ऑक्सफेम के अध्ययन के अनुसार, आर्थिक संपत्ति का अधिकतर हिस्सा कुछ हाथों में सिमटकर रह गया है, जबकि लाखों भारतीय आज भी रियायती गेहूं पर जीवन यापन कर रहे हैं। इस असमान वितरण के चलते भारत की आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
सुरेश सेठ
ऑक्सफेम इंटरनेशनल की हालिया रिपोर्ट ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के दौरान भारतीय संपत्ति और संसाधनों के दोहन पर केंद्रित रही। ऑक्सफेम के अनुसार, ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत की विशाल संपत्ति और संसाधनों का शोषण किया, जिसके कारण भारत के औद्योगिक और कृषि विकास की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ा। कहा जाता है कि भारत से जो धन ब्रिटेन पहुंचा, यदि वह धन ब्रिटेन में बिछा दिया जाए, तो पूरा ब्रिटेन उससे ढक सकता है। अगर इन संसाधनों का भारत में उपयोग होता तो यह न केवल देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करता, बल्कि भारत समतावादी और समृद्ध राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर होता।
स्वतंत्र भारत की नीतियों से बुनियादी ढांचे का विकास और उदारीकरण से निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन मिला है। फलत: भारत ने आर्थिक दृष्टि से ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि, केवल सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को आर्थिक विकास का सही मापदंड नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह महत्वपूर्ण है कि इस संपत्ति का संचय किन हाथों में हो रहा है। ऑक्सफेम के अध्ययन के अनुसार, आर्थिक संपत्ति का अधिकतर हिस्सा कुछ हाथों में सिमटकर रह गया है, जबकि लाखों भारतीय आज भी रियायती गेहूं पर जीवन यापन कर रहे हैं। इस असमान वितरण के चलते भारत की आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, विशेषकर जब नया बजट वंचित वर्ग के उत्थान पर केंद्रित है। यदि समृद्धि का एकत्रीकरण केवल कुछ वर्गों तक सीमित रहेगा, तो यह दीर्घकालिक समृद्धि और सामाजिक समरसता के लिए चुनौती बन सकता है।
भारत में उदारीकरण की शुरुआत 1991 में हुई, जब डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्तमंत्री के रूप में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने और कोटा-लाइसेंस राज को समाप्त करने का निर्णय लिया। इस नीति के तहत निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलने से देश ने तेज़ी से आर्थिक विकास की राह पकड़ी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीनों पारियों में भारत ने दुनिया में सबसे तेज़ गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का दर्जा प्राप्त किया। हालांकि, 2023 के अंत में विकास दर में थोड़ी गिरावट आई , फिर भी भारत की स्थिति स्थिर रही। जो इसके मजबूत बुनियादी ढांचे का परिणाम है। रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्रियों के अनुसार, यही स्थिरता भारत को अन्य देशों से पीछे नहीं पड़ने देती।
दुनिया में जहां एक ओर मुट्ठी भर अरबपतियों की संपत्ति तेजी से बढ़ रही है, वहीं करोड़ों साधारण लोग रोटी-रोजी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऑक्सफेम के अनुसार, अरबपतियों की संपत्ति में 2023 के मुकाबले तीन गुना वृद्धि हुई है, जो अब 15 हजार अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच चुकी है। यह संपत्ति अधिकतर उन हाथों में है जो वैश्विक आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं। वहीं, गरीबों की स्थिति में 1990 से कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। अरबपतियों की संपत्ति उनकी मेहनत से ज्यादा, विरासत, एकाधिकार और कार्टेल की सांठगांठ से उत्पन्न हुई है। इसके विपरीत, गरीब और मेहनती लोग, जिनके पास रोजी-रोटी और आत्म-सम्मान की गारंटी नहीं है, उन्हें अपनी मेहनत का भी उचित फल नहीं मिल पाता।
ऑक्सफेम इंटरनेशनल के अमिताभ बेहार ने चिंता जताई है कि धनी वर्ग और अधिक समृद्ध हो रहा है, जबकि गरीबों की स्थिति और कमजोर हो रही है, जिसे वे आधुनिक उपनिवेशवाद मानते हैं। इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा हड़प रही हैं। अमेरिका में एक अरबपति राष्ट्रपति बने और सबसे अमीर व्यक्ति उनका शीर्ष सलाहकार पद संभाल रहा है, और मंत्रिमंडल में 13 अरबपति शामिल हैं। इससे साफ है कि भविष्य का बजट अमीरों की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान देगा।
भारत की स्थिति अलग है, जहां बड़ी आबादी, जिसमें गरीब, किसान, मजदूर और बेरोजगार युवा शामिल हैं, उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार उनकी समस्याओं की ओर ध्यान देगी। महंगाई, भ्रष्टाचार का खात्मा और रोजगार जैसी प्रमुख मांगें हैं, जिनका समाधान बजट में होना चाहिए। इसके अलावा, मौद्रिक नीति में भी बदलाव की जरूरत है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से महंगाई नियंत्रण पर ज्यादा ध्यान दिया गया है, लेकिन अब इसे नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
अमेरिका की बदलती नीतियों और चीन के बदलते दृष्टिकोण ने भारत की मौद्रिक संभावनाओं के लिए नई चुनौतियां उत्पन्न की हैं, जिनका असर भारतीय शेयर बाजार और विदेशी पूंजी पर पड़ा है। इस आर्थिक परिवर्तनों के कारण शेयर बाजार में गिरावट आई और विदेशी पूंजी पलायन हुआ। ऐसे में, अब घरेलू निवेशकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, ताकि वे आत्मनिर्भरता के सपने को साकार करने के लिए निवेश करें। हालांकि, घरेलू निवेशकों का विश्वास भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी बना हुआ है।
भारत को अपनी नई आर्थिक नीति में इस विश्वास को संबल देने की कोशिश करनी चाहिए, न केवल बड़े निवेशकों, बल्कि छोटे और कुटीर उद्योगों के निवेशकों को भी इसका फायदा मिल सकेगा। स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से समावेशी आर्थिक नीति की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है।
लेखक साहित्यकार हैं।