के अपराधीकरण की वही सबसे ज्यादा शिकार होती हैं। आर्थिक संकट के दबाव में एक बच्चा पैदा करने की चेष्टा भी पुत्र प्राथमिकता की मनोवृत्ति के चलते लड़की के जन्म से बचा जा रहा है।

इस प्रकार इन सभी बिन्दुओं से गिरते लिंगानुपात के जो अन्तर्सूत्र जुड़े हुए हैं उन्हें समग्रता में पहचान कर उनके खिलाफ एक तरफ सामाजिक स्तर पर बड़ा समाज सुधार आन्दोलन छेड़ने की जरूरत है। प्रशासनिक स्तर पर पीसीपीएनडीटी कानून को सख्ती से लागू करने के लिए हर स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करने की सख्त जरूरत है। केवल माताओं को इस समस्या के लिए जिम्मेदार मानकर जवाबदेही से बचने का काम नहीं चलने वाला। धन लोलुपता में डूबे बेटी भ्रूणों की हत्या का धंधा करने वाले संगठित गिरोहों के खिलाफ तुरंत कार्रवाइयों के उदाहरण पेश करने होंगे।

लेखिका महिला अध्ययन केंद्र एमडीयू की पूर्व डायरेक्टर हैं।

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