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अपने आकाश की तलाश में उड़ान

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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शमीम शर्मा

बेटियों के ब्याह कर चले जाने पर किसी ने कहा है :-

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ऐसा लगता है खतम जैसे मेला हो गया,

उड़ गई आंगन से चिड़िया घर अकेला हो गया।

अपने घर-परिवारों में बेटियों के लिए बहुत उपमायें दी जाती रही हैैं और इनमें सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली उपमा है- बाबुल की चिड़िया। सचमुच जैसे चिड़िया अपने घोसले से उड़ जाती हैं, वैसे ही बेटियां अपने पिता के आंगन से बहुत दूर अनजान किसी आंगन में जाकर बस जाती हैं। एक पंजाबी लोकगीत इस भाव को बेहतर व्यक्त करता है :-

साडा चिड़ियां दा चंबा वे बाबल असां उड़ जाणा,

साडी लम्बी उडारी वे बाबल केहड़े देस जाणा।

सचमुच बेटियां चिड़िया की तरह होती हैं क्योंकि वे चिड़िया की तरह ही फुदकती फिरती हैं, चहकती हैं, कहीं भी झूला डाल लेती हैं, जो मिल जाये चुग्गे की तरह चुग लेती हैं।

समय के साथ-साथ बाबुल की ये चिड़ियां बहुत बदल गई हैं। अब ये दाना-चुग्गा तो अपनी पसंद का लेती ही हैं पर फुदकने के लिये जगह भी मन की चुनती हैं। इन्होंने अब किसी अनजान आंगन में नहीं बल्कि अच्छी तरह देखे-भाले घर में जाने का रास्ता खोज लिया है। कुछ चिड़ियां तो बिल्कुल आसपड़ोस में ही घोसला देख लेती हैं या लोकल ब्याह रचा लेती हैं। ऐसे में एक भाई का उलाहना है कि हमें तो कभी लगता ही नहीं है कि हमारी चिड़िया ने उड़ान भरी है क्योंकि हमारी चिड़िया तो रोज ही धमकी रहती है। पहले तो चिड़े को ही साथ लाया करती, अब तो एक चूजा गोद में और एक अंगुली पकड़े साथ आता है। हमारे आंगन में तो च्यां-प्यां मची ही रहती है। ऐसे भाई भूलकर भी यह गाना नहीं गाते :-

ओ री चिरैया, मेरी चिरैया, अंगना में फिर आजा रे।

कई बार तो लगता है कि अब हमारे आंगन की चिड़िया उड़ नहीं रही, भाग रही है। भागकर वे किसी ऐरे-गैरे के नाम का मंगलसूत्र पहन लेती हैं। फिर वे घर की रहती हैं न घाट की। मुझे उनसे इतना ही कहना है कि भागना ही है तो पीटी उषा या मिल्खा सिंह की तरह भागो। इस चाल में भागने वालियों को मंगलसूत्र तो मिल ही जायेगा, मैडल मिलेगा वो अलग।

ऐसी भी लड़कियां हैं जो अपने मां-बाप से अक्सर पूछती हैं कि उन्हें चिड़िया कहा जाता है पर उनके पंख कहां हैं। ये वे बेटियां हैं जिन्हें आज भी पढ़ने-बढ़ने की आजादी नहीं मिली है।

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एक बर की बात है अक एक पेड़ पै घणी सारी चिड़ियां बैठी थीं। अचानक सुरजे नैं बंदूक चला दी तो सारी चिड़ियां एक्केदम उड़गी पर एक बैट्ठी रही। सुरजे नैं अपणे ढब्बी तै बूज्झी अक या क्यूं नी उड़ी तो नत्थू बोल्या- भाई! मैडम के नखरे!

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