इंद्रजीत सिंह
चंडीगढ़ के मौजूदा दर्जे के साथ केंद्र सरकार ने जान-बूझकर जिस तरह से छेड़छाड़ की है, उससे स्पष्ट है कि वह इसे दोनों प्रदेशों के विवाद का विषय बनाकर राजनीतिक लाभ लेने की मंशा रखती है। भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (बीबीएमबी) के नियमों में परिवर्तन और चंडीगढ़ के कर्मचारियों को केंद्रीय सेवा नियमों की परिधि में लाने के कदमों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने और समझने की जरूरत है कि भाजपा शासन के तहत सत्ता के केंद्रीयकरण की प्रबल प्रवृत्तियों के चलते राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण किया जा रहा है।
राज्य सरकारों के अधिकारों पर हमले के तौर पर देखने की बजाय भगवंत मान सरकार ने 1 अप्रैल को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर चंडीगढ़ को पंजाब में मिलाने की मांग कर डाली। वास्तव में यह कदम केंद्र के मंसूबों का प्रतिवाद करने की बजाय उसके झांसे में आने जैसा लगता है।
इसके उपरांत हरियाणा की भाजपा-जजपा सरकार ने भी विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पंजाब के प्रस्ताव का प्रतिवाद और निंदा करते हुए हिंदी भाषी क्षेत्रों को हरियाणा में मिलाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करते हुए सतलुज-यमुना लिंक नहर के अधूरे निर्माण को पूरा करने की मांग उठा दी है। इस बीच केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ की भाजपा इकाई ने इस पर प्रस्ताव पास कर डाला कि चंडीगढ़ पर किसी प्रदेश का अधिकार नहीं है और इसे केंद्रशासित क्षेत्र रखते हुए यहां अलग विधानसभा बनाई जाए।
बहरहाल, इस मामले में संयुक्त किसान मोर्चा की पहलकदमी अपने आप में उल्लेखनीय रही, जिसने चंडीगढ़ के कर्मचारियों को केंद्रीय सेवा नियम के अंतर्गत लाने के प्रतिगामी कदम को राज्यों के अधिकारों का खुला उल्लंघन बताते हुए उस अधिसूचना को वापस लिए जाने को जोरदार ढंग से उठाया। दूसरा यह कि अलगाववादी नारों को जनता की जिंदगी और आजीविका से जुड़े वास्तविक सवालों से ध्यान हटाने के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। इसलिए उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ जिस व्यापक एकता की आज जरूरत है, उसे ऐसे विवाद कमजोर करते हैं। क्षेत्र, धर्म, जाति, संप्रदाय इत्यादि के नाम पर जनता के विभिन्न तबकों को ही एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देने की क्षमता इन संवेदनशील विवादास्पद मामलों में है। ठीक यही पहलू खास तौर पर निर्णायक हो जाता है कि केंद्र-राज्य संबंधों की संवैधानिक प्रस्थापना के परिप्रेक्ष्य में रखते हुए यदि सही जनतांत्रिक स्थिति नहीं ली जाती है तो यह प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ताकतों के दुरुपयोग के वास्ते खुला छोड़ने जैसा है।
यह संयोगवश नहीं है कि चंडीगढ़ का मामला फिर से केंद्रीय गृह मंत्रालय के क्रियाकलापों के कारण गरमाने की चेष्टा हो रही है। इसमें बेशक कई राजनीतिक पार्टियों ने पर्याप्त जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया। अलबत्ता किसान आंदोलन की अगुवाई करने वाले अनेक किसान संगठनों ने आम किसानों की इस भावना को समझा है कि चंडीगढ़ और एसवाईएल आदि सवालों को उठाकर आंदोलन के दौरान अर्जित हुई पंजाब और हरियाणा के किसानों की एकता को तोड़ने की कोशिश ही है।
अगर हरियाणा और पंजाब के बीच पानी के बंटवारे, हिंदी-पंजाबी भाषी इलाकों और चंडीगढ़ के भविष्य की बात करें तो यह राज्यों के पुनर्गठन के समय से लंबित हैं। दोनों ओर से किए जाते रहे दावों और प्रतिदावों पर विगत में आधा दर्जन से ज्यादा कमीशन और न्यायिक आयोग बनाए गए। इन आयोगों द्वारा भी अलग-अलग तरह की सिफारिशें दिए जाने और निहित स्वार्थों की राजनीति के चलते यह तमाम सवाल और भी ज्यादा जटिल बना दिए गए। वर्ष 1985 में हुआ राजीव- लौंगोवाल समझौता ही ऐसा था जिसे सर्वाधिक स्वीकार्यता प्राप्त हुई थी, लेकिन उसे भी सिरे नहीं चढ़ने दिया गया। दुर्भाग्य से संत हरचंद सिंह लौंगोवाल की आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई और दोनों प्रदेशों में इसके खिलाफ भी आंदोलन छेड़ दिए गए। इस विभाजनकारी राजनीति से विभिन्न पार्टियों को चुनावी लाभ तो अवश्य मिले और उनकी सरकारें भी बनीं। केंद्र में भाजपा की सरकार और राज्यों में गठबंधन सरकारों में भाजपा थी, लेकिन इन्होंने कभी भी इन सवालों को हल करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई।
परिणामस्वरूप लोगों में पैदा किए गए जज्बात को धार्मिक तत्ववादी और क्षेत्रीय संकीर्णता की राजनीति ने जमकर भुनाया और उग्रवाद तथा आतंकवाद के लंबे काले दौर के रूप में इसके जो भयानक परिणाम निकले, उन्हें सदियों तक भुलाया नहीं जा सकता।
यह सही है कि राज्यों के बीच के विवादास्पद मुद्दों को हल किए जाने की जरूरत तो है पर जिस तरीके से हाल ही में इन सवालों को उठाया जा रहा है, उससे तो न केवल ये और अधिक उलझ जाएंगे बल्कि जनता के बीच कड़वाहट बढ़ेगी और राष्ट्रीय हित की दृष्टि से अच्छे परिणाम नहीं निकलेंगे।