एकता के लिए विपक्षी गठबंधन को दरपेश चुनौतियां
हालांकि लोगों को इसकी उम्मीद नहीं थी लेकिन दूरदृष्टि दिखाते हुए मुख्य विपक्षी दल न केवल एक नाम पर सहमत हो गए हैं बल्कि पटना और बंगलुरू में दो सफल बैठकों का भी आयोजन कर चुके हैं। यह विपक्षी एकता के लिए शुभ संकेत है। सभी 26 विपक्षी दल बंगलुरू बैठक में सहमत हो गये कि नया गठबंधन भारत राष्ट्रीय विकास संगठन (इंडिया नेशनल डेवेलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) के नाम से जाना जाएगा। विपक्षी दलों के समक्ष पहली चुनौती एक ऐसे नाम पर सहमत होना था जो सभी दलों को स्वीकार हो और मोदी को चुनौती दे सके। अब अगला कदम आपसी मतभेदों को मिटाना, सभी राज्यों में सीटों पर समझौता करना और साझा रणनीति को अंजाम देना है।
विपक्षी एकता के लक्ष्य को प्राप्त करने में कांग्रेस ने पहल की और मिसाल पेश की कि विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस वचनबद्ध है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ऐलान किया कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की दावेदार नहीं है। इस बयान से उन क्षेत्रीय दलों के प्रमुखों को राहत महसूस हुई होगी जिन्हें कांग्रेस से परहेज है।
भाजपा के सबसे सशक्त स्तंभ प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी हैं जो राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर चुनाव जीतने की क्षमता रखते हैं। साल 2024 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी का दारोमदार मोदी पर है। इन चुनावों में भाजपा की अपील मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर तीसरा कार्यकाल देने की होगी और यह प्रभावी भी हो सकती है। यदि विपक्ष एकजुट होकर कोई दमदार नेता पर मोहर नहीं लगाते। समझा जाता है कि विपक्षी दलों के नेता मसलन ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, उद्धव ठाकरे, महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और वामपंथी दल कांग्रेस पर दबाव बनाएं कि मल्लिकार्जुन खड़गे जो दलित हैं, को प्रधानमंत्री के रूप में आगे किया जाए। शायद य़ह प्रस्ताव क्षेत्रीय दल भी मंजूर कर लें। कांग्रेस की सभी राज्यों में मौजूदगी के चलते इस पर मोहर लग सकती है क्योंकि राहुल गांधी पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि विपक्षी एकता के लिए उनकी पार्टी कोई भी कुर्बानी करने को तैयार है। इसका पहला उदाहरण तब मिला जब दिल्ली अध्यादेश के मामले में अपना कदम पीछे खींचते हुए कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के अध्यादेश के विरोध को राज्यसभा में समर्थन देने की घोषणा कर दी। वहीं बंगलुरू की बैठक में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के मध्य में बैठी नजर आईं जिससे संदेश गया कि बड़ा लक्ष्य प्राप्त करने को पिछली बातों को भूल कर आगे बढ़ना होगा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि अलग-अलग विचारधाराओं के राजनीतिक दल और अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा वाले क्षेत्रीय नेता एकजुट होने के लिए राजी हैं तो इसका मुख्य कारण मोदी सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं को प्रताड़ित करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग है। शायद इसी डर से पटना बैठक में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के उस बयान को अनदेखा किया गया कि कांग्रेस दिल्ली अध्यादेश के विरोध में खड़ी नजर नहीं आ रही और इसी कारण उन्होंने स्वयं को साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस से अलग रखा था। इसी बयान के तुरंत बाद भाजपा ने कटाक्ष किया था कि विरोधाभासों के चलते विपक्षी एकता की संभावना नगण्य है। लेकिन इसके बाद कांग्रेस ने राज्यसभा में अध्यादेश का विरोध करने का ऐलान कर बंगलुरू बैठक में केजरीवाल की शिरकत का रास्ता साफ़ कर दिया। जानकारों का मानना है कि इस मामले को सुलझाने में ममता बनर्जी ने बड़ी भूमिका निभाई।
ग्यारह सदस्यीय सर्वदलीय को-ऑर्डिनेशन समिति के गठन से साफ़ है कि सहयोग का खाका जल्द बनाया जाएगा और मुंबई में होने वाली नेताओं की अगली बैठक से पहले काफी कुछ साफ़ होने लगेगा। कुल 26 दलों को साथ रखने के लिए कांग्रेस को और भी बलिदान देना पड़ सकता है। वहीं क्षेत्रीय दलों के नेता मसलन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली और पंजाब में केजरीवाल, तमिलनाडु में स्टालिन, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव व केरल में पिनाराई विजयन सशक्त नेता हैं। ऐसे में अपने-अपने राज्यों में ये दल सीटों का बड़ा हिस्सा मांगेंगे। कांग्रेस अपने बूते पर भाजपा को कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश में टक्कर दे सकती है। इन राज्यों में ज्यादातर सीटों पर उसका हक होगा। कांग्रेस पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली में अधिक असरदार पार्टी नहीं। उसे इन राज्यों में अनावश्यक सीटों की मांग से पार्टी को बचना होगा। पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी के कारण गुजरात, गोवा, कर्नाटक और त्रिपुरा में कांग्रेस को वोटों का नुकसान हुआ। अब उम्मीद की जाती है कि आप इन राज्यों में अपने प्रत्याशी नहीं उतारेगी। यदि नजर दौड़ायें तो 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने हिंदी क्षेत्र की 218 सीटों में से 196 पर जीत दर्ज की थी लेकिन अब हालात अलग हैं। बिहार में भाजपा का गठबंधन टूट चुका है। ऐसे में शायद ही 2019 का इतिहास दोहराया जाये। यद्यपि इस बार भी भाजपा राम मंदिर, अनुच्छेद 370 हटाना, यूनिफॉर्म सिविल कोड और एनडीए सरकार की उपलब्धियाें के सहारे चुनाव जीतने की जुगत लगाएगी। विशेषज्ञ मानते हैं कि अब इन मुद्दों का असर कठिन होगा क्योंकि जनता के समक्ष बेरोजगारी व महंगाई हैं।
इन परिस्थितियों में सभी 26 विपक्षी दलों का ऐसे एक नाम पर सहमत होना टेढ़ी खीर है जो 2024 में इस गठबंधन का नेतृत्व कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके। बेशक अभी भी विरोधी दलों के गठबंधन के लिए दिल्ली दूर है लेकिन उधर भाजपा के लिए भी 2024 की राह आसान नहीं।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।