एक्सपायरी दवाओं का गलत निपटान पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। इनके सुरक्षित निस्तारण और इस दिशा में जागरूकता बढ़ाना समाज की जिम्मेदारी है, ताकि दवा अपशिष्ट से होने वाले दुष्प्रभाव रोके जा सकें।
खाद्य एवं औषधि प्रशासन के अनुसार, सभी दवाओं पर समापन तिथि अंकित होना अनिवार्य है। निर्माता आमतौर पर दवा की गुणवत्ता व सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु समापन तिथियों का रूढ़िवादी अनुमान प्रदान करते हैं। एक्सपायर दवाइयां रखना अथवा इनका सेवन करना जितना ज़ोख़िमपूर्ण हो सकता है, उससे कहीं अधिक घातक सिद्ध होता है इनका असुरक्षित निपटान। एक अध्ययन के मुताबिक़ 60 प्रतिशत से अधिक लोग निस्तारण निर्देशों से सर्वथा अपरिचित हैं।
भारतवर्ष में ‘बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, 2016’ के आधार पर अस्पताल, नर्सिंग होम, क्लिनिक, डायग्नोस्टिक लैब और मेडिकल कॉलेज जैसे संस्थानों को अपने यहां उत्पन्न होने वाला मेडिकल वेस्ट सुरक्षित तरीके से एकत्रित करके अधिकृत ट्रीटमेंट फैसिलिटी तक पहुंचाना होता है। नियमों के तहत, फार्मेसियों तथा अस्पतालों में भी दवाओं के लिए अलग से मेडिसिन ड्रॉप बॉक्स-कंटेनर आदि रखे जा सकते हैं, जिससे रोगी पुरानी या एक्सपायरी दवाइयां लौटा सकें।
घरेलू स्तर पर अनुपयोगी दवा निस्तारण संबद्ध व्यवस्था खंगालें तो इस संदर्भ में कोई स्पष्ट नीति नहीं। वास्तव में, देश के अनेक शहरों में अभी तक कोई आधिकारिक या व्यवस्थित सिस्टम नहीं बन पाया। न तो एक्सपायर दवाइयों को निपटाने हेतु कोई ठोस संग्रहण नीति बनी है, न ही अपेक्षित सतर्कता को लेकर पर्याप्त जन-जागरूकता अभियान ही चलाए जाते हैं। कतिपय प्रयत्न यदि होते हैं तो अधिकतर निजी संस्थानों या समाजसेवकों के हवाले से ही।
एक्सपायरी दवाइयां समय के साथ विषाक्त रसायनों में परिवर्तित होने लगती हैं। समुचित निस्तारण न हो तो इनका दुष्प्रभाव समूचे पर्यावरण को विषैला बना सकता है। ज्यादातर मामलों में दवाएं शौचालय में बहाना जीवों, पर्यावरण और जलापूर्ति के लिए बेहद हानिकारक हो सकता है। बावजूद इसके, 2020 की एक शोध-समीक्षा के मुताबिक़, अनुपयोगी दवा निपटान प्रबन्धन के अभाव के चलते, कई देशों में रोगियों द्वारा पुरानी-एक्सपायरी दवाएं कचरे में फेंकना अथवा सीवर में बहाना निस्तारण का सबसे आम तरीका पाया गया।
भारत के बड़े शहरों में भी कमोबेश यही स्थिति है। कूड़े के ढेर में मुंह मारते आवारा पशु अथवा कुत्तों-कौओं के झुंड भक्ष्य पदार्थों की खोज में अक्सर असावधानीपूर्वक फेंकी गई दवाएं भी निगल जाते हैं। शरीर के लिए अहितकारी रसायनों से उनकी मौत तक हो सकती है। सिंक या शौचालय में बहाई दवाइयां शहर के सीवरेज़ सिस्टम से होती हुईं नदियों और भूमिगत जल में जा मिलती हैं। दवा में मौजूद विषाक्त रसायन जहां मिट्टी की उर्वरकता प्रभावित करते हैं, वहीं इससे पेयजल दूषित होने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं।
सीवेज सिस्टम में मौजूद दवाओं के तत्व जलीय जीवन को क्षति पहुंचाते हैं। जलापूर्ति में दवाओं की न्यूनतम मात्रा भी मानव स्वास्थ्य के लिए ख़तरा उत्पन्न करती है। कुछ दवाएं एंडोक्राइन डिसरप्शन का कारण बन सकती हैं, इससे मछलियों और मनुष्यों में हार्मोनल असंतुलन देखा गया। पानी में दवाओं की सूक्ष्म मात्रा एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध बढ़ा देती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे वैश्विक स्वास्थ्य संकट मानता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट का सहारा लेना पड़ता है।
अप्रयुक्त दवाइयों के निपटान का सर्वोत्तम तरीका है, अपने आस-पास स्थित किसी दवा वापसी केंद्र का इस्तेमाल करना। भारत में कुछ प्राइवेट फार्मेसियां यह सुविधा देती हैं। वर्ष, 2021 के दौरान तिरुवनंतपुरम में शुरू किया गया पायलट प्रोजेक्ट ‘प्राउड’ (अप्रयुक्त दवाओं को हटाने पर कार्यक्रम) इसी ध्येय पर आधारित रहा। प्रोजेक्ट के तहत 21 टन अनुपयोगी औषधियां संयोजित करके नष्ट की गईं। तत्पश्चात पूरे राज्य में लागू करने संबंधी निर्णय लेकर, केरल सरकार ने इसे अधिक संरक्षित तथा व्यापक रूप में विकसित करते हुए 22 फरवरी, 2025 को ‘एनप्राउड’ की नींव रखी। भारत में अपने प्रकार की यह पहली परियोजना है।
अनुपयोगी दवाओं से उपजने वाले ख़तरे भांपते हुए अन्य राज्यों को भी इस दिशा में अवश्य पहल करनी चाहिए। प्रत्येक स्तर पर स्थित निजी अस्पतालों या फार्मेसियों में बड़े स्तर पर मेडिसन ड्रॉप बॉक्स अनिवार्य रूप से लगाए जाएं। इस विषय में शैक्षणिक संस्थानों के ज़रिए व सामाजिक मंचों के माध्यम से व्यापक जन-जागरूकता फैलाना भी ज़रूरी है।
सचेत नागरिक होने के नाते हमें भी अपनी आदत बदलनी होगी। औपचारिक विकल्प उपलब्ध न होने की स्थिति में गोलियां कुचले-तोड़े बिना एक सीलबंद प्लास्टिक बैग में कॉफी, चायपत्ती या गंदगी जैसे अभक्ष्य पदार्थों के साथ मिलाकर, सुरक्षित कचरा पात्र में फेंक सकते हैं। इससे जहां बच्चों या जानवरों के आकस्मिक अंतर्ग्रहण को रोकने में मदद मिलेगी, वहीं जल प्रदूषण व जलीय जीवन की क्षति का अंदेशा भी घटेगा। हालांकि, यह दृष्टिकोण आदर्श नहीं है। दवाओं की बर्बादी कम करने का सबसे सरल उपाय है, अच्छा स्टॉक प्रबंधन। आवश्यकतानुसार ऑर्डर देने तथा नियमित रूप से दवाओं का रोटेशन सुनिश्चित करने से काफी हद तक यह बर्बादी घट सकती है। घरेलू स्तर पर भी यही बात लागू होती है। मुद्दा जब पर्यावरण एवं जैवहित से जुड़ा हो तो क्यों न समूचे तौर पर इसे संजीदगी से लिया जाए?