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संविधान में वर्णित मूल्यों के प्रति ईमानदारी जरूरी

विश्वनाथ सचदेव पता नहीं देश में कितने लोग यह जानते-समझते हैं कि विभाजन विभीषिका का दिवस क्या है, पर यह बात अपने आप में दिलासा देने वाली है कि आज़ादी पाने और देश के विभाजन के 77 साल बाद हम...
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विश्वनाथ सचदेव

पता नहीं देश में कितने लोग यह जानते-समझते हैं कि विभाजन विभीषिका का दिवस क्या है, पर यह बात अपने आप में दिलासा देने वाली है कि आज़ादी पाने और देश के विभाजन के 77 साल बाद हम उस विभाजन की विभीषिका को याद कर रहे हैं। उसी तरह अब हमारी सरकार ने एक और दिन को याद रखने का उपक्रम किया है– 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू करके हमारे जनतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ा गया था। कारण कुछ भी बताये गये हों, पर देश को बहुत जल्दी ही यह अहसास हो गया था कि उस आपातकाल की घोषणा उन सारे मूल्यों को नकारने वाली थी जिनके आधार पर हमारे संविधान-निर्माताओं ने हमें एक जनतांत्रिक संविधान दिया था। हालांकि दो साल बाद यह आपातकाल उठा लिया गया था और एक बार फिर देश खुली हवा में सांस लेने लगा था, लेकिन यह ज़रूरी है कि उस दिन को भूला न जाये जिस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने शासन के सारे अधिकार अपने हाथ में लेकर एक तानाशाही व्यवस्था को देश के ऊपर लाद दिया था। न भूलने का कारण यह है कि हम इस बात के प्रति जागरूक रहें कि फिर कोई शासक तानाशाही को लादने की कोशिश न करे।

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बहरहाल, तब आपातकाल लागू करके देश के लाखों लोगों को जेल में डालने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी भूल स्वीकारते हुए आपातकाल को हटाकर देश में फिर से चुनाव कराये थे। उन्होंने अपनी इस ग़लती के लिए खेद भी जताया था। बाद में कांग्रेस सरकार के एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उस कुकृत्य के लिए देश से क्षमा मांगी थी। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता श्रीमती सोनिया गांधी ने भी इस क्षमा को दुहराया था और अब लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भी अपनी दादी द्वारा उठाये गये उस कदम को ‘बिल्कुल ग़लत’ बताया है। इस सब को याद करने का अर्थ यह है कि अब उस आपातकाल के लिए किसी को दोषी ठहराकर राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास करना बेमानी है। कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं समेत हर भारतीय को अब इस बात के लिए जागरूक रहना है कि फिर कभी ऐसी स्थितियां न बन सकें, फिर कोई शासक दुस्साहस न करे कि आपातकाल जैसा कुछ हमारे जनतांत्रिक देश में सिर उठा सके। इसके लिए ज़रूरी है आपातकाल को याद रखा जाये। इसीलिए हर 25 जून को देश के जागरूक नागरिक आपातकाल को याद करते हैं।

यही तर्क विभाजन की विभीषिका को याद करने के संदर्भ में भी लागू किया जा सकता है। याद रखा जाना चाहिए उस विभीषिका को याद रखने का मतलब यह है कि हम उन स्थितियों के प्रति सावधान रहें जिनके चलते देश ने विभाजन की विभीषिका को सहा था। हमारी सरकार ने इसी उद्देश्य से स्वतंत्रता दिवस अर्थात‍् 15 अगस्त से एक दिन पहले विभाजन विभीषिका का दिवस मनाने की घोषणा कर दी थी। अब यदि इसमें सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक स्वार्थों की गंध आती है तो उसे भी बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता। 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने का मतलब ही यह है कि हम अपनी गुलामी से जुड़ी यादों को ताज़ा करके संकल्पित हों कि अब हमारा देश कभी गुलाम नहीं बनेगा, हम उन ताकतों को सिर नहीं उठाने देंगे जो धर्म और जाति के नाम पर देश को, समाज को, बांटने की नापाक कोशिश करेंगी।

अब हमारी सरकार ने एक और दिवस मनाने की घोषणा कर दी है। राजपत्र में बाकायदा कहा गया है कि जिस दिन आपातकाल घोषित किया गया था यानी 25 जून को देश के संविधान की हत्या दिवस रूप में मनायेगा। यह सही है कि 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू करके संविधान के आधार पर चोट की गयी थी, पर यह भी सही है कि दो साल बाद ही, यानी 1977 में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश ने ऐसी व्यवस्था को देश में फिर से लागू कर दिया था। जिसमें कोई शासक आपातकाल जैसी कार्रवाई न कर सके। आवश्यकता इस तथ्य को रेखांकित करने की है कि हमारे देश में वह ताकत है जो आपातकाल जैसी स्थितियों को बदल सकती है। इसके लिए संविधान की हत्या जैसे अध्याय को नहीं, संविधान की रक्षा कर पाने के अध्याय को याद रखना ज़रूरी है।

तब जयप्रकाश नारायण ने ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का जयघोष दिया था। आपातकाल की घोषणा तानाशाही की ‘विजय’ थी तो देश में फिर से चुनाव होना जनतांत्रिक ताकतों की विजय की गाथा के रूप में याद किये जाने का अध्याय है। यह अध्याय देश की जनता को जगाने का भी था और यह बतलाने वाला भी कि तानाशाही इस देश के डीएनए में नहीं है। समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के चार स्तंभों पर खड़ा हमारे संविधान का यह महल जनतंत्र में हमारी गहरी आस्था का प्रतीक है। आज जनतंत्र की कथित हत्या की याद नहीं, जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों को अपने भीतर जिलाये रखने की आवश्यकता है।

हाल ही में हुए आम चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन ने संविधान की रक्षा का मुद्दा उठाया था। आरोप यह था कि भारतीय जनता पार्टी हमारे संविधान के बुनियादी मुद्दों को बदलना चाहती है। चुनाव परिणाम बताते हैं कि मतदाता को इस आरोप में कुछ सचाई लगी और उसने अपने वोट की ताकत से यह स्पष्ट कर दिया कि जनतांत्रिक मूल्यों में इस देश की निष्ठा बहुत गहरी है। आज देश में स्थिति यह बनी है कि कोई भी राजनीतिक दल या गठबंधन अपनी मनमानी से हमारे संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। लेकिन ऐसे में जनतंत्र की हत्या जैसा दिवस मनाने की बात कुछ हास्यास्पद-सी लगती है। आम चुनाव का परिणाम यह बताता है कि जब तक देश का मतदाता जागरूक है, हमारे संविधान की बुनियाद को हिलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। होना तो यह चाहिए था कि चुनाव परिणाम से शिक्षा लेकर हमारे राजनीतिक दल अपने गिरेबान में झांकते, पर हो कुछ और ही रहा है। 25 जून की तिथि को देश भूल नहीं सकता। उसे भुलाया भी नहीं जाना चाहिए। उसे याद रखकर इस आशय का संकल्प लेना चाहिए कि फिर कभी अजनतंत्रिक सोच को सर नहीं उठाने दिया जायेगा। संविधान का अपमान करने की छूट किसी को नहीं होगी। 25 जून, 1975 को हमारे संविधान की हत्या नहीं हुई थी। जनतांत्रिक मूल्यों में देश के विश्वास को चुनौती दी गई थी। हमने इस चुनौती को स्वीकारा, हराया भी। पिछली आधी सदी इस बात का प्रमाण है कि देश का नागरिक संविधान की रक्षा के प्रति जागरूक है। यह जागरूकता बनी रहे यह काम संविधान की हत्या जैसा दिवस बनाकर नहीं होगा, संविधान में अपनी आस्था को प्रमाणित करके ही होगा। प्रमाण इस बात से मिलेगा कि हम क्या सोचते-करते हैं, संविधान में वर्णित मूल्यों-आदर्शों के प्रति हम कितनी ईमानदारी से विश्वास करते हैं। सवाल सोच की ईमानदारी को बनाये रखने का है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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