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आसन्न चुनौतियों के अनुरूप हो वित्तीय संबल

दशकों तक देश में नीति-नियंताओं की यह सोच मानक रही है कि जब बहुत ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी बटुआ ढीला करेंगे। यह आग लगने पर कुआं खोदने जैसा है। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में यही हुआ था, और भारी...
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दशकों तक देश में नीति-नियंताओं की यह सोच मानक रही है कि जब बहुत ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी बटुआ ढीला करेंगे। यह आग लगने पर कुआं खोदने जैसा है। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में यही हुआ था, और भारी कीमत चुकाकर राष्ट्रीय संप्रभुता को पुनः प्राप्त किया जा सका था।

सी. उदय भास्कर

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वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए रक्षा आवंटन 6,81,210 करोड़ रुपये रखा गया है यानी लगभग 78.7 बिलियन डॉलर। इतनी राशि मामूली नहीं है, जोकि केंद्र सरकार के सकल व्यय (सीजीई) का 13.45 प्रतिशत तो राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का तकरीबन 1.91 प्रतिशत है। हालांकि, बजट भाषण में रक्षा आवंटन का कोई उल्लेख नहीं था और यह अदृश्यता दिलचस्प है।

इस ‘अदृश्यता’ के बावजूद, इस राशि को विभिन्न अन्य पैमानों के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है और कुल मिलाकर निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय सशस्त्र बलों की युद्धक क्षमता को मौजूदा जरूरतों के अनुरूप सुनिश्चित बनाने के लिए जितना धन चाहिए, यह आवंटन उससे कम है। वैश्विक स्तर पर, 2024 में, अमेरिका का सैन्य खर्च 916 बिलियन डॉलर था और 296 बिलियन डॉलर के साथ चीन दूसरे स्थान पर था। यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि 2018 में रक्षा संबंधी स्थायी समिति (एससीओडी) ने रक्षा मंत्रालय के लिए आवंटन का मापदंड जीडीपी का 3 प्रतिशत रखने की सिफारिश की थी ताकि सशस्त्र बलों की उपयुक्त स्तर की तैयारी सुनिश्चित करने वाले राष्ट्रीय पारिस्थितिकी तंत्र को निरंतर खाद-पानी और पोषण मिलता रहे।

हालांकि, यह तीन प्रतिशत आवंटन एक मायावी आंकड़ा बना हुआ है और पिछले चार वर्षों में यानी 2020-21 से मौजूदा वित्तीय वर्ष तक– इस मद में गिरावट आई है। 2020-21 के लिए रक्षा आवंटन जीडीपी का 2.4 प्रतिशत था, जो 2025-26 के लिए घटाकर 1.91 फीसदी कर दिया गया है। पिछले कुछ सालों में इस अंतर की तरफ ध्यानाकर्षण तो बना है, लेकिन यह स्पष्ट है कि टीम मोदी द्वारा यह राजनीतिक निर्णय लिया गया है कि क्षेत्रीय भू-राजनीतिक माहौल और आंतरिक सुरक्षा चुनौतियां जटिल और चुनौतीपूर्ण बनी रहने के बावजूद रक्षा आवंटन कम रहेगा। वर्ष 2018 में, एससीओडी ने यह सिफारिश भी की थी कि थल सेना के मामले में– जो कि फौज की प्रमुख शाखा है और मूलतः मानव बल आधारित है– उसमें उपकरणों/साजो-सामान का मिश्रण आदर्शक रूप से ऐसा हो कि 30 प्रतिशत धन नए उपकरणों के लिए, 40 प्रतिशत मौजूदा साजो-सामान के वास्ते और 30 प्रतिशत पुरानी पीढ़ी के शस्त्रागार पर लगाया जाए।

लेकिन हकीकत गंभीर है। मार्च 2023 में, सेना ने एक स्पष्ट खुलासे में, स्थायी समिति को अवगत कराया कि सेना के केवल 15 प्रतिशत उपकरणों को ही नए उपकरण श्रेणी में रखा जा सकता है, जबकि लगभग 45 प्रतिशत अस्त्र-शस्त्र-उपकरण पुराने पड़ चुके हैं। सेना के प्रतिनिधि ने संसदीय समिति को यह भी बताया कि ‘30:40:30’ वाली आदर्शक स्थिति पाने को हमें कुछ वक्त लगेगा’। अपर्याप्त राजकोषीय आवंटन और रणनीतिक योजना की विसंगति के कारण पिछले एक दशक में भारतीय सेना की समग्र लड़ाकू क्षमता घटती चलती गई है। ‘आत्मनिर्भरता’ पाने का शोर मचाने पर ज्यादा जोर देने से इसमें और जटिलता आई है। भारत द्वारा रक्षा मामले में आत्मनिर्भरता की कोशिशें वैश्विक लिहाज से वास्तव में जरूरी हैं, लेकिन युद्धक क्षमता बनाम स्वदेशीकरण एवं आत्मनिर्भरता के मामले में हकीकत उत्साहजनक नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में भारत के रक्षा और सैन्य क्षेत्र में सुधार के सराहनीय संकल्प के साथ पदभार संभाला था और ‘आत्मनिर्भरता’ बनाने को एक मुख्य मिशन के रूप में चिह्नित किया था। लेकिन एक दशक बाद भी, समग्र दृश्यावली मिश्रित और अपारदर्शी है।

एक व्यापक समीक्षा बताती है कि भले ही इस उद्देश्य की प्राप्ति में कुछ सफलता गाथाएं हैं और कुछ बड़ी परियोजनाएं पूरी होने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन भारतीय सेना में महत्वपूर्ण साजो-सामान की कमी बनी हुई है। इससे हो यह रहा है कि आज हमारी थल सेना तोपों, टैंकों और व्यक्तिगत हथियारों की कमी झेल रही है। एक नौसेना है,जो विमान वाहक जहाज से संलग्न लड़ाकू विमान और पानी के नीचे उपयुक्त युद्धक क्षमता पाने की प्रतीक्षा कर रही है, एक वायु सेना है जो लड़ाकू विमानों की बेहद कमी से जूझ रही है और एक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन है, जो अपने किए गए वादे तयशुदा समय-सीमा में पूरे करने में असमर्थ है। लड़ाकू क्षमता और स्वदेशीकरण के दोहरे उद्देश्यों को साकार करने के वास्ते, रक्षा बजट में पूंजीगत व्यय एक महत्वपूर्ण संकेतक है। यथेष्ट आंकड़ा 35 प्रतिशत से ऊपर होना चाहिए और इस मामले में परिदृश्य निराशाजनक है। कुल 6,81,210 करोड़ रुपये के मौजूदा रक्षा आवंटन में, पूंजीगत व्यय 1,80,000 करोड़ रुपये रखा गया है, जो कि 27 प्रतिशत से कम बनता है।

जुलाई 2024 में पीआरएस (संसदीय अनुसंधान सेवा) की एक बेहतरीन रिपोर्ट इस तथ्य को उजागर करती है कि 2014-15 और 2023-24 के बीच पूंजीगत व्यय का हिस्सा घटकर रक्षा बजट के 30 प्रतिशत से भी कम रखा गया। मौजूदा वित्त वर्ष में भी यह आवंटन इसी चलन के अनुरूप है और निकट भविष्य में इसमें बदलाव की संभावना नहीं है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात है वित्त वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमानों में पूंजीगत व्यय मद से 12,500 करोड़ रुपये की राशि को बिना खर्च किए लौटाया जाना। यह सेना के शीर्ष रक्षा प्रबंधन एवं रणनीतिक योजना का खराब अक्स है, जो पहले ही पुराने पड़ चुके शस्त्रास्त्र एवं उपकरणों आदि सामान की कमी से ग्रस्त है और इस पर ध्यान देना चाहिए।

रणनीतिक क्षेत्रों में आकांक्षित तकनीकी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पाने के राष्ट्रीय प्रयासों के केंद्र में अनुसंधान एवं विकास है और इस क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष और परमाणु क्षेत्र एक सफलता-सिद्ध उदाहरण हैं। लेकिन, सेना की ’आत्मनिर्भरता’ काबिलियत बनाने के संबंध में डीआरडीओ की कारगुजारी कोई बढ़िया नहीं रही। पीआरएस- 2024 रिपोर्ट में कहा गया है कि डीआरडीओ द्वारा शुरू की गई कई परियोजनाएं देरी से ग्रस्त हैं और इसमें आगे कहा गया है: ‘डीआरडीओ की 178 परियोजनाओं के विश्लेषण में, सीएजी ने पाया कि 119 परियोजनाएं मूल निर्धारित समय-सीमा का पालन नहीं कर रहीं। करीब 49 परियोजनाओं में लिया गया अतिरिक्त समय उस मूल समय से भी अधिक रहा, जिसे आरंभ में तय किया था। एक या इससे अधिक प्रमुख उद्देश्यों और मापदंडों पर पूरा उतरने के बावजूद परियोजनाओं को सफल घोषित कर दिया गया’। यह संस्थागत अयोग्यता और शिथिलता, दोनों का, मामला है और रक्षा प्रबंधन में उच्च स्तर पर बैठे लोगों पर भी प्रश्न है।

साल दर साल, सार्वजनिक डोमेन में रक्षा बजट अल्पकालिक समीक्षा के इस चरण से गुजरता है। और भले ही कमियां उजागर होती हैं, लेकिन यह सोच मानक बनी हुई है कि जब बहुत ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी बटुआ ढीला करेंगे। यह आग लगने पर कुआं खोदने जैसा है। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में यही हुआ था, और भारी कीमत चुकाकर राष्ट्रीय संप्रभुता को पुनः प्राप्त किया जा सका था। शत्रु को किसी भी प्रकार के दुस्साहस से रोकने के लिए विश्वसनीय सैन्य तैयारी दिखावा, तमाशा और अस्पष्टता को प्राथमिकता देकर नहीं पाई जा सकती।

लेखक रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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