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विकास की विद्रूपता में कसमसाता लोकतंत्र

नीरा चंडोक इस महीने जी-20 संगठन के सदस्य नयी दिल्ली में होने वाले सम्मेलन में एकत्र होने जा रहे हैं। बिना शक, दक्षिणी गोलार्ध के नेतागण अपने-अपने देश में विकास की कमी का वास्ता देकर छूटें प्राप्त करने की जुगत...
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नीरा चंडोक

इस महीने जी-20 संगठन के सदस्य नयी दिल्ली में होने वाले सम्मेलन में एकत्र होने जा रहे हैं। बिना शक, दक्षिणी गोलार्ध के नेतागण अपने-अपने देश में विकास की कमी का वास्ता देकर छूटें प्राप्त करने की जुगत करेंगे। यह ‘विकास’ एक हैरत में डालने वाली अवस्था है, अपने आप में त्रासदी का वाहक।

बीते अप्रैल माह, राजस्थान के अलवर में, तेज गति की ‘वंदे भारत’ रेलगाड़ी से एक गाय टकरा गई और टक्कर से हवा में उछली गाय ने लगभग 30 मीटर दूर पटरी के किनारे निवृत्त हो रहे एक व्यक्ति को चपेट में ले लिया, जैसा कि शौचालय सुविधा से महरूम लोगबाग अकसर किया करते हैं। गाय और वह बंदा, दोनों मारे गए। इससे पहले, पिछले साल अक्तूबर माह में, मुम्बई-गांधीनगर ‘वंदे भारत’ रूट पर, इंजन का अग्र-भाग चार भैंसों से टकराने के बाद अंदर धंस गया था। रेलवे अधिकारियों का कहना था कि मृत भैंसों के शव हटाकर लाइन जल्द चालू कर दी गई। जब मामला ‘विकास’ का हो, तो कुछेक मौतों से क्या फर्क पड़ता है– क्योंकि यह ‘विकास’ सरकारों का अंतिम जादुई मंत्र जो ठहरा।

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यह मान लेना कि ‘विकास’ से सर्वत्र भलाई होती है, इतिहास का सबसे बड़ा मजाक है। ‘विकास’ होने से लोकतंत्र मजबूत अथवा दौलत का पुनर्वितरण स्वमेव नहीं होता। इस वर्ष, जनवरी माह में ऐसी खबर आई जो किसी के होश उड़ा दे, भारत पर ‘ऑक्सफैम’ रिपोर्ट बताती है कि चोटी के पांच फीसदी अमीर भारतीयों के हाथ में देश की 60 प्रतिशत से अधिक दौलत है, जबकि जनसंख्या के निचले तबके में आधों के पास महज 3 प्रतिशत! वह व्यवस्था जो अमीरों को और अमीर बनाना सुनिश्चित करती हो, वहां हाशिए पर आने वाले सदा भुगतते हैं। क्या यही है ‘विकास’?

1970 के दशक से ही शिक्षाविद ऐसे ‘विकास’ की आलोचना करते आए हैं, जो पूंजीवादी समाज की नकल पर आधारित हो यानी औद्योगिकीकरण, वस्तुभोगवाद और संग्रहण। यह क्यों भुला दिया जाता है कि उनका विकास दक्षिणी गोलार्ध में उपनिवेश बनाए देशों के स्रोतों और मानव श्रम के दोहन की बदौलत है। ‘निर्भरता सिद्धांत’ के गुरु आंद्रे गुंदर लिखते हैं ‘विकास और पिछड़ापन, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’ पश्चिम का विकास इसलिए हो पाया क्योंकि उपनिवेशों ने प्रक्रिया की कीमत चुकाई। अब विकसित देशों के बराबर आने में उन्हें सदियां न सही, दशक तो लगेंगे ही।

1990 के दशक में विकास की विद्रूपता का दमदार आलोचनात्मक विश्लेषण अनेक शिक्षाविदों द्वारा होता रहा है, जैसे कि आर्टुरो एस्कोबार, गुस्तावो एस्टीवा, इवान इलीच, आशीष नंदी और वंदना शिवा। वुल्फगैंग सैकस द्वारा संपादित ‘ए डेवेलपमेंट डिक्शनरी : ए गाइड टू नॉलेज (2009)’ का आलोचनात्मक विवेचना करने में खास स्थान है। शिक्षाविदों ने नाना तरीकों और उदाहरणों से इसे समझाया है। परंतु, सबका यकीन है कि विकास का मौजूदा तरीका पश्चिमी जगत के दबदबे वाली अवधारणा पर आधारित है। तथापि, दक्षिणी गोलार्ध के देशों ने आत्मनिर्भरता बनाने की बजाय विकसित पूंजीवादी व्यवस्था की नकल करना चुना।

विकासोत्तर सिद्धांतकारों की दलील है कि विकास की उक्त अवधारणा में यकीन से परे झोल हैं। यह इस अनुमान पर आधारित है कि मनुष्य तकनीक के बूते प्रकृति से पार पा सकता है। यह तकनीक ही थी जिसका इस्तेमाल हिटलर के जर्मनी में लाखों यहूदियों को मारने के लिए हुआ या स्टालिन के सोवियत यूनियन में करोड़ों को मौत के घाट उतारने में, इसी के जरिये नागरिकों पर कड़ी नज़र रखने वाली व्यवस्था कई मुल्कों में है, इसी तकनीक ने पर्यावरण तबाह किया और मौसम में बदलाव लाया है। यह तकनीक ही है जिससे अस्त्र-शस्त्र के अम्बार लगे, गृह युद्ध हुए या विध्वंसकारी परमाणु शक्ति बनी। तकनीक केवल तानाशाहों की मददगार है, यह भूखे मरते करोड़ों लोगों को न तो भोजन देती है न ही बेरोजगारों को काम या लोगों को ऐसी जिंदगानी का वादा, जो जीने लायक हो।

नीति-नियंता अभी भी पसोपेश में हैं कि वैश्विक संस्थान जिस विकास को बढ़ावा दे रहे हैं क्या विकासोत्तरवादी उसका कोई ठोस विकल्प पेश कर सकते हैं। एक विकल्प है तो, गांधीवादी सोच ‘विकेंद्रीकरण, भागीदारी और अनेकवाद का सम्मान’। अनेक शिक्षाविदों का विश्वास है कि सामाजिक आंदोलनों से सुझाए विकल्प ही किसी क्षेत्र विशेष और उसकी जरूरतों का ‘विकास नमूना’ दे सकते हैं। ‘विकास’ के कारण जो नुकसान लोकतंत्र को हुआ है, सुझाए विकल्प उसको सही करने का तरीका सुझा सकते हैं।

‘विकास’ के नाम पर सरकार जनजातीय लोगों की जमीनें, नदियां और वन रूपी जीवनस्रोत छीन लेती है। औद्योगिक अपशिष्ट के कारण नदियां प्रदूषित हो गई हैं और हिमालयी क्षेत्र का नाजुक पर्यावरणीय संतुलन सड़कें और राजमार्ग बनाने के कारण तबाह हो गया है। इस इलाके में भयंकर बाढ़ें और भूचाल आ रहे हैं, घर ढह रहे हैं और लोग बेघर। दून घाटी में, हजारों पेड़ ‘ईश्वरधाम’ तक जल्द पहुंचाने वाली सड़कें बनाने की भेंट चढ़ गए, पीछे बचा बंजर और शुष्क परिदृश्य। ‘विकास’ में बाधा बनते देख सरकार हमारी नागरिक स्वतंत्रता तक छीन लेती है। तथाकथित विकास की एवज में लोकतंत्र लगातार कमजोर हो रहा है।

तर्क से परे ‘विकास’ की ऐसी अवधारणा निरर्थक है, क्योंकि इसका मानना है कि समाज का सफर एक सीधी लकीर में बिंदु ‘अ’ से बिंदु ‘ब’ तक होता है। विकास के पैरोकार यह सरल तथ्य नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि अपने गंतव्य तक पहुंचने के सिलसिले में, समाज को कभी राह से हटकर पगडंडियां लेनी पड़ती हैं, कभी रास्ता पहाड़ी होता है तो कभी वादियां पार करनी पड़ती हैं और अक्सर यू-टर्न भी लिया जाता है। यूनानी मिथकों में, देवताओं ने सिसिफस को एक चट्टान को लुढ़काते हुए चोटी पर पहुंचाने की सजा दी थी। जाहिर है देवता भली-भांति जानते थे कि गुरुत्वाकर्षण और ढलान चट्टान को पहाड़ी की चोटी तक पहुंचाना कितना मुश्किल बना देंगे, इतिहास में सीधी रेखा जैसा कुछ नहीं है। मार्क्स की उक्ति है ‘इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार बतौर त्रासदी, उसके बाद तमाशे के रूप में।’ दोनों सूरतों में, ‘विकास’ एक शक्ति है- शक्ति जो प्राकृतिक स्रोत कब्जाए, शक्ति जो लोगों को गुलाम बनाए और शक्ति जो सत्ता दिलवाए। यह आश्चर्यजनक है कि विपक्ष की एकता को लेकर बने ‘इंडिया’ नामक गठबंधन में डी शब्द ‘डेवेलपमेंट’ (विकास) का द्योतक है, जबकि अगर यह डी ‘डेवेलपमेंट’ (विकास) वाली न होकर चिरस्थाई ‘डेमोक्रेसी’ (लोकतंत्र) वाली होती, तो ज्यादा सही नहीं?

लेखिका राजनीति विज्ञानी हैं।

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