विस्तारित कांग्रेस कार्यसमिति की मैराथन बैठक के बाद जो स्थिति बनी है उसे ‘ढाक के तीन पात’ के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। उम्मीद थी कि देश और कांग्रेस पार्टी की असाधारण स्थिति को देखते हुए अपनी इस महत्वपूर्ण बैठक में कांग्रेस का वृहत्तर नेतृत्व न केवल देश के संदर्भ में कुछ गंभीर चिंतन करेगा, बल्कि कुछ ठोस और ईमानदार आत्मचिंतन भी होगा ताकि कांग्रेस सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ तैयार हो सके। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सारे क्रियाकलाप पर दो चिट्ठियां छाई रहीं और आरोप-प्रत्यारोप के बीच सुलह हो जाने का नाटक पूरा हो गया।
आज भले ही सुलह की बात कह दी गई हो और भले ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनी ‘चोट’ को पीछे रखकर कांग्रेस परिवार को आगे बढ़ने की नसीहत देकर बात खत्म करने की घोषणा कर दी हो, पर यह तय है कि एक अरसे तक आग भीतर ही भीतर सुलगती रहेगी। कांग्रेस के लिए और देश के जनतंत्र के लिए यह स्थिति किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं है।
पहले दो चिट्ठियों वाली बात। दो चिट्ठियां पढ़ी गईं सात घंटे चलने वाली बैठक में। पहली चिट्ठी पिछले एक साल से अंतरिम अध्यक्ष के रूप में काम कर रही सोनिया गांधी की थी। इस पत्र में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि मुख्यतः स्वास्थ्य कारणों से वे यह भार अब और उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। यह बात वे पहले भी कहती रही हैं। पिछले साल जब राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने यह भार संभाला था, तब भी इस बात को रेखांकित किया गया था कि उनका स्वास्थ्य अब उन्हें मजबूर कर रहा है। उम्मीद थी कि इस महत्वपूर्ण बैठक में इस विषय पर गंभीर चर्चा होगी, पर ऐसा नहीं हुआ। फिर से अंतरिम व्यवस्था करके एक जरूरी और महत्वपूर्ण निर्णय को टाल दिया गया।
अब दूसरी चिट्ठी की बात। यह चिट्ठी कांग्रेस के तेईस वरिष्ठ नेताओं ने अध्यक्ष के नाम लिखी थी, जिसमें एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की नियुक्ति की मांग की गई थी-एक ऐसा अध्यक्ष जो पूरा समय पार्टी को दे सके, सक्रिय दिखे और पार्टी की डूबती नाव को पार लगा सके। इस मांग में कहीं कुछ गलत नहीं था। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष पद छोड़ने की बात लगातार कह रही थीं, पिछले चुनावों में कांग्रेस की शर्मनाक पराजय के बाद तत्कालीन अध्यक्ष नैतिक आधार पर इस्तीफा दे चुके थे और इस बीच बार-बार यह कहते रहे हैं कि वे फिर से अध्यक्ष बनने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने, और उनकी बहन, दोनों ने यह भी दोहराया कि वे नहीं चाहते कि गांधी-परिवार का कोई सदस्य पार्टी का अध्यक्ष बने। ऐसे में कांग्रेस पार्टी के पास क्या विकल्प बचता है? इसी प्रश्न के उत्तर में वह दूसरी चिट्ठी लिखी गई थी, जिसने, दुर्भाग्य से, कार्यसमिति का सारा एजेंडा ही अपहृत कर लिया। सारे समय में दो ही बातें हुईं कि गांधी-परिवार ही कांग्रेस पार्टी का तारणहार है और दूसरी चिट्ठी लिखने वाले कांग्रेस पार्टी के दुश्मन हैं।
कांग्रेस पार्टी ने फिलहाल भले ही जो हुआ सो हुआ, कह कर आगे बढ़ने की बात कह दी हो पर जिस तरह से चिट्ठी लिखने वालों को भाजपा के इशारों पर काम करने वाला बताया गया, वह कोई छोटा आरोप नहीं है। इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि यदि यह चिट्ठी लिखे जाने से कोई आहत हुआ है तो चोट उन्हें भी लगी है, जिन्हें किसी गैर के इशारे पर काम करने वाला बताया गया है।
बहरहाल, यह कांग्रेस पार्टी को देखना है कि वह अपने को कैसे संभाले, पर कांग्रेस पार्टी का इतनी बुरी तरह से लड़खड़ाना पूरे देश की चिंता का विषय होना चाहिए। पिछले दो चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की शानदार जीत ही नहीं हुई, कांग्रेस की शर्मनाक पराजय भी हुई है। पर इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पराजय ने एक ताकतवर विपक्ष भी छीन लिया है जो जनतंत्र की सफलता और सार्थकता की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है। कांग्रेस का बिखरना अथवा कांग्रेस का अपने आप को संभालने-समेटने में विफल होना, हमारी समूची जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा है, और चुनौती भी।
इंदिरा गांधी के जमाने में उनके विरोधी बार-बार यह बात दोहराया करते थे कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है और अपार शक्ति वाली सत्ता अपार भ्रष्ट। भले ही यह बात आपातकाल के संदर्भ में कही जाती थी, पर सत्ता के भ्रष्टाचार के संदर्भ में यह किसी भी काल पर लागू हो सकती है। विपक्ष का इतना कमजोर होना, जितना कि भारत में यह अब है, सत्ता को निरंकुश बनाता है। यह निरंकुशता जनतंत्र को अर्थहीन बना देती है। जनतंत्र के स्वास्थ्य और सार्थकता दोनों के लिए जरूरी है कि सरकार भी मजबूत हो और विपक्ष भी। तभी दोनों अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं। आज हमारी संसद में जो स्थिति है, वह सत्तारूढ़ दल के लिए भले ही कितनी भी अच्छी क्यों न हो, जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए निश्चित रूप से खतरनाक है।
जो बात जनतंत्र के लिए सच है, वह जनतंत्र में राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। अंकुश दलों के भीतर भी चाहिए। एक अपार ताकत वाला नेता किस तरह निरंकुश हो सकता है, यह देश आपातकाल में देख चुका है। फिर कोई इस तरह निरंकुश न बने, इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों के भीतर भी स्वस्थ आलोचना को स्वीकारा जाए। जैसे विपक्ष देश का दुश्मन नहीं होता, वैसे ही दलों के भीतर असहमति का स्वर उठाने वाले दलों के दुश्मन नहीं होते। इस असहमति को गद्दारी कहना गलत होगा। सच तो यह है कि इस असहमति का स्वागत होना चाहिए।
कांग्रेस के भीतर इस दूसरी चिट्ठी का स्वागत होना चाहिए था। इसमें उठाए गए मुद्दों पर खुलकर ईमानदार बहस होनी चाहिए थी। यह बात कांग्रेस के हर छोटे-बड़े नेता को समझनी होगी कि दावे कुछ भी किए जाते रहें, आज कांग्रेस नेतृत्वहीनता की स्थिति में है। यह स्थिति कांग्रेस और जनतंत्र दोनों के लिए खतरनाक है। इतना ही खतरनाक होता है किसी पार्टी का किसी व्यक्ति या किसी परिवार पर निर्भर होना। कोई भी नेता किसी भी पार्टी के लिए अपरिहार्य नहीं होता। समय और स्थितियां नेताओं को सामने लाती हैं और अवसर उन्हें स्वयं को सिद्ध करने का मौका देते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों, परंपराओं का तकाजा है कि इस अवसर के निर्माण की ईमानदार कोशिश हो। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को इस ईमानदारी का परिचय देना है। यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में एक मजबूत विपक्ष नहीं है, पर कांग्रेस के लिए अच्छी बात है कि उसके पास अवसर है स्वयं को सिद्ध करने का। राजनीति में महत्वाकांक्षी होना कतई गलत नहीं है, पर राजनीतिक ईमानदारी जनतंत्र की सार्थकता और सफलता की शर्त है। कांग्रेस वालों को इस ईमानदारी का परिचय देना है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।