डॉ. हेमंत कुमार पारीक
कभी पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ा हुआ पाठ याद आता है। अमर घर चल... जल्दी कर... पानी भर। उस वक्त बच्चे नगर निगम के नलों से पानी भरते थे। आज हर घर में नल है या नहीं, पर जल तो है। अगर घर में न मिले तो ऑनलाइन आर्डर पर मंगवाया जा सकता है अथवा सब्जी-भाजी की दुकान से पानी बोतलों या पाउच में खरीदा जा सकता है। विदेशों में तो पेट्रोल पम्प पर ही भरापूरा बाजार मिल जाता है। कुछ भी ले लो गंगाजल से रंगीन पानी तक। हॉट बाजार की यह संस्कृति हमारे दरवाजे पर खड़ी मुस्कुरा रही है।
कहीं भी कभी भी बाजार बन सकता है। यहां तक कि चलता-फिरता आदमी भी बाजार हो जाता है। आदमी खुद भरापूरा बाजार है। लीवर-किडनी सब बिकाऊ हैं। देख लो कुम्भ में क्या नहीं बिक रहा? सुंदरता के पुजारी रील बना बेच रहे हैं। हमारे मोहल्ले का बदमाश पकौड़े न तल सका तो यू-ट्यूबर बन गया। कुछ मिले न मिले नाचते-गाते आईआईटियन बाबा की रील तो है। वह भी खुश और बाबा भी खुश! आईआईटी से ग्रेजुएट आदमी की दुर्गति दुनिया देख रही है। तभी तो कोचिंग वाले भागते भूत की लंगोट समेट रहे हैं। अब बताइये दुनियाभर के शिक्षा संस्थानों की सूची में किस पायदान पर खड़े हैं हम?
इसी तरह फूल बेचने वाली एक महिला सरे बाजार वायरल हो रही है। कहो न किसी प्रोड्यूसर या डायरेक्टर की नजर पड़ गयी तो? नजर की बात है। किसी ने कहा है-नजर से नजर मिला कर तुम नजर लगा गए, कैसी लगी नजर कि हम हर नजर में आ गए।
सो इस वक्त नजर के माफिया यत्र-तत्र-सर्वत्र महाकुंभ में घूम रहे हैं। नजर में आने का सपना लिए कई साहित्यकार कंधे पर झोला टांगे छह इंच का मोबाइल लिए घूम रहे हैं। वहां एक्शन, कैमरा और कट नहीं। बाबा बनने की होड़ लगी है। नेतागिरी के बाद सबसे बेहतर धंधा है। अमर घर चलने वाली कविता पढ़ने की जरूरत नहीं। सीधे एमए, बीए की परीक्षा दो। हमने तो हरे, पीले, लाल और नीले रंग वाले प्रश्नपत्र देखे हैं। वे दिन हवा हुए। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, जमीन और मकान क्या, चरित्र का प्रमाणपत्र बांटने वाले माफिया भी मौजूद हैं बाजार में।
बाजार में पंक्चर सुधारने की दुकान से लेकर मोहब्बत की दुकान तक गुलजार हैं। ऐसी चीज जो बामुश्किल मिलती है, बाजार में दो कौड़ी की है। शिक्षा का बाजार माफियाओं से पटा पड़ा है। नीचे पढ़ने का सामान ऊपर दारू की दुकान! कितना बढ़िया मेल है। नीचे पढ़ो-लिखो ऊपर जाकर मजे से पियो।